ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 34/ मन्त्र 5
अ॒भीमृ॒तस्य॑ वि॒ष्टपं॑ दुह॒ते पृश्नि॑मातरः । चारु॑ प्रि॒यत॑मं ह॒विः ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒भि । ई॒म् । ऋ॒तस्य॑ । वि॒ष्टप॑म् । दु॒ह॒ते । पृश्नि॑ऽमातरः । चारु॑ । प्रि॒यऽत॑मम् । ह॒विः ॥
स्वर रहित मन्त्र
अभीमृतस्य विष्टपं दुहते पृश्निमातरः । चारु प्रियतमं हविः ॥
स्वर रहित पद पाठअभि । ईम् । ऋतस्य । विष्टपम् । दुहते । पृश्निऽमातरः । चारु । प्रियऽतमम् । हविः ॥ ९.३४.५
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 34; मन्त्र » 5
अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 24; मन्त्र » 5
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अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 24; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(पृश्निमातरः) कर्मयोगिनो विद्वांसः (ऋतस्य विष्टपम् ईम्) सत्यास्पदं परमात्मानं (चारु) सुन्दरम् (प्रियतमम्) अतिप्रियं (हविः) शुभकर्म (अभिदुहते) अभ्यर्थयन्ते ॥५॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(पृश्निमातरः) कर्मयोगी विद्वान् (ऋतस्य विष्टपम् ईम्) सत्य के स्थान परमात्मा से (चारु) सुन्दर (प्रियतमम्) अतिप्रिय (हविः) शुभ कर्म की (अभिदुहते) भली प्रकार प्रार्थना करते हैं ॥५॥
भावार्थ
कर्म्मयोगी पुरुष अपने कर्म्मों से उसका साक्षात्कार अर्थात् उपासनाकर्म्म द्वारा उसकी सत्ता का लाभ करते हैं ॥५॥
विषय
प्रियतम हवि
पदार्थ
[१] (पृश्निमातरः) = ['संस्प्रष्टा भासां' नि०] ज्ञान- ज्योतियों का स्पर्श करनेवाले [पृश्नि] निर्माण के कार्यों में लगनेवाले [मातरः ] लोग ईम् = निश्चय से इस सोम को अभिदुहते शरीर में शक्ति के लिये तथा मस्तिष्क में ज्ञानाग्नि की दीप्ति के लिये अपने अन्दर प्रपूरित करते हैं । [२] उस सोम को अपने अन्दर प्रपूरित करते हैं, जो कि (ऋतस्य विष्टपम्) = ऋत का लोक है, ऋत अर्थात् यज्ञ का आधार है । सोम के रक्षित होने पर वृत्ति यज्ञिय बनती है । (चारु) = यह सोम सुन्दर है, चरणीय है, भक्षणीय है, शरीर के ही अन्दर व्यापन के योग्य है । यह (प्रियतमं हविः) = प्रियतम हवि है, शरीर में सुरक्षित होने पर अधिक से अधिक प्रीणित करनेवाला है । यह जीवनयज्ञ की सर्वोत्तम हवि है । इसे शरीर में सुरक्षित रखना ही चाहिये ।
भावार्थ
भावार्थ - ज्ञानी व निर्माण के कार्य में लगे हुए व्यक्ति इस सोम का रक्षण करते हैं। सुरक्षित हुआ हुआ यह सोम जीवन को ऋतमय बनाता है।
विषय
मेघों के तुल्य अभिषेक्ता जनों के कर्त्तव्य।
भावार्थ
और (पृश्नि- मातरः) वर्षा को करने वाले मेघ जिस प्रकार (ऋतस्य वि-तपं) तेज के विशेष सन्तापयुक्त सूर्य से भी (चारु प्रियतमं हविः दुहते) मानो उत्तम पुष्टिप्रद अन्न प्राप्त करते हैं उसी प्रकार (पृश्नि-मातरः) विद्वान् राजनिर्माता जन (ऋतस्य वि-तपं जनं) सत्य ज्ञान के लिये विशेष तपस्यावान् इस से (चारु प्रियतमं हविः) उत्तम ज्ञान प्राप्त करें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
त्रित ऋषिः॥ पवमानः सोमो देवता ॥ छन्दः- १, २, ४ निचृद गायत्री। ३, ५, ६ गायत्री॥
इंग्लिश (1)
Meaning
The infinite forms of versatile nature imbibe and assimilate the spirit of divinity on top of the truth and felicity of existence, and that is the dearest and most beautiful divine gift worthy of choice and acceptance.
मराठी (1)
भावार्थ
कर्मयोगी पुरुष आपल्या कर्माने अर्थात उपासनाकर्माने त्याची सत्ता प्राप्त करतात. ॥५॥
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