ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 42/ मन्त्र 4
दु॒हा॒नः प्र॒त्नमित्पय॑: प॒वित्रे॒ परि॑ षिच्यते । क्रन्द॑न्दे॒वाँ अ॑जीजनत् ॥
स्वर सहित पद पाठदु॒हा॒नः । प्र॒त्नम् । इत् । पयः॑ । प॒वित्रे॑ । परि॑ । सि॒च्य॒ते॒ । क्रन्द॑न् । दे॒वान् । अ॒जी॒ज॒न॒त् ॥
स्वर रहित मन्त्र
दुहानः प्रत्नमित्पय: पवित्रे परि षिच्यते । क्रन्दन्देवाँ अजीजनत् ॥
स्वर रहित पद पाठदुहानः । प्रत्नम् । इत् । पयः । पवित्रे । परि । सिच्यते । क्रन्दन् । देवान् । अजीजनत् ॥ ९.४२.४
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 42; मन्त्र » 4
अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 32; मन्त्र » 4
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अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 32; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(प्रत्नम् इत्) प्राक्तनीषु वेदवाक्षु (पयः दुहानः) ब्रह्मानन्दं जनयन् स परमात्मा (पवित्रे परिषिच्यते) उपासकानां पवित्रहृदयेषु ध्यानगोचरो भवति (क्रन्दन्) शब्दायमानः सः (देवान् अजीजनत्) अत्यर्थं दीप्यमानान् चन्द्रादीन् समुत्पादयामास ॥४॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(प्रत्नम् इत्) प्राचीन वेदवाणियों में (पयः दुहानः) ब्रह्मानन्द को उत्पन्न करता हुआ वह परमात्मा (पवित्रे परिषिच्यते) उपासकों के पवित्र हृदय में ध्यान का विषय होता है (क्रन्दन्) और उसी शब्दायमान परमात्मा ने (देवान् अजीजनत्) देदीप्यमान चन्द्रादिकों को उत्पन्न किया ॥४॥
भावार्थ
परमात्मा ने वेदवाणीरूपी कामधेनु को ब्रह्मानन्द से परिपूर्ण कर दिया है। जो लोग इस अमृतरस को पान करना चाहते हों, वे उक्त अमृतप्रदायिनी ब्रह्मविद्यारूपी वेदवाग्धेनु को वत्सवत् उसके प्रेमपात्र बनकर इस दुग्धामृत को पान करें ॥४॥
विषय
प्रभु स्मरण व दिव्य गुण
पदार्थ
[१] शरीर में सुरक्षित हुआ हुआ सोम (इत्) = निश्चय से (प्रत्नं पयः) = सनातन वेदज्ञान को (दुहान:) = हमारे में प्रपूरित करता हुआ (पवित्रे) = हृदय के पवित्र होने पर (परिषिच्यते) = शरीर में चारों ओर सिक्त होता है । सोमरक्षण के लिये हृदय की पवित्रता आवश्यक है। रक्षित सोम वेदज्ञान को हमें प्राप्त कराता है । [२] (क्रन्दन्) = प्रभु का आह्वान करता हुआ यह सोम (देवान्) = दिव्य गुणों को (अजीजनत्) = हमारे में प्रादुर्भूत करता है । सोमरक्षण से प्रभु स्मरण की वृत्ति उत्पन्न होती है, और इस प्रभु स्मरण की वृत्ति के अनुपात में दिव्य गुणों का विकास होता है ।
भावार्थ
भावार्थ- सुरक्षित सोम [क] हमारे में ज्ञानदुग्ध का पूरण करता है, [ख] यह हमें प्रभु- स्मरण की वृत्तिवाला बनाता है, [ग] और हमारे में दिव्य गुणों का विकास करता है ।
विषय
पवित्रपद में स्थित का कर्त्तव्य।
भावार्थ
(प्रत्नम् पयः) सर्वश्रेष्ठ, पूर्व का बल वीर्य (दुहानः) पूर्ण करता हुआ (पवित्रे परि षिच्यते) राष्ट्र शोधन के कार्य में अभिषिक्त होता है। उसी प्रकार यह साधक भी ‘प्रत्न’ सनातन परम रस को पवित्र परब्रह्म में प्राप्त करता हुआ, वा अन्यों को प्रदान करता हुआ परिष्कृत होता है। वह (क्रन्दन्) स्तुति वा उपदेश करता हुआ (देवान् अजीजनत्) शुभ गुणों वा शिष्यों को उत्पन्न करता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
मेध्यातिथिर्ऋषिः। पवमानः सोमो देवता॥ छन्दः- १, २ निचृद् गायत्री। ३, ४, ६ गायत्री। ५ ककुम्मती गायत्री॥ षडृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Creating the eternal life-giving food of divine ecstasy for the soul, the presence of blissful Soma vibrates in the heart of the celebrant and, calling out as if loud and bold, awakens the dormant divine potentialities of the devotee to active possibilities.
मराठी (1)
भावार्थ
परमेश्वराने वेदवाणीरूपी कामधेनूला ब्रह्मानंदाने परिपूर्ण केलेले आहे. जे लोक या अमृतरसाचे पान करू इच्छितात ते वरील अमृत प्रदायिनी ब्रह्मविद्यारूपी वेद-वाग्धेनूला वत्साप्रमाणे प्रेमपात्र बनून या दुग्धामृताचे पान करू शकतात. ॥४॥
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