ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 82/ मन्त्र 2
ऋषिः - वसुर्भारद्वाजः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - निचृज्जगती
स्वरः - निषादः
क॒विर्वे॑ध॒स्या पर्ये॑षि॒ माहि॑न॒मत्यो॒ न मृ॒ष्टो अ॒भि वाज॑मर्षसि । अ॒प॒सेध॑न्दुरि॒ता सो॑म मृळय घृ॒तं वसा॑न॒: परि॑ यासि नि॒र्णिज॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठक॒विः । वे॒ध॒स्या । परि॑ । ए॒षि॒ । माहि॑नम् । अत्यः॑ । न । मृ॒ष्टः । अ॒भि । वाज॑म् । अ॒र्ष॒सि॒ । अ॒प॒ऽसेध॑न् । दुः॒ऽइ॒ता । सो॒म॒ । मृ॒ळ॒य॒ । घृ॒तम् । वसा॑नः । परि॑ । या॒सि॒ । निः॒ऽनिज॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
कविर्वेधस्या पर्येषि माहिनमत्यो न मृष्टो अभि वाजमर्षसि । अपसेधन्दुरिता सोम मृळय घृतं वसान: परि यासि निर्णिजम् ॥
स्वर रहित पद पाठकविः । वेधस्या । परि । एषि । माहिनम् । अत्यः । न । मृष्टः । अभि । वाजम् । अर्षसि । अपऽसेधन् । दुःऽइता । सोम । मृळय । घृतम् । वसानः । परि । यासि । निःऽनिजम् ॥ ९.८२.२
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 82; मन्त्र » 2
अष्टक » 7; अध्याय » 3; वर्ग » 7; मन्त्र » 2
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अष्टक » 7; अध्याय » 3; वर्ग » 7; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
हे परमात्मन् ! (वेधस्या) उपदेष्टुमिच्छया भवान् (माहिनम्) महापुरुषान् (पर्येषि) प्राप्नोति अथ च त्वं (अत्यो, न) अतिगत्वरपदार्थ इव (अभिवाजम्) मदाध्यात्मिकयज्ञं (अभ्यर्षि) प्राप्नोषि। त्वं (कविः) सर्वज्ञोऽसि (मृष्टः) तथा शुद्धस्वरूपोऽसि। (दुरिता) मदीयदुष्कृतानि (अपसेधन्) विदूरं कृत्वा (सोम) हे परमात्मन् ! (मृळय) मां सुखय अथ च (घृतं वसानः) प्रेमभावमुत्पादयन् (निर्निजम्) पवित्रताम् (परियासि) उत्पादयसि ॥२॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
हे परमात्मन् ! (वेधस्या) उपदेश करने की इच्छा से आप (माहिनं) महापुरुषों को (पर्येषि) प्राप्त होते हो और आप (अत्यः) अत्यन्त गतिशील पदार्थ के (न) समान (अभिवाजं) हमारे आध्यात्मिक यज्ञ को (अभ्यर्षसि) प्राप्त होते हैं। आप (कविः) सर्वज्ञ हैं (मृष्टः) शुद्धस्वरूप हैं (दुरिता) हमारे पापों को (अपसेधन्) दूर करके (सोम) हे सोम ! (मृळय) आप हमको सुख दें और (घृतं वसानः) प्रेमभाव को उत्पन्न करते हुए (निर्णिजं) पवित्रता को (परियासि) उत्पन्न करें ॥२॥
भावार्थ
इस मन्त्र में सर्वज्ञ परमात्मा से यह प्रार्थना है कि हे परमात्मन् ! आप हमको शुद्ध करें और सब प्रकार के सुख प्रदान करें। यहाँ सोम के लिये कवि शब्द आया है। सायण के मत में यहाँ सोमलता को ही कवि=सर्वज्ञ कथन किया गया है। वास्तव में वेदों में कवि शब्द जड़ के लिये कहीं भी नहीं आता। इतना ही नहीं, किन्तु “कविर्मनीषी, परिभूः, स्वयम्भूः” य० ४०।८ इत्यादि वाक्यों में कवि शब्द परमात्मा के लिये आया है, इस प्रकार उक्त मन्त्र में कवि शब्द से परमात्मा का ग्रहण करना चाहिये, जड़ सोम का नहीं ॥२॥
विषय
मेघवत् विजेता और प्रभु का वर्णन।
भावार्थ
