ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 50/ मन्त्र 2
प्र॒स॒वे त॒ उदी॑रते ति॒स्रो वाचो॑ मख॒स्युव॑: । यदव्य॒ एषि॒ सान॑वि ॥
स्वर सहित पद पाठप्र॒ऽस॒वे । ते॒ । उत् । ई॒र॒ते॒ । ति॒स्रः । वाचः॑ । म॒ख॒स्युवः॑ । यत् । अव्ये॑ । एषि॑ । सान॑वि ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्रसवे त उदीरते तिस्रो वाचो मखस्युव: । यदव्य एषि सानवि ॥
स्वर रहित पद पाठप्रऽसवे । ते । उत् । ईरते । तिस्रः । वाचः । मखस्युवः । यत् । अव्ये । एषि । सानवि ॥ ९.५०.२
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 50; मन्त्र » 2
अष्टक » 7; अध्याय » 1; वर्ग » 7; मन्त्र » 2
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अष्टक » 7; अध्याय » 1; वर्ग » 7; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(यत्) यदा भवान् (मखस्युवः अव्ये सानवि एषि) यज्ञकारिणां गोपनीयोच्चयज्ञस्थलेषु प्राप्तो भवति तदा ते ऋत्विजः (ते प्रसवे) भवदाविर्भावेन (तिस्रः वाचः उदीरते) ज्ञानकर्मोपासनाविषयिणीनां तिसृणां वाचामुच्चारणं कुर्वन्ति ॥२॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(यत्) जब आप (मखस्युवः अव्ये सानवि एषि) यज्ञकर्ताओं को रक्षणीय उच्च यज्ञस्थलों में प्राप्त होते हैं, तो वह ऋत्विग् लोग (ते प्रसवे) आपके प्रादुर्भूत होने से (तिस्रः वाचः उदीरते) ज्ञान कर्म और उपासना विषयक तीनों वाणियों का उच्चारण करते हैं ॥२॥
भावार्थ
परमात्मा का आविर्भाव और तिरोभाव वास्तव में नहीं होता; क्योंकि वह कूटस्थ नित्य अर्थात् एकरस सदा आविनाशी है। उसका आविर्भाव तिरोभाव उसके कीर्तनप्रयुक्त कहा जा सकता है। अर्थात् जहाँ उसका कीर्तन होता है, उसका नाम आविर्भाव है और जहाँ उसका अकीर्तन है वहाँ तिरोभाव है। उक्त आविर्भाव तिरोभाव मनुष्य के ज्ञान के अभिप्राय से है। अर्थात् ज्ञानियों के हृदय में उसका आविर्भाव है और अज्ञानियों के हृदय में तिरोभाव है ॥२॥
विषय
तीनों ज्ञानवाणियों का उदीरण
पदार्थ
[१] हे सोम ! (ते प्रसवे) = शरीर में तेरे उत्पन्न होने पर (मखस्युवः) = यज्ञों को हमारे साथ जोड़नेवाली (तिस्रः वाचः) = ऋग्-यजु-साम रूप तीनों वाणियाँ (उदीरते) = उद्गत होती हैं । अर्थात् सोमरक्षण से हमें वह वेदज्ञान प्राप्त होता है, जो कि हमारे साथ यज्ञों को संगत करता है। [२] यह सब तब होता है (यद्) = जब कि (अव्ये) = जिसका बहुत अच्छी प्रकार रक्षण किया गया है उस (सानवि) = शिखर प्रदेश में, अर्थात् मस्तिष्क में तू (एषि) = प्राप्त होता है। शरीर में सुरक्षित हुआ- हुआ सोम ऊर्ध्वगतिवाला होकर जब मस्तिष्क में प्राप्त होता है, उस समय यह सोम ज्ञानाग्नि का ईंधन बनता है। ज्ञानाग्नि दीप्त होती है और हम ऋग्यजु-साम रूप में उच्चरित प्रभु की वाणियों को समझनेवाले होते हैं। इन वाणियों के द्वारा हमें यज्ञों का ज्ञान प्राप्त होता है ।
भावार्थ
भावार्थ- सोमरक्षण से सोम की ऊर्ध्वगति होकर जब यह सोम मस्तिष्क में प्राप्त होता है। तो हमें सब ज्ञान की वाणियाँ स्पष्ट होने लगती हैं।
विषय
परमेश्वर से तीनों प्रकार की वाणियों का प्रादुर्भाव। पक्षान्तर में राजा के अभिषेक में वेदत्रयी का उपयोग।
भावार्थ
हे प्रभो ! (यत्) जो तू (अव्ये) परम अव्यय, अविनाशी (सानवि) स्वरूप में वा प्रकृतिमय जगत् में (एषि) प्राप्त होता है तब (प्रसवे) इस जगत् के उत्पन्न हो जाने पर (मखस्युवः तिस्रः वाचः) यज्ञ प्रतिपादक तीनों वाणियां साम, ऋक्, यजु रूप (उत् ईरते) प्रकट होती हैं। (२) इसी प्रकार ‘अव्य सानु’ अर्थात् पृथ्वी के रक्षा के उच्च पद पर राजा आवे तो (प्रसवे) उसके उत्तमाभिषेक काल में यज्ञार्थ तीनों वेद वाणियों का उच्चारण हो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
उचथ्य ऋषिः। पवमानः सोमो देवता॥ छन्द:- १, २, ४, ५ गायत्री। ३ निचृद् गायत्री॥ पञ्चर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (1)
Meaning
When you rise and reach the pinnacle of yajna which deserves to be protected and promoted, then as you rise in intensity, the priests’ chant of the three voices of Rks, Samans and Yajus also swells to the climax.
मराठी (1)
भावार्थ
परमेश्वराचा आविर्भाव व तिरोभाव वास्तविक नसतो कारण तो कूटस्थ नित्य अर्थात् एकरस सदैव अविनाशी आहे. त्याचा आविर्भाव तिरोभाव त्याचे कीर्तन प्रयुक्त म्हणविले जाऊ शकते. अर्थात् जेथे त्याचे कीर्तन होते त्याचे नाव आविर्भाव आहे व जेथे त्याचे अकीर्तन आहे तेथे तिरोभाव आहे. वरील आविर्भाव तिरोभाव माणसाच्या ज्ञानाच्या अभिप्रायाने आहेत. अर्थात् ज्ञानी लोकांच्या हृदयात त्याचा आविर्भाव होतो व अज्ञानीच्या हृदयात तिरोभाव होतो. ॥२॥
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