ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 89/ मन्त्र 2
राजा॒ सिन्धू॑नामवसिष्ट॒ वास॑ ऋ॒तस्य॒ नाव॒मारु॑ह॒द्रजि॑ष्ठाम् । अ॒प्सु द्र॒प्सो वा॑वृधे श्ये॒नजू॑तो दु॒ह ईं॑ पि॒ता दु॒ह ईं॑ पि॒तुर्जाम् ॥
स्वर सहित पद पाठराजा॑ । सिन्धू॑नाम् । अ॒व॒सि॒ष्ट॒ । वासः॑ । ऋ॒तस्य॑ । नाव॑म् । आ । अ॒रु॒ह॒त् । रजि॑ष्ठाम् । अ॒प्ऽसु । द्र॒प्सः । व॒वृ॒धे॒ । श्ये॒नऽजू॑तः । दु॒हे । ई॒म् । पि॒ता । दु॒हे । ई॒म् । पि॒तुः । जाम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
राजा सिन्धूनामवसिष्ट वास ऋतस्य नावमारुहद्रजिष्ठाम् । अप्सु द्रप्सो वावृधे श्येनजूतो दुह ईं पिता दुह ईं पितुर्जाम् ॥
स्वर रहित पद पाठराजा । सिन्धूनाम् । अवसिष्ट । वासः । ऋतस्य । नावम् । आ । अरुहत् । रजिष्ठाम् । अप्ऽसु । द्रप्सः । ववृधे । श्येनऽजूतः । दुहे । ईम् । पिता । दुहे । ईम् । पितुः । जाम् ॥ ९.८९.२
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 89; मन्त्र » 2
अष्टक » 7; अध्याय » 3; वर्ग » 25; मन्त्र » 2
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अष्टक » 7; अध्याय » 3; वर्ग » 25; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (2)
पदार्थः
स परमात्मा (सिन्धूनां) प्रकृत्यादिपदार्थानां (राजा) पतिरस्ति। अपि च (वासः) सर्वस्थानानि (अवसिष्ट) आच्छादयति (रजिष्ठां, ऋतस्य, नावं) यः सर्वेभ्यः सुखकारिणी कर्मरूपा नौरस्ति, तस्यां (आ, अरुहत्) आरोह्य (अप्सु) कर्मसमुद्रात् पारयति। (द्रप्सः) स आनन्दस्वरूपः परमात्मा (ववृधे) सदैव वृद्धिं प्राप्नोति। (श्येनजूतः) विद्युदिव दीप्तिमद्वृत्त्या गृहीतः परमात्मा ध्यानविषयो भवति। (ईं) अमुं (पिता) सत्कर्मभिः यज्ञपालको यजमानः (दुहे) परिपूर्णरूपेण दोग्धि अर्थान्निजहृदयगतङ्करोति। (पितुः, जां) सदुपदेशकेनाविर्भावं प्राप्नवन्तममुं परमात्मानं (दुहे) अहं प्राप्नोमि ॥२॥
पदार्थः
स परमात्मा (सिन्धूनां) प्रकृत्यादिपदार्थानां (राजा) पतिरस्ति। अपि च (वासः) सर्वस्थानानि (अवसिष्ट) आच्छादयति (रजिष्ठां, ऋतस्य, नावं) यः सर्वेभ्यः सुखकारिणी कर्मरूपा नौरस्ति, तस्यां (आ, अरुहत्) आरोह्य (अप्सु) कर्मसमुद्रात् पारयति। (द्रप्सः) स आनन्दस्वरूपः परमात्मा (ववृधे) सदैव वृद्धिं प्राप्नोति। (श्येनजूतः) विद्युदिव दीप्तिमद्वृत्त्या गृहीतः परमात्मा ध्यानविषयो भवति। (ईं) अमुं (पिता) सत्कर्मभिः यज्ञपालको यजमानः (दुह) परिपूर्णरूपेण दोग्धि अर्थान्निजहृदयगतङ्करोति। (पितुः, जां) सदुपदेशकेनाविर्भावं प्राप्नवन्तममुं परमात्मानं (दुह) अहं प्राप्नोमि ॥२॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
वह परमात्मा (सिन्धूनां) प्रकृत्यादि पदार्थों का (राजा) स्वामी है और (वासः) सर्व निवासस्थानों का (अवसिष्ट) आच्छादन करता है। (रजिष्ठां ऋतस्य, नावं) सबसे सुखदायी जो कर्म्मों की नौका है, उसमें (आरुहत्) चढ़ाकर (अप्सु) कर्म्मों के सागर से पार करता है। (द्रप्सः) वह आनन्दस्वरूप परमात्मा (ववृधे) सदैव वृद्धि को प्राप्त है। (श्येनजूतः) विद्युत् के समान दीप्तिमती वृत्ति से ग्रहण किया हुआ परमात्मा ध्यान का विषय होता है। (ईं) इसको (पिता) सत्कर्म्मों द्वारा यज्ञ का पालन करनेवाला यजमान (दुहे) परिपूर्णरूप से दुहता है अर्थात् अपने हृदयङ्गत करता है। (पितुर्जाम्) सदुपदेशक से आविर्भाव को प्राप्त हुए इस परमात्मा को (दुहे) मैं प्राप्त करता हूँ ॥२॥
भावार्थ
