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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 72 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 72/ मन्त्र 7
    ऋषिः - हरिमन्तः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    नाभा॑ पृथि॒व्या ध॒रुणो॑ म॒हो दि॒वो॒३॒॑ऽपामू॒र्मौ सिन्धु॑ष्व॒न्तरु॑क्षि॒तः । इन्द्र॑स्य॒ वज्रो॑ वृष॒भो वि॒भूव॑सु॒: सोमो॑ हृ॒दे प॑वते॒ चारु॑ मत्स॒रः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    नाभा॑ । पृ॒थि॒व्याः । ध॒रुणः॑ । म॒हः । दि॒वः । अ॒पाम् । ऊ॒र्मौ । सिन्धु॑षु । अ॒न्तः । उ॒क्षि॒तः । इन्द्र॑स्य । वज्रः॑ । वृ॒ष॒भः । वि॒भुऽव॑सुः । सोमः॑ । हृ॒दे । प॒व॒ते॒ । चारु॑ । म॒त्स॒रः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नाभा पृथिव्या धरुणो महो दिवो३ऽपामूर्मौ सिन्धुष्वन्तरुक्षितः । इन्द्रस्य वज्रो वृषभो विभूवसु: सोमो हृदे पवते चारु मत्सरः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    नाभा । पृथिव्याः । धरुणः । महः । दिवः । अपाम् । ऊर्मौ । सिन्धुषु । अन्तः । उक्षितः । इन्द्रस्य । वज्रः । वृषभः । विभुऽवसुः । सोमः । हृदे । पवते । चारु । मत्सरः ॥ ९.७२.७

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 72; मन्त्र » 7
    अष्टक » 7; अध्याय » 2; वर्ग » 28; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (इन्द्रस्य वज्रः) रुद्ररूपः (वृषभः) कामानां वर्षकः (विभूवसुः) पूर्णैश्वर्ययुक्तः (चारु मत्सरः) सर्वोपरि प्रमोदरूपः पूर्वोक्तः (सोमः) जगदीशः (हृदे) मद्हृदयं (पवते) पवित्रयतु। (पृथिव्या नाभा) यः परमेश्वरः पृथिव्या नाभौ स्थिरः अथ च (महो दिवः) महतो द्युलोकस्य (धरुणः) धारकोऽस्ति। तथा (अपाम् ऊर्मौ) जलतरङ्गेषु (सिन्धुषु) समुद्रेषु च (अन्तः उक्षितः) अभिषिक्तोऽस्ति स परमात्मा मां पवित्रयतु ॥७॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (इन्द्रस्य वज्रः) रुद्ररूप परमात्मा (वृषभः) सब कामनाओं की वृष्टि करनेवाला तथा (विभूवसुः) परिपूर्ण एश्वर्यवाला और (चारु मत्सरः) जिसका सर्वोपरि आनन्द है, वह उक्त (सोमः) परमात्मा (हृदे) हमारे हृदय को (पवते) पवित्र करे। (पृथिव्या नाभा) जो परमात्मा पृथिवी की नाभि में स्थिर है और (महो दिवः) बड़े द्युलोक का (धरुणः) धारण करनेवाला है तथा (अपाम् ऊर्मौ) जल की लहरों में और (सिन्धुषु) समुद्रों में (अन्तः उक्षितः) अभिषिक्त किया गया है। उक्त गुणविशिष्ट परमात्मा हमको पवित्र करे ॥७॥

    भावार्थ

    जो लोग उक्त गुण से विशिष्ट परमात्मा का उपासन करते हैं और उसमें अटल विश्वास रखते हैं, परमात्मा उनको अवश्यमेव पवित्र करता है और जो हतविश्वास होकर ईश्वर के नियम का उल्लङ्घन करते हैं, परमात्मा उनके मद को चूर्ण करने के लिये वज्र के समान उद्यत रहता है ॥७॥

