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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 72 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 72/ मन्त्र 5
    ऋषिः - हरिमन्तः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - विराड्जगती स्वरः - निषादः

    नृबा॒हुभ्यां॑ चोदि॒तो धार॑या सु॒तो॑ऽनुष्व॒धं प॑वते॒ सोम॑ इन्द्र ते । आप्रा॒: क्रतू॒न्त्सम॑जैरध्व॒रे म॒तीर्वेर्न द्रु॒षच्च॒म्वो॒३॒॑रास॑द॒द्धरि॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    नृबा॒हुऽभ्या॑म् । चो॒दि॒तः । धार॑या । सु॒तः । अ॒नु॒ऽस्व॒धम् । प॒व॒ते॒ । सोमः॑ । इ॒न्द्र॒ । ते॒ । आ । अ॒प्राः॒ । क्रतू॑न् । सम् । अ॒जैः॒ । अ॒ध्व॒रे । म॒तीः । वेः । न । द्रु॒ऽसत् । च॒म्वोः॑ । आ । अ॒स॒द॒त् । हरिः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नृबाहुभ्यां चोदितो धारया सुतोऽनुष्वधं पवते सोम इन्द्र ते । आप्रा: क्रतून्त्समजैरध्वरे मतीर्वेर्न द्रुषच्चम्वो३रासदद्धरि: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    नृबाहुऽभ्याम् । चोदितः । धारया । सुतः । अनुऽस्वधम् । पवते । सोमः । इन्द्र । ते । आ । अप्राः । क्रतून् । सम् । अजैः । अध्वरे । मतीः । वेः । न । द्रुऽसत् । चम्वोः । आ । असदत् । हरिः ॥ ९.७२.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 72; मन्त्र » 5
    अष्टक » 7; अध्याय » 2; वर्ग » 27; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (इन्द्र) हे कर्मयोगिन् ! (ते) त्वां (अनुष्वधम्) बलार्थं (सोमः) शान्तरूपः परमात्मा (पवते) पवित्रयतु। उक्तः परमेश्वरः (नृबाहुभ्याम्) मनुष्याणां ज्ञानेन कर्मणा च (चोदितः) प्रेरितः अथ च (धारया) धारणरूपबुद्ध्या (सुतः) साक्षात्कृतः सन् पवित्रयतु। उक्तपरमात्मना पवित्रितस्त्वं (क्रतून् आप्राः) कर्माणि प्राप्नुहि। (अध्वरे) धर्मयुद्धे (मतीः) अभिमानिनश्शत्रून् (समजैः) सम्यग्जय (वेः न) यथा विद्युत् (द्रुषत्) प्रतिगतिशीलपदार्थेषु स्थिराऽस्ति तथा (हरिः) पापहर्ता परमात्मा (चम्वोः) द्यावापृथिव्योः (आसदत्) स्थिरोऽस्ति ॥५॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (इन्द्र) हे कर्मयोगिन् ! (ते) तुमको (अनुष्वधम्) बल के लिये (सोमः) शान्तरूप परमात्मा (पवते) पवित्र करे। उक्त परमात्मा (नृबाहुभ्याम्) मनुष्यों के ज्ञान और कर्म द्वारा (चोदितः) प्रेरणा किया हुआ तथा (धारया) धारणारूप बुद्धि से (सुतः) साक्षात्कार किया हुआ पवित्र करे। उक्त परमात्मा के पवित्र किये हुए तुम (क्रतून् अप्राः) कर्मों को प्राप्त हो। (अध्वरे) धर्मयुद्ध में (मतीः) अभिमानी शत्रुओं को तुम (समजैः) भली-भाँति जीतो। (वेः न) जिस प्रकार विद्युत् (द्रुषत्) प्रत्येक गतिशील पदार्थों में स्थिर है, इसी प्रकार (हरिः) परमात्मा (चम्वोः) द्युलोक तथा पृथिवीलोकों में (आसदत्) स्थिर है ॥५॥

    भावार्थ

    कर्मयोगी उद्योगी पुरुष धर्मयुद्ध में अन्यायकारी शत्रुओं पर विजय पाते हैं और विद्युत् के समान सर्वव्यापक परमात्मा पर भरोसा रखकर इस संसार में अपनी गति करते हैं ॥५॥

