ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 74/ मन्त्र 8
ऋषिः - कक्षीवान्
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
अध॑ श्वे॒तं क॒लशं॒ गोभि॑र॒क्तं कार्ष्म॒न्ना वा॒ज्य॑क्रमीत्सस॒वान् । आ हि॑न्विरे॒ मन॑सा देव॒यन्त॑: क॒क्षीव॑ते श॒तहि॑माय॒ गोना॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठअध॑ । श्वे॒तम् । क॒लश॑म् । गोभिः॑ । अ॒क्तम् । कार्ष्म॑न् । आ । वा॒जी । अ॒क्र॒मी॒त् । स॒स॒ऽवान् । आ । हि॒न्वि॒रे॒ । मन॑सा । दे॒व॒ऽयन्तः॑ । क॒क्षीव॑ते । श॒तऽहि॑माय । गोना॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
अध श्वेतं कलशं गोभिरक्तं कार्ष्मन्ना वाज्यक्रमीत्ससवान् । आ हिन्विरे मनसा देवयन्त: कक्षीवते शतहिमाय गोनाम् ॥
स्वर रहित पद पाठअध । श्वेतम् । कलशम् । गोभिः । अक्तम् । कार्ष्मन् । आ । वाजी । अक्रमीत् । ससऽवान् । आ । हिन्विरे । मनसा । देवऽयन्तः । कक्षीवते । शतऽहिमाय । गोनाम् ॥ ९.७४.८
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 74; मन्त्र » 8
अष्टक » 7; अध्याय » 2; वर्ग » 32; मन्त्र » 3
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अष्टक » 7; अध्याय » 2; वर्ग » 32; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(अध) यदा (श्वेतं कलशम्) सत्त्वगुणविशिष्टमन्तःकरणं (गोभिः) इन्द्रियवृत्तिभिः (अक्तम्) रञ्जितं तथा (कार्ष्मन्) अतिशुद्धं तस्मिन् (वाजी) बलवान् परमेश्वरः (आक्रमीत्) स्वदीप्त्या प्रविशति। तं परमात्मानं (ससवान्) सम्भजन् (मनसा देवयन्तः) मनसा प्रकाशयन् (गोनाम्) पृथिव्यादिलोकलोकान्तराणां (शतहिमाय) शतहिमर्तुपर्यन्तं नानाविधमैश्वर्यं (कक्षीवते) विदुषे (हिन्विरे) प्रेरयति ॥८॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(अध) जब (श्वेतं कलशम्) सत्त्वगुणविशिष्ट अन्तःकरण को (गोभिः) जो इन्द्रियवृत्तियों से (अक्तम्) राञ्जित है (कार्ष्मन्) जो अत्यन्त शुद्ध हो गया है, उसमें (वाजी) बलवान् परमात्मा (आक्रमीत्) अपनी दीप्ति द्वारा प्रविष्ट होता है। उस परमात्मा का (ससवान्) भजन करता हुआ (मनसा देवयन्तः) मन से प्रकाश करते हुए (गोनाम्) पृथिव्यादि लोक-लोकान्तरों के (शतहिमाय) सौ हेमन्तऋतुपर्यन्त अनन्त प्रकार के ऐश्वर्य को (कक्षीवते) विद्वान् के लिये (हिन्विरे) प्रेरणा करता है ॥८॥
भावार्थ
जो पुरुष शुद्धि की पराकाष्ठा को पहुँच जाता है, परमात्मा उस पर अवश्यमेव दया करता है ॥८॥
विषय
वीर के तुल्य प्रभु परमेश्वर का कृपायुक्त व्यवहार और परम स्तुत्य प्रभु।
भावार्थ
