ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 24/ मन्त्र 3
ऋषिः - असितः काश्यपो देवलो वा
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - निचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
प्र प॑वमान धन्वसि॒ सोमेन्द्रा॑य॒ पात॑वे । नृभि॑र्य॒तो वि नी॑यसे ॥
स्वर सहित पद पाठप्र । प॒व॒मा॒न॒ । ध॒न्व॒सि॒ । सोम॑ । इन्द्रा॑य । पात॑वे । नृऽभिः॑ । य॒तः । वि । नी॒य॒से॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र पवमान धन्वसि सोमेन्द्राय पातवे । नृभिर्यतो वि नीयसे ॥
स्वर रहित पद पाठप्र । पवमान । धन्वसि । सोम । इन्द्राय । पातवे । नृऽभिः । यतः । वि । नीयसे ॥ ९.२४.३
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 24; मन्त्र » 3
अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 14; मन्त्र » 3
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अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 14; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(प्र पवमान) हे परमात्मन् ! (धन्वसि) भवान् सर्वत्र गमनशीलः (सोम) हे भगवन् ! (इन्द्राय पातवे) कर्मयोगिनः तृप्तये केवलो भवानेवोपास्यः (यतः) यस्मात् (नृभिः) ऋत्विगादिभिः (विनीयसे) विनयेन लभ्यते भवान् ॥३॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(प्र पवमान) हे परमात्मन् ! (धन्वसि) तुम सर्वत्र गतिशील हो और (सोम इन्द्राय) कर्मयोगी की (पातवे) तृप्ति के लिये तुम ही एकमात्र उपास्य देव हो (यतः) जिसलिये (नृभिः) ऋत्विगादि लोगों के (विनीयसे) विनीतभाव से आप उन्हें प्राप्त होते हैं ॥३॥
भावार्थ
परमात्मा उपदेश करते हैं कि जो पुरुष कर्मयोगी व ज्ञानयोगी हैं, उनकी तृप्ति का कारण एकमात्र परमात्मा ही है। तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार परमात्मा में ज्ञान बल क्रिया इत्यादि धर्म स्वभाविक पाये जाते हैं, इसी प्रकार कर्मयोगी और ज्ञानयोगी पुरुष भी साधनसम्पन्न हो कर उन धर्मों को धारण करते हैं ॥३॥
विषय
उत्कृष्ट मार्ग का आक्रमण
पदार्थ
[१] हे (पवमान) = हमारे जीवनों को पवित्र करनेवाले सोम ! तू (प्रधन्वसि) = हमारे शरीरों में प्रकृष्ट गतिवाला होता है। शरीर में सुरक्षित होने पर यह उत्कृष्ट पथ पर चलने की रुचिवाला बनाता है । हे (सोम) = वीर्यशक्ते ! तू (इन्द्राय पातवे) = जितेन्द्रिय पुरुष के पान के लिये होता है । जितेन्द्रिय पुरुष ही तुझे शरीर में व्याप्त कर पाता है । [२] (नृभिः) = उत्कृष्ट पथ पर चलनेवाले पुरुषों से (यतः) = संयत हुआ-हुआ तू विनीयसे विशिष्ट रूप से शरीर में सर्वत्र प्राप्त कराया जाता है।
भावार्थ
भावार्थ- शरीर में रक्षित सोम हमें उत्कृष्ट मार्ग पर चलने के लिये प्रेरित करता है ।
विषय
वीर के समान जीव को उन्नति पथ पर अग्रसर होने का उपदेश विपथगामी इन्द्रियों के जय का उपदेश।
भावार्थ
हे (पवमान सोम) पवित्र अन्तःकरण वाले उत्तम जीव ! तू (पातवे) अपने पालन वा रक्षा-याचना के लिये (इन्द्राय) उसी प्रभु परमेश्वर के लिये (प्र धन्वसि) ऐश्वर्य प्राप्ति के निमित्त वीर के समान मानो धनुष-बल से विजय करता हुआ आगे बढ़ रहा है (यतः) जहां से तू (नृभिः) सांसारिक विषयों की ओर ले आने वाले इन्द्रिय गणों द्वारा (वि नीयसे) उस प्रभु से विपरीत दिशा में इस जगत् के भोग्य पदार्थों की ओर बलात् ले जाया जाता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
असितः काश्यपो देवलो वा ऋषिः। पवमानः सोमो देवता॥ छन्द:– १, २ गायत्री। ३, ५, ७ निचृद् गायत्री। ४, ६ विराड् गायत्री ॥ सप्तर्चं सूकम्॥
इंग्लिश (1)
Meaning
O Soma, universal power and joy of existence, pure and purifying, you vibrate in the universe like an ocean of nectar. Celebrated by men of vision and wisdom, you arise and manifest in your glory in the devotee’s experience and inspire him to rise to divinity.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्मा उपदेश करतो की जे पुरुष कर्मयोगी व ज्ञानयोगी आहेत त्यांच्या तृप्तीचे कारण एकमात्र परमेश्वर आहे. ज्या प्रकारे परमात्म्यामध्ये ज्ञान, बल, क्रिया इत्यादी धर्म स्वाभाविकरीत्या दिसून येतात याचप्रकारे कर्मयोगी व ज्ञानयोगी पुरुषही साधन संपन्न होऊन त्या धर्मांना धारण करतात. ॥३॥
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