हे (सोम) उत्तम शाशक ! प्रभो ! तू (कविः) ज्ञानवान्, सब को अति क्रमण कर देखने वाला, अन्तर्यामी, सर्वव्यापक होकर (वेधस्या) जगत् आदि के विधान या निर्माण की इच्छा से (माहिनं) अपने महान् सामर्थ्य को (परि ऐषि) दूर २ तक व्यापता है और (अत्यः मृष्टः न) खरखरा से स्वच्छ, तरोताज़ा घोड़े के समान तू (वाजम् अभि अर्षसि) वेगवत् ज्ञान समृद्धि को साक्षात् करता है। तू (घृतं वसानः) अभिषेक काल में जल को अपने पर आच्छादित करता हुआ, शासन काल में, (घृतं वसानः) तेज को धारण करता हुआ, (दुरिता) सब दुःखकारी अपराधों को (मृडय) दूर कर और (निः-निजं परियासि) अति शुद्ध रूप को प्राप्त करता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसुर्भारद्वाज ऋषिः॥ पवमानः सोमो देवता॥ छन्द:- १, ४ विराड् जगती। २ निचृज्जगती। ३ जगती। ५ त्रिष्टुप्। पञ्चर्चं सूक्तम्॥
विषय
इन्द्रियदमन [ममहिनं पर्येषि]
पदार्थ
[१] हे (सोम) = वीर्यशक्ते ! तू (कविः) = क्रान्त होता हुआ (वेधस्या) = उस विधाता प्रभु की प्राप्ति की कामना से (माहिनम् पर्येषि) = [power, dominion ] इन्द्रियों के आदित्य को, इन्द्रियों के दमन की शक्ति को प्राप्त करता है । (मृष्ट) = शुद्ध किया गया तू (अत्यः न) = सततगामी अश्व के समान (वाजम् अभि अर्षसि) = शक्ति और गतिवाला होता है। जैसे घोड़े की मालिश होने पर वह तरोताजा होकर शक्तिसम्पन्न हो जाता है, इसी प्रकार वासनाओं के विनाश के द्वारा परिशुद्ध सोम हमें शक्ति - सम्पन्न बनाता है । [२] शक्तिशाली बनाकर सब (दुरिता) = दुरितों को, अभद्रों को, (अपसेधन्) = दूर करते हुए, हे सोम ! तू हमें (मृडयः) = सुखी कर (घृतं वसानः) = ज्ञानदीप्ति को धारण कराता हुआ तू (निर्णिजम्) = शोधन व पुष्टि को (परियासि) = चारों ओर प्राप्त कराता है । इस सोम के रक्षण से शरीर ज्ञानदीप्ति से चमक उठता है, इसका अंगप्रत्यंग निर्मल व पुष्ट हो जाता है ।
भावार्थ
भावार्थ- सोमरक्षण से हमारी बुद्धि तीव्र होती है, हमारे में प्रभु प्राप्ति की कामना उत्पन्न होती है, हम इन्द्रियदमन करते हुए शक्तिशाली बनते हैं । दुरित दूर होते हैं । प्रकाश के साथ पुष्टि प्राप्त होती है ।
इंग्लिश (1)
Meaning
Soma, omniscient visionary and poetic creator, with the desire to enlighten, you radiate to great minds and move to dynamic yajnas of humanity like accelerated energy to its target of achievement. O lord of light and peace, be kind, dispelling all evil to nullity. Wearing the grace of beauty and purity of yajnic love and sweetness, you move and embrace humanity for fulfilment.
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात सर्वज्ञ परमेश्वराला ही प्रार्थना केलेली आहे की हे परमेश्वरा! तू आम्हाला शुद्ध कर व सर्व प्रकारे सुख दे. येथे सोमसाठी कवी शब्द आलेला आहे. सायणच्या मते येथे सोमलतेलाच कवि-सर्वज्ञ म्हटलेले आहे. वास्तविक वेदात कवी शब्द जडासाठी कुठेही आलेला नाही. एवढेच नव्हे तर ‘‘कविर्मनीषीपरिभू: स्वयंभू’’ यजु. ४०।८ इत्यादी वाक्यात कवी शब्द परमेश्वरासाठी ग्रहण केला पाहिजे. जड सोम नव्हे ॥२॥
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