ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 80/ मन्त्र 10
अवी॑वृधद्वो अमृता॒ अम॑न्दीदेक॒द्यूर्दे॑वा उ॒त याश्च॑ देवीः । तस्मा॑ उ॒ राध॑: कृणुत प्रश॒स्तं प्रा॒तर्म॒क्षू धि॒याव॑सुर्जगम्यात् ॥
स्वर सहित पद पाठअवी॑वृधत् । वः॒ । अ॒मृ॒ताः॒ । अम॑न्दीत् । ए॒क॒ऽद्यूः । दे॒वाः॒ । उ॒त । याः । च॒ । दे॒वीः॒ । तस्मै॑ । ऊँ॒ इति॑ । राधः॑ । कृ॒णु॒त॒ । प्र॒ऽश॒स्तम् । प्रा॒तः । म॒क्षु । धि॒याऽव॑सुः । ज॒ग॒म्या॒त् ॥
स्वर रहित मन्त्र
अवीवृधद्वो अमृता अमन्दीदेकद्यूर्देवा उत याश्च देवीः । तस्मा उ राध: कृणुत प्रशस्तं प्रातर्मक्षू धियावसुर्जगम्यात् ॥
स्वर रहित पद पाठअवीवृधत् । वः । अमृताः । अमन्दीत् । एकऽद्यूः । देवाः । उत । याः । च । देवीः । तस्मै । ऊँ इति । राधः । कृणुत । प्रऽशस्तम् । प्रातः । मक्षु । धियाऽवसुः । जगम्यात् ॥ ८.८०.१०
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 80; मन्त्र » 10
अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 36; मन्त्र » 5
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अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 36; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
O Immortal divinities of spirit and nature, O holy men and women of spotless character and generous disposition, let the dedicated performer of daily yajna exhilarate and exalt you with yajna and hospitality. You too, pray, create and bless him with honourable wealth, means and materials for success, and may the spirit of light and intelligence, Agni, visit and bless him every morning at yajna.
मराठी (1)
भावार्थ
गृहस्थ स्त्री-पुरुषांनी प्रत्येक दिवशी यज्ञ करावा. त्यांनी प्रात:काळी प्रभूची उपासना या प्रकारे करावी की त्याच्या सान्निध्याचा अनुभव यावा. ॥१०॥
संस्कृत (1)
विषयः
N/A
पदार्थः
हे अमृताः=मरणरहिताः ! हे देवाः ! एकद्यूः= दैनिकयज्ञकर्त्ता । वः=युष्मान् । अवीवृधत्=वर्धयति । स्तुत्या । अमन्दीत्=आनन्दयति । उत=अपि च । युष्माकं मध्ये याः । च+देवीः=देव्यः । ता अपि वर्धयति=आनन्दयति च । ते यूयम् । तस्मै+उ । राधः=धनादिकम् । प्रशस्तम् । कृणुत । युष्माकं कृपया । धियावसुः=हृदयवासी, ज्ञाने विराजमानः । मक्षू=शीघ्रम् । प्रातरेव । जगम्यात्=गच्छेत् ॥१० ॥
हिन्दी (3)
विषय
N/A
पदार्थ
(अमृताः) हे मरणरहित (देवाः) दिव्यगुणसहित पुरुषो ! (वः) आपको (उत) और (याः+च+देवीः) जो आप लोगों की स्त्रियाँ हैं, उनको भी (एकद्यूः) दैनिक यज्ञकर्ता सदा (अवीवृधत्) बढ़ाते और (अमन्दीत्) आनन्दित करते हैं, अतः (तस्मै+उ) उसको (प्रशस्तम्+राधः) प्रशस्त धन विज्ञान आदि दो और (धियावसुः) हृदयज्ञान और क्रिया में निवासी परमेश्वर हमारे निकट (मक्षू) शीघ्र और (प्रातः) प्रातःकाल ही (जगम्यात्) आवे ॥१० ॥
विषय
सर्वानन्दप्रद उपास्य प्रभु।
भावार्थ
हे ( अमृताः देवाः ) अमृतस्वरूप, दीर्घायु विद्वान्गण, (उत्त) और ( याः च देवीः ) जो आप लोग विदुषी नारियां हो। आप सबको ( एक-द्यू: ) एकमात्र, अद्वितीय प्रकाशक प्रभु ही ( अमन्दीत् ) आनन्दित करता है और वही (वः अवीवृधत्) आप लोगों की वृद्धि करता है। (तस्मा उ प्रशस्तं राधः कृणुत ) उस की ही सर्वोत्तम आराधना किया करो और ( प्रातः ) प्रभात में ( मक्षु ) शीघ्र ही सबसे प्रथम ( धियावसुः ) ज्ञान और कर्म का धनी वही प्रभु ( जगम्यात् ) तुम्हें प्राप्त हो, उसी की प्रथम उपासना करो। इति षट् त्रिंशो वर्गः॥ इत्यष्टमोऽनुवाकः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
एकद्यूनौंधस ऋषिः॥ १—९ इन्द्रः। १० देवा देवता॥ छन्दः—१ विराड् गायत्री। २, ३, ५, ८ निचद् गायत्री। ४, ६, ७, ९, १० गायत्री॥ दशर्चं सूक्तम्॥
विषय
अवीवृधत्+अमन्दीत्
पदार्थ
[१] हे (देवा:) = देववृत्ति के पुरुषो! (उत) = और (याः च देवी) = जो भी देववृत्ति की नारियाँ हैं, (उ) = उन आप सबको वह (एकद्यूः) = अद्वितीय दीप्तिवाला प्रभु ही (अवीवृधद्) = बढ़ाता है। हे (अमृताः) = विषयवासनाओं के पीछे न मरनेवाले नर-नारियो ! वह प्रभु ही तुम्हें (अमन्दीत्) = आनन्दित करता है। [२] (तस्मा) = उसकी प्राप्ति के लिये तुम (उ) = निश्चय से (राधः) = धन को (प्रशस्तं कृणुत) = प्रशस्त करो, अर्थात् धन को अपवित्र साधनों से मत कमाओ। तुम्हें प्रातः- प्रातः (मक्षू) = शीघ्र ही (धियावसुः) = बुद्धिपूर्वक कर्मों से निवास को उत्तम बनानेवाला वह प्रभु (जगम्यात्) = प्राप्त हो । तुम प्रातः सर्वप्रथम उस प्रभु का ही स्मरण करो।
भावार्थ
भावार्थ- हम देववृत्ति के बनें। विषयवासनाओं में न उलझें । प्रातः सर्वप्रथम प्रभु का स्मरण करें। प्रभु ही हमें बढ़ाते हैं, वे ही आनन्दित करते हैं। यह प्रभु से अपना संश्लेषण [मेल] करनेवाला 'कुसीदी' कहलाता है [कुस संश्लेषणे ] । यही समझदार [काण्व] है। यह प्रभु से कहता है-
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