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    विषय

    सेनापति सोम। उसका प्रोत्साहन।

    भावार्थ

    हे सेनापति सोम ! हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! (ते) तेरा (सोमः) बल-वीर्य (नृ-बाहुभ्याम्) नायक वीर पुरुषों की बाहुओं से (चोदितः) प्रेरित और (अनु-स्वधम्) अपने २ कर्मसामर्थ्य, भरण-पोषण वा वेतन अनुसार (धारया) राजाज्ञा, वा वेदवाणी द्वारा (सुतः) शिष्यवद् अनुशासित, शिक्षित होकर (ते पवते) तेरे लिये कार्य करता है। तू (क्रतून् आ अपाः) नाना कर्मों को पूर्ण कर। और (अध्वरे) हिंसारहित, युद्ध अर्थात् साम, दान, भेद द्वारा शत्रु-हनन कार्य और अध्वर अर्थात् प्रजापालन के कार्य में (मतीः) समस्त बुद्धियों को (सम् अजैः) सम्यक् प्रकार से विजय कर। (द्रुसत् वेः न) वृक्ष पर बैठे पक्षी के समान तू भी (हरिः) सर्वप्रिय, वा सूर्यवत् होकर (चम्वोः आसदत्) दोनों सेनाओं के ऊपर अध्यक्ष होकर रह। इति सप्तत्रिंशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    हरिमन्त ऋषिः॥ पवमानः सोमो देवता॥ छन्द:-१—३, ६, ७ निचृज्जगती। ४, ८ जगती। ५ विराड् जगती। ९ पादनिचृज्जगती॥ नवर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    नृबाहुभ्यां चोदितः

    पदार्थ

    [१] (नृबाहुभ्यां चोदितः) = प्रगतिशील मनुष्य की बाहुओं से यह प्रेरित होता है, अर्थात् सदा क्रिया में तत्पर रहने से यह शरीर में ही व्याप्त होता है । (धारया) = धारण के हेतु से (सुतः) = यह उत्पन्न किया गया है, इसके धारण से ही शरीर का धारण होता है 'मरणं बिन्दुपातेन जीवनं बिन्दुधारणात्' । हे (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष ! यह (सोमः) = सोम [वीर्यशक्ति] (सुतः) = उत्पन्न हुआ (ते पवते) = पवित्रता से तुझे प्राप्त होता है । [२] इस सोम को प्राप्त करके तू (क्रतून्) = प्रज्ञानों व शक्तियों को (आप्राः) = अपने में भरता है । (अध्वरे) = इस जीवन-यज्ञ में (मती:) = उत्कृष्ट बुद्धियों को समजैः सम्यक् जीतता है । उत्कृष्ट बुद्धियोंवाला तू बनता है। (द्रुषत् वेः न) = वृक्ष पर बैठनेवाले पक्षी की तरह (हरिः) = यह सब रोगों का हरण करनेवाला सोम (चम्वोः) = द्यावापृथिवी में, मस्तिष्क व शरीर में (आसदत्) = आसीन होता है। मस्तिष्क को यह सोम ज्ञानदीप्त बनाता है, तो इस पृथिवीरूप शरीर को यह दृढ़ बनानेवाला होता है।

    भावार्थ

    भावार्थ - क्रियाशीलता सोमरक्षण का साधन है। जितना जितना हम आत्मस्वरूप का चिन्तन करेंगे, उतना ही सोम हमारे में स्थिर रहेगा । सोम की स्थिरता हमारे 'प्रज्ञान व शक्ति' को भरती हुई हमारी बुद्धि का वर्धन करेगी।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra, O soul, the soma joy of divinity flows free for you, impelled by human arms of karma, showered in streams with resonant hymns. Move on to holy actions in yajna, and Soma, lord of peace and power, pervading in heaven and earth and the middle regions like cosmic energy and the dynamics of cause and effect, would fulfill your desires, intentions and resolutions of mind.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    कर्मयोगी उद्योगी पुरुष धर्मयुद्धात अन्यायी शत्रूंवर विजय प्राप्त करतात व विद्युतप्रमाणे सर्वव्यापक परमात्म्यावर विश्वास ठेवून या जगात आपली गती करतात. ॥५॥

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