ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 50/ मन्त्र 3
अव्यो॒ वारे॒ परि॑ प्रि॒यं हरिं॑ हिन्व॒न्त्यद्रि॑भिः । पव॑मानं मधु॒श्चुत॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठअव्यः॑ । वारे॑ । परि॑ । प्रि॒यम् । हरि॑म् । हि॒न्व॒न्ति॒ । अद्रि॑ऽभिः । पव॑मानम् । म॒धु॒ऽश्चुत॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
अव्यो वारे परि प्रियं हरिं हिन्वन्त्यद्रिभिः । पवमानं मधुश्चुतम् ॥
स्वर रहित पद पाठअव्यः । वारे । परि । प्रियम् । हरिम् । हिन्वन्ति । अद्रिऽभिः । पवमानम् । मधुऽश्चुतम् ॥ ९.५०.३
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 50; मन्त्र » 3
अष्टक » 7; अध्याय » 1; वर्ग » 7; मन्त्र » 3
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अष्टक » 7; अध्याय » 1; वर्ग » 7; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
हे जगदीश्वर ! भावान् (मधुश्चुतम्) परमानन्दस्य कारकोऽस्ति। तथा (पवमानम्) सर्वपवित्रकर्ताऽस्ति। अथ च (हरिम्) सर्वदुःखहर्ताऽस्ति। अतः (परि प्रियम्) परमप्रियं भवन्तं (अव्यः) भवतो रक्षोत्सुका उपासका (वारे) भवद्भक्तियुक्ताः स्वहृदयेषु (अद्रिभिः) इन्द्रियवृत्त्या (हिन्वन्ति) प्रेरयन्ति ॥३॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
हे परमात्मन् ! आप (मधुश्चुतम्) परम आनन्द के क्षरण करनेवाले हैं और (पवमानम्) सबके पवित्रकारक हैं और (हरिम्) सबके दुःखों के हरनेवाले हैं, इससे (परि प्रियम्) परमप्रिय आपकी (अव्यः) आपसे रक्षा को चाहनेवाले आपके उपासक (वारे) आपकी भक्ति से युक्त अपने हृदयों में (अद्रिभिः) इन्द्रियवृत्तियों द्वारा (हिन्वन्ति) प्रेरणा करते हैं ॥३॥
भावार्थ
कर्मयोगी या ज्ञानयोगी विद्वान् दोनों अपने शुद्धान्तःकरण से परमात्मा का साक्षात्कार करते हैं ॥३॥
विषय
'प्रिय - हरि - पवमान - मधुश्चत्
पदार्थ
[१] (अव्यः) = [अवति इति अवि:] रक्षक के (वारे) = जिसमें से बुराइयों का निवारण किया गया है ऐसे हृदय में (प्रियम्) = प्रीणित करनेवाले (हरिम्) = दुःखों का हरण करनेवाले सोम को (अद्रिभि:) = [ adore ] उपासनाओं के द्वारा (परि हिन्वन्ति) = शरीर में चारों ओर प्रेरित करते हैं। जो व्यक्ति वासनाओं के आक्रमण से अपने को बचाता है वह 'अवि' है। इसके (वारे) = वार में, अशुभ वासनाओं के निवारणवाले हृदय में उपासनाओं के द्वारा सोम को शरीर में व्याप्त किया जाता है। यह सोम हरि है, सब दुःखों का हरण करनेवाला है। यह प्रिय है, शक्ति के संचार के द्वारा हमें प्रीणित करनेवाला है। [२] (पवमानम्) = यह सोम हमारे जीवनों को पवित्र करनेवाला है तथा (मधुश्चतम्) = माधुर्य को हमारे में क्षरित करनेवाला है । सोमरक्षण से हमारा जीवन मधुर बनता है ।
भावार्थ
भावार्थ- सोम 'प्रिय हरि - पवमान- मधुश्श्रुत्' है। प्रभु की उपासना के द्वारा इसका रक्षण होता है ।
विषय
अभिषेक, योग्य पुरुष के गुण।
भावार्थ
(अव्यः वारे) पालक शक्ति के वरण करने योग्य सर्वोच्च पद पर विद्वान् जन (प्रियं हरिं) सर्वप्रिय, प्रजा के दुःखहारी (मधुश्चुतम्) मधुर वचन के पालने वाले, (पवमानं) राज्य को पावन करने वाले पुरुष को (अद्रिभिः हिन्वन्ति) मेघवत् कलशों से सेंचते, स्नान कराते हैं।
टिप्पणी
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
उचथ्य ऋषिः। पवमानः सोमो देवता॥ छन्द:- १, २, ४, ५ गायत्री। ३ निचृद् गायत्री॥ पञ्चर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (1)
Meaning
The devotees, who are seekers of your protection for advancement in their heart of hearts, intensify their awareness through relentless concentration and meditate on your presence dearer than dearest, eliminator of negative fluctuations of mind, pure and purifying spirit of divinity replete with honey sweets of ecstasy.
मराठी (1)
भावार्थ
कर्मयोगी किंवा ज्ञानयोगी विद्वान आपल्या शुद्ध अंत:करणाने परमेश्वराचा साक्षात्कार करतात. ॥३॥
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