(अध) और (वाजी) बलवान्, ज्ञानवान् (कार्श्मन्) युद्ध या प्रतिस्पर्द्धा में जो (आ अक्रमीत्) सबको अतिक्रमण कर जाता है वह जिस प्रकार पारितोषिक या मान-आदर सूचक (गोभिः अक्तं) उत्तम स्तुति वाणियों से युक्त (श्वेतं कलशं) श्वेत, चांदी आदि धातु का बना कलश, पात्र (कप्) आदि (ससवान्) प्राप्त करता है। उसी प्रकार (कार्श्मन्) परम सीमा पर विराजमान प्रभु परमेश्वर (आ अक्रमीत्) सर्वत्र व्यापक है। वह (वाजी) ज्ञान, बल, ऐश्वर्य का स्वामी होकर (गोभिः अक्तं श्वेतं कलशं) किरणों से युक्त, श्वेत, देदीप्यमान (कलशं) कला २ से बने चन्द्र को सूर्यवत्, स्तुति वाणियों से सम्पन्न इस १६ कलाओं से युक्त आत्मा को (ससवान्) स्वीकार करता है। (मनसा देवयन्तः), मन से या ज्ञानपूर्वक देव, प्रभु की कामना करने वाले जन (शत-हिमाय) सौ वर्षों के जीवन धारण करने वाले (कक्षीवते) कक्ष्या अर्थात् रज्जुवत् वा बन्धनवत् देहरूप गृह या स्तुति-वाणी को धारण करनेवाले इस मनुष्य- जीव के हितार्थ (गोनाम् आ हिन्विरे) वाणियों का प्रयोग करते हैं, वे भगवान् की स्तुति करते हैं।
टिप्पणी
कक्षीवान्, कक्ष्यावान्, कक्ष्या रज्जुस्तद्वान् कक्षो ख्यातेर्वा गाहतेः। कक्ष्या वाणी।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कक्षीवानृषिः। पवमानः सोमो देवता। छन्दः- १, ३ पादनिचृज्जगती। २, ६ विराड् जगती। ४, ७ जगती। ५, ९ निचज्जगती। ८ निचृत्त्रिष्टुप् ॥ नवर्चं सूक्तम्॥
विषय
कक्षीवान् शतहिम
पदार्थ
[१] (अध) = अब (गोभिः अक्तम्) = ज्ञान की वाणियों से प्रकाशित [ अलंकृत] (श्वेतं कलशम्) = शुद्ध, कलाओं के आधारभूत शरीर को (ससवान्) = सेवन करता हुआ [संभजन्] (वाजी) = यह शक्तिशाली सोम (कार्ष्मन्) = काष्ठा की ओर, लक्ष्य स्थान की ओर [सा काष्ठा सा परागतिः] (आ अक्रमीत्) = सर्वथा गतिवाला होता है। सोमरक्षण से शरीर शुद्ध होता है, ज्ञान से हम अलंकृत होते हैं और प्रभु की ओर चलते हैं। [२] (मनसा) = मन से (देवयन्तः) = उस देव [प्रभु] की कामना करते हुए लोग (आहिन्विरे) = इस सोम को अपने अन्दर समन्तात् प्रेरित करते हैं। यह शरीर में प्रेरित सोम की (कक्षीवते) = इस सोमरक्षण के लिये दृढ़ निश्चयी (शतहिमाय) = शतवर्षपर्यन्त गतिवाले [हि- गतौ ] पुरुष के लिये (गोनाम्) = ज्ञान की वाणियों को प्रेरित करता है ।
भावार्थ
भावार्थ- सुरक्षित सोम [क] शरीर को शुद्ध बनाता है, [ख] इसे ज्ञानालंकृत करता है,[ग] प्रभु रूप लक्ष्य की ओर ले चलता है।
इंग्लिश (1)
Meaning
Just as a well trained race horse shoots to the victory line, so does Soma, lord of light, life and peace, proceed to the pure heart of the devotee, a transparent receiver refined and consecrated by the holy voice of divinity. To him do celebrants of divinity with sincere mind enthusiastically pray to bless the scholars, the teacher and the disciple, with a hundred years of enlightened life of knowledge and wisdom.
मराठी (1)
भावार्थ
जो पुरुष शुद्ध होण्याची पराकाष्ठा करतो परमात्मा त्याच्यावर अवश्य दया करतो. ॥८॥
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