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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 33 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 33/ मन्त्र 3
    ऋषिः - त्रितः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    सु॒ता इन्द्रा॑य वा॒यवे॒ वरु॑णाय म॒रुद्भ्य॑: । सोमा॑ अर्षन्ति॒ विष्ण॑वे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सु॒ताः । इन्द्रा॑य । वा॒यवे॑ । वरु॑णाय । म॒रुत्ऽभ्यः॑ । सोमाः॑ । अ॒र्ष॒न्ति॒ । विष्ण॑वे ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सुता इन्द्राय वायवे वरुणाय मरुद्भ्य: । सोमा अर्षन्ति विष्णवे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सुताः । इन्द्राय । वायवे । वरुणाय । मरुत्ऽभ्यः । सोमाः । अर्षन्ति । विष्णवे ॥ ९.३३.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 33; मन्त्र » 3
    अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 23; मन्त्र » 3
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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (मरुद्भ्यः सुताः सोमाः) विद्वद्भिः ज्ञानकर्मोपासना-सिद्धिगमिता विद्वांसः (विष्णवे अर्षन्ति) सर्वव्यापकस्य पदमधिगच्छन्ति यः परमात्मा (इन्द्राय) परमेश्वरः तथा (वायवे) सर्वव्यापकः (वरुणाय) सर्वेषां सेव्यश्चास्ति ॥३॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (मरुद्भ्यः सुताः सोमाः) विद्वानों से कर्मोपासना से सिद्धि को प्राप्त हुए विद्वान् (विष्णवे अर्षन्ति) सर्वव्यापक परमात्मा के पद को प्राप्त होते हैं। जो परमात्मा (इन्द्राय) “इन्दति परमैश्वर्यं प्राप्नोतीतीन्द्रः” परमैश्वर्यसम्पन्न है तथा “वाति गच्छति सर्वत्र व्याप्नोतीति वायुः” सर्वव्यापक है। (वायवे) “व्रियते संभज्यते जनैरिति वरुणः” जो सबको भजनीय है, उसको प्राप्त होते हैं ॥३॥

    भावार्थ

    जिन लोगों ने माता-पिता और आचार्य से सिद्धि को प्राप्त किया है, वे ज्ञान-कर्म-उपासना द्वारा ईश्वर को उपलब्ध करते हैं ॥३॥

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    विषय

    इन्द्र से महेन्द्र तक

    पदार्थ

    [१] (सुता:) = उत्पन्न हुए हुए सोम (इन्द्राय) = इन्द्रियों के अधिष्ठाता, बल के कर्मों को करनेवाले इन्द्र के लिये होते हैं, ये हमें इन्द्र बनाते हैं । [२] (वायवे) = [ वा गतिगन्धनयो: ] ये हमें गति के द्वारा सब बुराइयों का गन्धन [= हिंसन] करनेवाले बनाते हैं । [३] (वरुणाय) = ये हमारे से द्वेष आदि का निवारण करते हैं [निवारयति] सोम का रक्षण होने पर हमारे मनों में 'ईर्ष्या-द्वेष-क्रोध' नहीं उत्पन्न होते । [४] (मरुद्भ्यः) = [ मरुतः प्राणाः] ये हमारे जीवनों में प्राणशक्ति का वर्धन करते हैं । वस्तुतः सोम ही प्राण है। सोमरक्षण से ही प्राणशक्ति बनी रहती है। [५] ये (सोमाः) = सोमकण (विष्णवे) = उस सर्वव्यापक प्रभु के लिये (अर्षन्ति) = गतिवाले होते हैं, इनके रक्षण से अन्ततः हमें प्रभु की प्राप्ति होती है। ये हमें 'विष् व्याप्तौ' व्यापक हृदयवाला बनाते हैं यह व्यापकता ही [उदारता ही] धर्म है 'उदारं धर्ममित्याहुः '। धर्मात्मा होते हुए हम प्रभु को प्राप्त होते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- सोमकण सुरक्षित होने पर हमें 'सबल इन्द्रियोंवाला, गतिशील, निर्दोष, प्राणशक्ति- सम्पन्न व प्रभु को प्राप्त करनेवाला' बनाते हैं ।

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    विषय

    राष्ट्र के कार्य के लिये योग्य विद्वानों का तैयार होना।

    भावार्थ

    (सुताः) अभिषिक्त, दीक्षित जन (इन्द्राय) ऐश्वर्ययुक्त पद और आचार्य से ज्ञानोपार्जन के अर्थ और (वायवे) बलशाली पुरुष के योग्य एवं (वरुणाय) सब से वरण करने योग्य पद के लिये तथा (मरुद्भ्यः) शत्रुओं को मारने वाले वीर सैन्य बनने के लिये और (विष्णवे) व्यापक शासनकारी पद के लिये (सोमाः) उत्तम २ शासक, ज्ञानी, बलशाली व्यक्ति (अर्षन्ति) प्राप्त होते हैं। इन सब में विद्यादि गुणों में निष्णात व्यक्ति पदाभिषिक्त होने चाहियें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    त्रित ऋषिः॥ पवमानः सोमो देवता ॥ छन्द:- १ ककुम्मती गायत्री। २, ४, ५ गायत्री। ३, ६ निचृद् गायत्री॥ षडृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Knowledge, wisdom and expertise, valuable and blissful as soma, collected and refined by sages and scholars of vision and experience, flows on for Indra, the ruling soul, Vayu, the vibrant people, Varuna, powers of judgement and dispensation, Maruts, stormy warriors, and Vishnu, universal sustaining powers of life and humanity.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    ज्या लोकांनी माता, पिता व आचार्य यांच्याकडून सिद्धी प्राप्त केलेली आहे ते ज्ञान, कर्म, उपासनेद्वारे ईश्वराला प्राप्त करून घेतात. ॥३॥

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