ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 82/ मन्त्र 5
ऋषिः - वसुर्भारद्वाजः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
यथा॒ पूर्वे॑भ्यः शत॒सा अमृ॑ध्रः सहस्र॒साः प॒र्यया॒ वाज॑मिन्दो । ए॒वा प॑वस्व सुवि॒ताय॒ नव्य॑से॒ तव॑ व्र॒तमन्वाप॑: सचन्ते ॥
स्वर सहित पद पाठयथा॑ । पूर्वे॑भ्यः । श॒त॒ऽसाः । अमृ॑ध्रः । स॒ह॒स्र॒ऽसाः । प॒रि॒ऽअयाः॑ । वाज॑म् । इ॒न्दो॒ इति॑ । ए॒व । प॒व॒स्व॒ । सु॒वि॒ताय॑ । नव्य॑से । तव॑ । व्र॒तम् । अनु॑ । आपः॑ सचन्ते ॥
स्वर रहित मन्त्र
यथा पूर्वेभ्यः शतसा अमृध्रः सहस्रसाः पर्यया वाजमिन्दो । एवा पवस्व सुविताय नव्यसे तव व्रतमन्वाप: सचन्ते ॥
स्वर रहित पद पाठयथा । पूर्वेभ्यः । शतऽसाः । अमृध्रः । सहस्रऽसाः । परिऽअयाः । वाजम् । इन्दो इति । एव । पवस्व । सुविताय । नव्यसे । तव । व्रतम् । अनु । आपः सचन्ते ॥ ९.८२.५
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 82; मन्त्र » 5
अष्टक » 7; अध्याय » 3; वर्ग » 7; मन्त्र » 5
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अष्टक » 7; अध्याय » 3; वर्ग » 7; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(इन्दो) हे जीवात्मन् (यथा) येन प्रकारेण (पूर्वेभ्यः) पूर्वजन्मभ्यः (शतसाः) शतशः तथा (सहस्रसाः) सहस्रशः (वाजम्) बलानि (पर्ययाः) त्वं प्राप्नोषि (एव) इत्थं (नव्यसे) अस्मै नव्यजन्मने (सुविताय) अभ्युदयाय (तव व्रतम्) भवद्व्रतं (अन्वापः) सत्कर्म (सचन्ते) सङ्गतं भवति अतस्त्वं (पवस्व) पवित्रय ॥५॥ इति द्व्यशीतितमं सूक्तं सप्तमो वर्गश्च समाप्तः ॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(इन्दो) हे जीवात्मन् ! (यथा) जैसे (पूर्वेभ्यः) पूर्व जन्मों के लिये (शतसाः) सैकड़ों (सहस्रसाः) हजारों प्रकार के (वाजं) बलों को (पर्ययाः) तुम प्राप्त हुए (एव) इसी प्रकार (नव्यसे) इस नवीन जन्म के लिये (सुविताय) अभ्युदयार्थ (तव, व्रतं) तुम्हारे व्रत को (अनु, आपः) सत्कर्म्म (सचन्ते) संगत हों, इसलिये आप (पवस्व) पवित्र करें ॥५॥
भावार्थ
परमात्मा उपदेश करता है कि हे जीवों ! तुम्हारे पूर्व जन्म बहुत व्यतीत हुए हैं, तुम इस नूतन जन्म में सत्कर्म करके अभ्युदयशाली और तेजस्वी बनो। यहाँ और उत्तर जन्मों का कथन सृष्टि को प्रवाहरूप से अनादि मानकर है और यही भाव ‘सूर्य्याचन्द्रमसौ धाता यथापूर्वमकल्पयत्” इस मन्त्र में वर्णन किया गया है ॥५॥ यह ८२ वाँ सूक्त और ७ वाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
विषय
जीव को प्रभु का आश्रय लेने का उपदेश।
भावार्थ
हे (इन्दो) ऐश्वर्यवन् ! प्रभो ! राजन् ! (यथा) जिस प्रकार तू (पूर्वेभ्यः) हम से पूर्व विद्यमान पुरुषों को (शतसाः सहस्रसाः सन्) सैकड़ों और हज़ारों का दाता होकर ऐश्वर्य को (परि अयाः) प्रदान करता है तू (अमृध्रः) अविनाशी है। (एव) इसी प्रकार (नव्यसे) अति नवीन, स्तुत्यतम, (सु-इताय) सुखप्रद, अभ्युदय शोभन कार्य के लिये (पवस्व) नाना ऐश्वर्य प्रदान कर। (तव व्रतम् अनु), तेरे ही व्रत के अनुकूल जन साधारण भी (आपः) जलोंवत् (सचन्ते) तेरे साथ संघ बना, मिलकर रहते हैं। तेरा ही अनुकरण और अनुसरण करते हैं। इति सप्तमो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसुर्भारद्वाज ऋषिः॥ पवमानः सोमो देवता॥ छन्द:- १, ४ विराड् जगती। २ निचृज्जगती। ३ जगती। ५ त्रिष्टुप्। पञ्चर्चं सूक्तम्॥
विषय
'शतसाः सहस्रसा: ' सोम
पदार्थ
[१] हे (इन्दो) = सोम ! तू (यथा) = जैसे (पूर्वेभ्यः) = अपना पालन व पूरण करनेवालों के लिये (अमृध्रः) = हिंसा को न करनेवाला है, उन्हें हिंसित नहीं होने देता और (शतसा:) = उन्हें पूरे सौ वर्ष के आयुष्य को देनेवाला है (सहस्रसा:) = और हजारों वसुओं [धनों] को प्राप्त करानेवाला है। ऐसा तू (वाजं पर्ययाः) = शक्ति को हमारे अंगप्रत्यंगों में प्राप्त करानेवाला हो। [२] (एवा) = इसी प्रकार तू (नव्यसे) = अत्यन्त स्तुत्य [ नु स्तुतौ] (सुविताय) = सुवित के लिये, सदाचरण के लिये, (पवस्व) = प्राप्त हो । (तव व्रतम् अनु) = तेरे व्रत के अनुपात में ही, अर्थात् जितना जितना हम तेरा रक्षण करते हैं, उतना उतना ही (आपः सचन्ते) = व्यापक कर्म हमारे साथ सम्यक् होते हैं। सोमरक्षण के अनुपात में ही हमारे कर्म उद्भूता के लिये हुए व पवित्र होते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- सुरक्षित सोम हमें 'दीर्घजीवन, सब जीवनधन [वसु] शक्ति तथा पवित्र कर्मों' को प्राप्त कराता है। सोमरक्षण से पवित्र जीवनवाला 'पवित्र' ही अगले सूक्त का ऋषि है-
इंग्लिश (1)
Meaning
O Soma, Spirit of peace, prosperity and bliss vibrating in the dynamics of existence, free from violence, unviolated and inviolable, as you ever blest the ancients of all time with hundredfold, thousandfold food, energy, safeguards and victories of progress, same way, we pray, bring us peace, progress and well being for the new generations. All our people and all our actions honour and obey the law and discipline enshrined in the voice divine.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्मा उपदेश करतो की हे जीवांनो! तुमचे पुष्कळ पूर्वजन्म झालेले आहेत. तुम्ही या नवीन जन्मात सत्कर्म करून अभ्युदयी व तेजस्वी बना. येथे पूर्व व उत्तर जन्मांचे कथन सृष्टीला प्रवाहरूपाने अनादि मानून केलेले आहे व हाच भाव ‘‘सूर्य्याचन्द्रमसौ धाता । यथा पूर्वम कल्पयत’’ या मंत्रात वर्णित आहे. ॥५॥
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