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    विषय

    सोम का स्वरूप, सर्वोपरिशासक बल का रूप। (

    भावार्थ

    सोम का स्वरूप। (पृथिव्याः नाभा) पृथिवी की नाभि वा केन्द्र में स्थित वह बल जो (धरुणः) उसको धारण कर रहा है, और (महः दिवः नाभा धरुणः) बड़े भारी आकाशमण्डल के केन्द्र में स्थित बल जो उसको धारण कर रहा है, और वह बल जो (अपाम् ऊर्मौ) प्राणों और जलों और लोकों के बीच तरंगवत् सर्वोन्नत मुख्य प्राणाधार और सूर्यादि लोक में विद्यमान उनको धारण करता है, और जो बल (सिन्धुषु अन्तः) समुद्रों और वेग से बहने वाले जलों में है वह (सोमः) सबका प्रेरक, सबका शासक बल (इन्द्रस्य वज्रः) ऐश्वर्ययुक्त उस महान् प्रभु का बल है जो (वृषभः) समस्त सुखों की वर्षा करने वाला, (विभु-वसुः) बड़े २ लोकों में व्यापक, (मत्सरः) सबको सुखी, प्रसन्न करने वाला, (हृदे) सबके हृदय में (चारु पवते) उत्तम रीति से प्राणवत् गति करता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    हरिमन्त ऋषिः॥ पवमानः सोमो देवता॥ छन्द:-१—३, ६, ७ निचृज्जगती। ४, ८ जगती। ५ विराड् जगती। ९ पादनिचृज्जगती॥ नवर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    महो दिवो धरुणः

    पदार्थ

    [१] यह सोम (पृथिव्याः नाभा) = इस शरीर रूप पृथिवी के केन्द्र में होता हुआ, अर्थात् शरीर की सारी शक्तियों का जन्म देनेवाला होता हुआ (महः दिवः धरुणः) = महान् द्युलोक का, मस्तिष्क का (धरुणः) = धारण करनेवाला है । सोम शरीर को सशक्त बनाता है, मस्तिष्क का धारण करता है । (अपां ऊर्मी) = कर्मों की तरंगों में तथा (सिन्धुषु अन्तः) = ज्ञान - समुद्रों में (उक्षितः) = यह सिक्त होता है। अर्थात् निरन्तर कर्मों में लगे रहना तथा ज्ञान-समुद्र में स्नान करना [ स्वाध्याय में तत्पर रहना] सोमरक्षण का साधन बनता है। [२] शरीर में सुरक्षित हुआ हुआ सोम (इन्द्रस्य) = इस जितेन्द्रिय पुरुष का (वज्रः) = वज्र होता है। इसी के रक्षण से यह सभी रोगादि शत्रुओं का संहार कर पाता है । (वृषभ:) = यह हमें शक्तिशाली बनानेवाला है । (विभूवसुः) = यह सोम ही इन्द्र का व्यापक धन है । यह (सोमः) = सोम (चारु) = बड़ी सुन्दरता से हृदे हृदय के लिये (मत्सरः) = आनन्द का संचार करता हुआ (पवते) = प्राप्त होता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- सोम शरीर का केन्द्र में स्थित हुआ हुआ मस्तिष्क का धारण करनेवाला है । क्रियाशीलता व ज्ञानपरता के द्वारा शरीर में सुरक्षित होता है । यही हमारा शत्रु संहारक वज्र है, शक्ति को देनेवाला तथा व्यापक धन है। हृदय में सोम ही उल्लास को पैदा करता है।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Centre-hold of the earth, wielder of the mighty heaven of light, showers of living energy on the waves of the sea, adamantine force of the thunderbolt of Indra, virile and generous, treasure-hold of the wealth of the universe, Soma, ecstatic joy of creative divinity, flows in the holy heart and blesses it with purity.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे लोक रुद्ररूप, कामनापूर्ती करणारा, ऐश्वर्ययुक्त व आनंददाता इत्यादी गुणयुक्त परमेश्वराची उपासना करतात व त्याच्यावर दृढ विश्वास ठेवतात परमात्मा त्यांना अवश्य पवित्र करतो व जे अविश्वासाने ईश्वराच्या नियमांचे उल्लंघन करतात तेव्हा परमेश्वर त्यांच्या अभिमानाचे घर खाली करण्यासाठी वज्राप्रमाणे सज्ज असतो. ॥७॥

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