ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 82/ मन्त्र 4
ऋषिः - वसुर्भारद्वाजः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - विराड्जगती
स्वरः - निषादः
जा॒येव॒ पत्या॒वधि॒ शेव॑ मंहसे॒ पज्रा॑या गर्भ शृणु॒हि ब्रवी॑मि ते । अ॒न्तर्वाणी॑षु॒ प्र च॑रा॒ सु जी॒वसे॑ऽनि॒न्द्यो वृ॒जने॑ सोम जागृहि ॥
स्वर सहित पद पाठजा॒याऽइ॑व । पत्यौ॑ । अधि॑ । शेव॑ । मं॒ह॒से॒ । पज्रा॑याः । ग॒र्भ॒ । शृ॒णु॒हि । ब्रवी॑मि । ते॒ । अ॒न्तः । वाणी॑षु । प्र । चा॒र॒ । सु । जी॒वसे॑ । अ॒नि॒न्द्यः । वृ॒जने॑ । सो॒म॒ । जा॒गृ॒हि॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
जायेव पत्यावधि शेव मंहसे पज्राया गर्भ शृणुहि ब्रवीमि ते । अन्तर्वाणीषु प्र चरा सु जीवसेऽनिन्द्यो वृजने सोम जागृहि ॥
स्वर रहित पद पाठजायाऽइव । पत्यौ । अधि । शेव । मंहसे । पज्रायाः । गर्भ । शृणुहि । ब्रवीमि । ते । अन्तः । वाणीषु । प्र । चार । सु । जीवसे । अनिन्द्यः । वृजने । सोम । जागृहि ॥ ९.८२.४
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 82; मन्त्र » 4
अष्टक » 7; अध्याय » 3; वर्ग » 7; मन्त्र » 4
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अष्टक » 7; अध्याय » 3; वर्ग » 7; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ परमात्मा शीलमुपदिशति।
पदार्थः
(गर्भ) गृह्णातीति गर्भः, हे सद्गुणग्राहिन् जीवात्मन् ! (ते) त्वां (ब्रवीमि) कथयामि। त्वं (शृणुहि) शृणु (पज्रायाः) यथा पृथिव्याः (पत्यौ, अधि) पर्जन्यरूपपत्यौ अतिप्रीतिर्भवति। (जाया इव) यथा साध्वी स्त्री स्वपतिं प्रीणयति तथा सर्वाभिः स्त्रीभिः कर्तव्यम् एवं कृते (शेव मंहसे) प्रत्यधिकारिभ्यः सुखप्राप्तिर्भवति। (अनिन्द्यः) सर्वदोषपरित्यक्तः (वृजने) स्वलक्ष्येषु सावधानीभूय (सोम) हे सौम्यस्वभाव जीवात्मन् ! (जागृहि) जागृहि। अथ च (अन्तर्वाणीषु) विद्यारूपवाणीषु (प्रचरासु) सर्वत्र व्याप्तासु (जीवसे) स्वजीवनाय (प्रचर) प्रकर्षेण जागृहि ॥४॥
हिन्दी (3)
विषय
अब परमात्मा सदाचार का उपदेश करता है।
पदार्थ
(गर्भ) हे गर्भ ! हे सद्गुणों के ग्रहण करनेवाले जीवात्मन् ! (ते) तुमको (ब्रवीमि) मैं कहता हूँ कि (शृणुहि) तुम सुनो (पज्रायाः) जिस प्रकार पृथिवी की (पत्यौ, अधि) पर्जन्यरूप पति में अत्यन्त प्रीति होती है (जाया, इव) जैसे कि सदाचारिणी स्त्री की अपने पति में प्रीति होती है, वैसे ही सब स्त्रियों को अपने-अपने पतियों में प्रीति करनी चाहिए। ऐसा करने पर (शेव मंहसे) प्रत्येक अधिकारी के लिये सुख की प्राप्ति होती है। (अनिन्द्यः) सब दोषों से दूर होकर (वृजने) अपने लक्ष्यों में सावधान होकर (सोम) हे सोमस्वभाव जीवात्मन् ! (जागृहि) तुम जागो और (अन्तर्वाणीषु) विद्यारूपी वाणी में (प्रचरासु) जो सबमें प्रचार पाने योग्य है, उसमें (जीवसे) अपने जीने के लिये जागृति को धारण करो ॥४॥
भावार्थ
परमात्मा उपदेश करता है कि हे जीव ! तुमको अपने कर्तव्य में सदैव जागृत रहना चाहिये। जो पुरुष अपने कर्तव्य में नहीं जागता, उसका संसार में जीना निष्फल है। यहाँ सोम शब्द का अर्थ जीवात्मा है। जैसे कि “स्याच्चैकस्य ब्रह्मशब्दवत्” ब्र० सू० २।३।५॥ यहाँ ब्रह्मसूत्र के अनुसार प्रकरणभेद में अर्थ का भेद हो जाता है, इसी प्रकार यहाँ शिक्षा देने के प्रकरण से सोम नाम जीवात्मा का है ॥४॥
