ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 19/ मन्त्र 4
ऋषिः - असितः काश्यपो देवलो वा
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
अवा॑वशन्त धी॒तयो॑ वृष॒भस्याधि॒ रेत॑सि । सू॒नोर्व॒त्सस्य॑ मा॒तर॑: ॥
स्वर सहित पद पाठअवा॑वशन्त । धी॒तयः॑ । वृ॒ष॒भस्य॑ । अधि॑ । रेत॑सि । सू॒नोः । व॒त्सस्य॑ । मा॒तरः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अवावशन्त धीतयो वृषभस्याधि रेतसि । सूनोर्वत्सस्य मातर: ॥
स्वर रहित पद पाठअवावशन्त । धीतयः । वृषभस्य । अधि । रेतसि । सूनोः । वत्सस्य । मातरः ॥ ९.१९.४
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 19; मन्त्र » 4
अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 9; मन्त्र » 4
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अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 9; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(धीतयः) सप्त प्रकृतयः (वृषभस्य) सर्वकामप्रदस्य परमात्मनः (अधिरेतसि) कार्येषु (अवावशन्त) सङ्गता भवति (सूनोः वत्सस्य) यथा वत्सार्थं (मातरः) मातरो गावः सङ्गच्छन्ते तद्वत् ॥४॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(धीतयः) सात प्रकृतियें (वृषभस्य) सब कामप्रद परमात्मा के (अधिरेतसि) कार्य में (अवावशन्त) संगत होती हैं (सूनोः वत्सस्य) जैसे वत्स के लिये (मातरः) गायें संगत होती हैं ॥४॥
भावार्थ
गऊ अपने बच्चे को दुग्ध पिलाकर जिस प्रकार परिपुष्ट करती है, इसी प्रकार प्रकृति अपने इस कार्यरूप ब्रह्माण्ड को अपने परमाण्वादि दुग्धों द्वारा परिपुष्ट करती है। तात्पर्य यह है कि प्रकृति इस जगत् का उपादान कारण है, परमात्मा निमित्त कारण है और यह संसार वत्ससमान प्रकृति और वृषभरूपी पुरुष का कार्य है ॥४॥
विषय
सूनोः वत्सस्य मातरः
पदार्थ
[१] (धीतयः) = सोम का पान करनेवाले लोग [ धेट् पाने] (वृषभस्य) = उस शक्तिशाली सुखों का वर्षण करनेवाले प्रभु के (अधिरेतसि) = इस रेतस् के विषय में (अवावशन्त) = कामना करते हैं। प्रभु से उत्पन्न किये गये इस सोम को अपने अन्दर ही पीने की इच्छा करती हैं, इसे अपने अन्दर सुरक्षित रखते हैं। [२] ये व्यक्ति (सूनोः) = हृदयस्थरूपेण प्रेरणा देनेवाले [षू प्रेरणे] (वत्सस्य) = वेद-वाणियों का उच्चारण करनेवाले उस प्रभु के (मातरः) = ज्ञान प्राप्त करनेवाले होते हैं [प्र०मा = to know] | हृदयस्थ प्रभु की प्रेरणा को ये सुनते हैं और उससे उच्चरित ज्ञान-वाणियों के द्वारा प्रभु को जाननेवाले होते हैं।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु से उत्पन्न किये गये सोम को अपने अन्दर पीनेवाले व्यक्ति प्रभु प्रेरणा को सुन पाते हैं, उससे उच्चारित ज्ञान वाणियों को सुनते हुए प्रभु का ज्ञान प्राप्त करनेवाले होते हैं |
विषय
मेघ और भूमि के तुल्य प्रकृति परमेश्वर की जगत-सर्ग में कारणता।
भावार्थ
(रेतसि) जल के निमित्त जिस प्रकार (धीतयः) जलपान करने वाली भूमियां (वृषभस्य अधि अवावशन्त) वर्षणशील मेघ की अधिक अपेक्षा करती हैं उसी प्रकार (रेतसि) परम पुरुषार्थ वा जगत् के उत्पादक सर्वबीज के निमित्त (धीतयः) आधान योग्य समस्त भूमियां (वृषभस्य) अति बलशाली जगत्-उत्पादक तत्त्व की (अधि वावशन्त) अधिक कामना करती हैं। और जिस प्रकार (वत्सस्य सूनोः मातरः) उत्पन्न हुए बच्चे की माताएं बच्चों को चाहती हैं उसी प्रकार (वत्सस्य मातरः) वत्सवत् इस जगत् की निर्मातृ शक्तियां भी (सूनोः अधि वावशन्त) अपने ऊपर महान् सञ्चालक, प्रेरक की अपेक्षा करती हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
आसतः काश्यपो देवलो वा ऋषिः। पवमानः सोमो देवता ॥ छन्द:- १ विराड् गायत्री। २, ५, ७ निचृद् गायत्री। ३, ४ गायत्री। ६ भुरिग्गायत्री॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Just as females in season yearn for a darling off spring, so do the evolving forms of Prakrti, Mother Nature, inspired by desire, long for the life seed of the omnipotent father of universal life.
मराठी (1)
भावार्थ
गाय आपल्या वासराला दूध पाजवून ज्या प्रकारे परिपुष्ट करते त्याच प्रकारे प्रकृती आपल्या कार्यरूप ब्रह्मांडाला आपल्या पश्य: पश्यते रुकमवर्णं कर्त्तारमीशं पुरुषं ब्रह्मयोनिम् । तदा विद्वान पुण्यपाप विधूय निरञ्ज परमाणूरूपी दुधाद्वारे पुष्ट करते. तात्पर्य हे की प्रकृती या जगाचे उपादान कारण आहे. परमात्मा निमित्त कारण आहे व हे जग वासराप्रमाणे प्रकृती व वृषभरूपी (परमात्मरूपी) पुरुषाचे कार्यरूप आहे. ॥४॥
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