ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 82/ मन्त्र 4
आ त्व॑शत्र॒वा ग॑हि॒ न्यु१॒॑क्थानि॑ च हूयसे । उ॒प॒मे रो॑च॒ने दि॒वः ॥
स्वर सहित पद पाठआ । तु । अ॒स॒त्रो॒ इति॑ । आ । ग॒हि॒ । नि । उ॒क्थानि॑ । च॒ । हू॒य॒से॒ । उ॒प॒ऽमे । रो॒च॒ने । दि॒वः ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ त्वशत्रवा गहि न्यु१क्थानि च हूयसे । उपमे रोचने दिवः ॥
स्वर रहित पद पाठआ । तु । असत्रो इति । आ । गहि । नि । उक्थानि । च । हूयसे । उपऽमे । रोचने । दिवः ॥ ८.८२.४
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 82; मन्त्र » 4
अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 1; मन्त्र » 4
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अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 1; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Indra, happy and free from all foes, distractions and contradictions, come in response to the hymns of adoration, invited to the sublime glory of the light of heaven.
मराठी (1)
भावार्थ
ज्ञानप्रकाश प्राप्त व्हावा या प्रयोजनाने जी सत्कर्मे केली जातात ती एक प्रकारे ‘दिव: सवन’ आहेत. त्यात साधकाचे एक कर्तव्य हे आहे की त्याने वेद इत्यादी शास्त्रोक्त स्तोत्रांचा पाठ करावा. वेद वचनात प्रभूच्या गुणांचे गायन, प्रभूचे स्वरूप समजण्याचे व प्रभूप्राप्तीचे उपयुक्त साधन आहे. ॥४॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
हे (अशत्रो) विश्वमैत्री भावना से प्रभावित होने से अथवा दुर्भावनाओं को सर्वथा दूर रखने में समर्थ होने से शत्रुरहित साधक! (तु) शीघ्र ही (आ गहि) आ; (च) और तीन सवनों में से एक, (दिवः) ज्ञान प्राप्ति हेतु किये जाने वाले (उपमे) उपमाभूत, श्रेष्ठ या आदर्श (रोचने) सवन-सत्कर्मरूप यज्ञ के सफल सम्पादन हेतु (उक्थानि) उपदेश देने योग्य वेदस्थ सब स्तोत्रों को लक्ष्य में रखकर (नि, हूयसे) आहूत किया जा रहा है॥४॥
भावार्थ
ज्ञान का प्रकाश पाने के प्रयोजन से जो सत्कर्म किये जाते हैं, वे एक प्रकार से 'दिवः सवन' हैं; उनमें साधक का कर्त्तव्य यह है कि वह वेदादि शास्त्रोक्त स्तोत्रों का पाठ करे। वेदवचनों में प्रभु के गुणों का गान प्रभु के स्वरूप को समझने का और इस तरह प्रभु-प्राप्ति का एक उपयुक्त साधन है॥४॥
विषय
अशत्रु राजा।
भावार्थ
हे ( अशत्रो ) अजातशत्रो ! शत्रुरहित ! तू ( आगहि ) आ। ( दिवः उप-मे ) सूर्य की उपमा योग्य ( रोचने ) अति तेजस्वी, पद पर तू ( उक्थानि ) नाना उत्तम स्तुति वचनों द्वारा आह्वान और स्तवन किया जाता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कुसीदी काण्व ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ७, ६ निचृद् गायत्री। २, ५, ६, ८ गायत्री। ३, ४ विराड् गायत्री॥ नवर्चं सूक्तम्॥
विषय
उपमे रोचने दिवः
पदार्थ
[१] हे (अशत्रो) = सब काम-क्रोध आदि शत्रुओं को विनष्ट करनेवाले सोम! (आ आगहि) = तु तू हमें सर्वथा प्राप्त हो ही । [२] (च) = और तू हमें (दिवः) = ज्ञान के (उपमे) = अन्तिकतम (रोचने) = दीप्त स्थान में- हृदयदेश में (उक्थानि निहूयसे) = स्तोत्रों के प्रति पुकारता है, अर्थात् सुरक्षित सोम हमारे ज्ञान को बढ़ाता है और हमें प्रभुस्तवन की वृत्तिवाला बनाता है।
भावार्थ
भावार्थ- शरीर में सुरक्षित सोम हमें क्रोध आदि शत्रुओं को पराजित करने में समर्थ करता है। हमारे ज्ञान को बढ़ाता है और हमें प्रभुस्तवन की वृत्तिवाला बनाता है।
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