विषय
जीव को प्रभु का आश्रय लेने का उपदेश।
भावार्थ
(पत्यौ अधि जाया इव शेव मंहते) जिस प्रकार पति के अधीन स्त्री उसको अधिक सुख प्रदान करती है उसी प्रकार हे (गर्भ) गर्भगत जीव ! हे (सोम) उत्पन्न होने हारे! तू भी (पत्यौ) पालक प्रभु परमेश्वर के अधीन रहकर ही (जाया इव) देह रूप से प्रकट या उत्पन्न होकर (पज्रायाः) प्रजा मात्र भूमि को (शेव मंहसे) सुख प्रदान करता है। हे (सोम) विद्वन् ! (शृणुहि) तू श्रवण कर। (ते प्रवीमि) मैं तुझे इस रहस्य का उपदेश करता हूँ। हे जीव ! तू (जीवसे) दीर्घ जीवन को प्राप्त करने के लिये (वाणीषु अन्तः) वेद वाणियों के बीच, हिंसिका सेनाओं के बीच सेनापतिवत् (सु प्रचर) अच्छी प्रकार विचरण कर और (अनिन्द्यः) निन्दनीय आचार घाला न होकर (वृजने) बल वीर्य को प्राप्त करने, वा वर्जनीय पाप को त्यागने, वा जाने योग्य मार्ग में (जागृहि) जाग, सदा सावधान होकर रह।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसुर्भारद्वाज ऋषिः॥ पवमानः सोमो देवता॥ छन्द:- १, ४ विराड् जगती। २ निचृज्जगती। ३ जगती। ५ त्रिष्टुप्। पञ्चर्चं सूक्तम्॥
विषय
सर्वसुख साधक सोम
पदार्थ
[१] (इव) = जैसे (जाया) = पत्नी (पत्यौ) = पति के विषय में (अधिशेव) = अधिक सुख को [शेव, शेवं] प्राप्त कराती है, इसी प्रकार हे सोम, वीर्यशक्ति ! तू अपने रक्षक में खूब ही सुख को (मंहसे) = देनेवाला होता है। 'स्वास्थ्य' सुख का मूल यह सोम ही तो है । हे (पज्रायाः गर्भ) = [पज्रा strength] शक्ति को अपने में धारण करनेवाले सोम ! तू (शृणुहि) = मेरे से किये गये अपने को स्तवन को सुन । (ते ब्रवीमि) = मैं तेरे लिये इन स्तुतिवचनों को कहता हूँ । इन स्तुतिवचनों के द्वारा स्रोता सोम के महत्त्व को अपने हृदय पर अंकित करता है। [२] हे सोम ! तू (वाणीषु अन्तः) = ज्ञान की वाणियों में (चरा) = गतिवाला हो । (सुजीवसे) = हमारे उत्कृष्ट जीवन के लिये, (अनिन्द्यः) = न निन्दित होता हुआ अत्यन्त प्रशस्य होता हुआ तू वृजने-शक्ति में जागृहि सदा जागरित हो, हमें तू शक्तिवाला बना ।
भावार्थ
भावार्थ- सोम शक्ति का धारक है, यह सर्वोत्कृष्ट सुख को प्राप्त कराता है। यही ज्ञान की वाणियों में व शक्ति में विचरण करता है।
इंग्लिश (1)
Meaning
O Soma, blessed man, child of the earth and solid reality of existence, listen, I say: As a wife feels elevated in love and service for her husband, you too love and serve life and the lord of life within the laws and values of the voice divine for the fulfilment of your self in action. Live free from calumny and scandal and keep awake in the paths of life.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्मा उपदेश करतो की, हे जीवा! तुला आपल्या कर्तव्यात सदैव जागृत राहिले पाहिजे. जो पुरुष आपल्या कर्तव्याला जागत नाही त्याचे जगात जगणे निष्फळ आहे. येथे सोम शब्दाचा अर्थ जीवात्मा आहे. जसे ‘‘स्याश्चैकस्य ब्रह्म शब्दवत’’ ब्र. सू. २।३।५॥ येथे ब्रह्मसूत्रानुसार प्रकरणभेदाने अर्थाचा भेद होतो. याच प्रकारे येथे शिक्षण देण्याच्या प्रकरणात सोम नाव जीवात्म्याचे आहे. ॥४॥
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