जो पुरुष कर्मयोगी बनकर परमात्मा की आज्ञा के अनुसार परमात्मा के नियमों का पालन करता है, वह परमात्मा के साक्षात्कार को अवश्यमेव प्राप्त होता है ॥२॥
विषय
राष्ट्रपति के तुल्य देह में आत्मा और जीव का वेदवाणी पर आरोहण और उन्नति और पिता प्रभु का उस पर अनुग्रह।
भावार्थ
वह (राजा) इस देह में, राष्ट्र-पति के तुल्य (सिन्धूनाम्) नदियों के समान देह में बहती रक्त-धाराओं के बीच (वासः अवसिष्ट ) अपना वास करता है। वह (ऋतस्य नावम्) जल की नौका के समान (ऋतस्य) निरन्तर गतिशील द्रव की (रजिष्ठाम्) अति रजोयुक्त, तीव्र (नावम्) प्रेरणा या तीव्रगति पर, नौका पर पुरुष के समान (आ अरुहत्) चढ़ता, उस पर वश करता है। अथवा देह में भी वह मानो (ऋतस्य ) सत्य की (रजिष्ठाम् नावम् आ अरुहत्) अति उज्ज्वल नौका के तुल्य सर्वप्रेरक वेद वाणी पर चढ़ता है। वह (द्रप्सः) स्वयं रसस्वरूप होकर (श्येन-जूतः) उत्तम आचारवान् पुरुषों से सन्मार्ग में प्रेरित होकर (ववृधे) बढ़ता है। उस समय (ईं) इस (जाम्) पुत्रवत् आत्मा को (पिता) उसका पालक परमात्मा (दुहे) सब मनोरथों से पूर्ण करता है। वह भी (ईम्) इस लोक को (पितुः दुहे) उस प्रभु के द्वारा ही नाना फल प्राप्त करता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
उशना ऋषिः॥ पवमानः सोमो देवता॥ छन्द:- १ पादानिचृत्त्रिष्टुप्। २, ५, ६ त्रष्टुप्। ३, ७ विराट् त्रिष्टुप्। निचृत्त्रिष्टुप्। सप्तर्चं सूक्तम्।
विषय
ऋतस्य नावम् अरुहत्
पदार्थ
(द्रप्स:) = [दृपी हर्षणे:] आनन्द का कारणभूत यह सोम (सिन्धूनां राजा) = ज्ञान प्रवाहों का दीप्त करनेवाला है, (वासः अवसिष) = ज्ञानवस्त्र का धारण करानेवाला है। यह सोम ही (रजिष्ठाम् ऋजुतम) = सरलता से युक्त (ऋतस्य नावम्) = यज्ञ की नाव का (अरुहत्) = आरोहण करता है। यह हमारे जीवन को सत्यमय सरल बनाता हुआ यज्ञिय बनाता है। यह सोम (अप्सु) = कर्मों में (वावृधे) = वृद्धि को प्राप्त करता है, अर्थात् कर्मशीलता इसके रक्षण का साधन बनता है। (श्येनजूतः) = शंसनीय गतिवाले से यह शरीर में प्रेरित होता है । अर्थात् उत्तम कर्मों में लगे रहना ही शरीर में सोम को व्याप्त करने का साधन है । (ईम्) = इस सोम को (पिता) = वासनाओं से अपना रक्षण करनेवाला व्यक्ति (ईम्) = ही (दुहे) = अपने में प्रपूरित करता है। (पितुः जाम्) = सर्वरक्षक पिता प्रभु के प्रादुर्भाव करनेवाले, प्रभु साक्षात्कार के कारणभूत इस सोम को पिता = वासनाओं से अपना रक्षण करनेवाला ही (ईम्) = निश्चय से (दुहे) = अपने में प्रपूरित करता है ।
भावार्थ
भावार्थ- सुरक्षित सोम हमें ज्ञानदीप्ति को प्राप्त कराता है । हमें यज्ञिय वृत्तिवाला बनाता है । इसके रक्षण के लिये आवश्यक है कि हम कर्मों में लगे रहकर वासनाओं से अपने को आक्रान्त न होने दें।
इंग्लिश (1)
Meaning
The ruler, mover and controller of the flow of rivers, Soma takes on the forms of holy waters and the laws of nature as helmsman of the ship of life with honesty and naturalness. Inspired and moved by divine imagination, open minded with the social dynamics of humanity, he receives the blessings of heavenly father and the father blesses the daughter earth. Thus does Soma, the ruler, grow in stature and augment the earth.
मराठी (1)
भावार्थ
जो पुरुष कर्मयोगी बनून परमात्म्याच्या आज्ञेनुसार त्याच्या नियमांचे पालन करतो तो परमेश्वराच्या साक्षात्काराला अवश्य प्राप्त करतो. ॥२॥
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