ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 34/ मन्त्र 6
समे॑न॒मह्रु॑ता इ॒मा गिरो॑ अर्षन्ति स॒स्रुत॑: । धे॒नूर्वा॒श्रो अ॑वीवशत् ॥
स्वर सहित पद पाठसम् । ए॒न॒म् । अहु॑ताः । इ॒माः । गिरः॑ । अ॒र्ष॒न्ति॒ । स॒ऽस्रुतः॑ । धे॒नूः । वा॒श्रः । अ॒वी॒व॒श॒न् ॥
स्वर रहित मन्त्र
समेनमह्रुता इमा गिरो अर्षन्ति सस्रुत: । धेनूर्वाश्रो अवीवशत् ॥
स्वर रहित पद पाठसम् । एनम् । अहुताः । इमाः । गिरः । अर्षन्ति । सऽस्रुतः । धेनूः । वाश्रः । अवीवशन् ॥ ९.३४.६
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 34; मन्त्र » 6
अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 24; मन्त्र » 6
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अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 24; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(सस्रुतः) व्योम्नि विस्तृताः (अह्रुताः) निष्कपटं कृताः (इमाः गिरः) एताः कर्मयोगिनां स्तुतयः (एनम् समर्षन्ति) इमं परमात्मानं प्राप्नुवन्ति (वाश्रः) स च परमात्मा तेभ्यः कर्मयोगिभ्यः (धेनूः अवीवशत्) अभीष्टमनोरथं दातुं सदोद्यतस्तिष्ठति ॥६॥ इति चतुस्त्रिंशत्तमं सूक्तं चतुर्विंशो वर्गश्च समाप्तः ॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(सस्रुतः) आकाश में फैलती हुई (अह्रुताः) निष्कपटभाव से की हुई (इमाः गिरः) कर्मयोगियों द्वारा की हुई स्तुतियें (एनम् समर्षन्ति) इस परमात्मा को प्राप्त होती हैं (वाश्रः) और वह वेदोत्पादक परमात्मा (धेनूः अवीवशत्) उन कर्मयोगियों के लिये अभीष्ट कामनाओं के देने को उद्यत रहता है ॥६॥
भावार्थ
शुभ सङ्कल्पों के मन में उत्पन्न हो जाने से परमात्मा उनका फल अवश्यमेव देता है। तात्पर्य यह है कि उपासना-प्रार्थना भी एक प्रकार के कर्म्म हैं, उनका फल उनको अवश्य मिलता है। इसलिये प्रार्थना केवल माँगना ही नहीं, किन्तु एक प्रकार का कर्म्म है। वह निष्फल कदापि नहीं जा सकता ॥६॥ यह ३४ वाँ सूक्त और २४ वाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
विषय
अहुताः गिरः
पदार्थ
[१] (एनम्) = इस सोम को (इमाः) = ये (सस्स्रुतः) = समानरूप से मिलकर प्रवाहित होनेवाली (अह्रुताः) = अकुटिल, हमें कुटिलता से दूर ले जानेवाली (गिरः) = ज्ञान की वाणियाँ (सं अर्षन्ति) = सम्यक् प्राप्त होती हैं। शरीर में सोम के सुरक्षित होने पर हमें 'ऋग्यजु-साम' रूप ज्ञान की वाणियाँ समानरूप से प्राप्त होती हैं, मस्तिष्क में विज्ञान [ऋग्], हाथों में कर्म [यजुः ] तथा मन में उपासना [साम] वाले हम बनते हैं । [२] (वाश्रः) = प्रभु के नामों का उच्चारण करनेवाली यह शक्ति (धेनूः) = ज्ञानदुग्ध को देनेवाली इन वेदवाणीरूप गौओं को (अवीवशत्) = खूब ही चाहता है । इनमें प्रीतिवाला होने से सोम रक्षित होता है। सोमरक्षण से ज्ञानाग्नि दीप्त होती है।
भावार्थ
भावार्थ- सोमरक्षण के लिये ज्ञान की वाणियों की प्राप्ति में लगे रहना आवश्यक है। इस सोम के रक्षण से हम 'प्रभूवसु' बनते हैं- 'प्रभावयुक्त वसुओंवाले'। प्रकृष्ट सामर्थ्यो से युक्त वसुओंवाला यह सोम के विषय में कहता है-
विषय
जिज्ञासु के कर्त्तव्य।
भावार्थ
(एनम्) उस जिज्ञासु को (इमाः गिरः) ये वेद वाणियां (सस्रुतः) समान वेग से प्रवाहित होकर (अह्रुताः) अकुटिल, सरल रूप से (सम्-अर्षन्ति) प्राप्त होती हैं। वह (वाश्रः) उत्तम स्वरवान् होकर उन (धेनूः अवीवशत्) वाणियों को अपने वश करे, उनका अच्छी प्रकार अभ्यास करे। इति चतुर्विंशो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
त्रित ऋषिः॥ पवमानः सोमो देवता ॥ छन्दः- १, २, ४ निचृद गायत्री। ३, ५, ६ गायत्री॥
इंग्लिश (1)
Meaning
These simple and innocent songs of praise and appreciation rising higher and higher reach Soma, lord of peace and bliss, and may he, kind and loving as a parent, accept and cherish it as a gift of love and faith.
मराठी (1)
भावार्थ
शुभ संकल्प मनात उत्पन्न झाल्यास परमेश्वर त्यांचे फळ अवश्य देतो.
टिप्पणी
तात्पर्य हे की उपासना, प्रार्थना ही एक प्रकारचे कर्म आहे. त्याचे फळ त्यांना अवश्य मिळते त्यासाठी प्रार्थना ही केवळ मागणे ही नाही तर एक प्रकारचे कर्म आहे ते कधीही निष्फळ होऊ शकत नाही. ॥६॥
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