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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 89 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 89/ मन्त्र 5
    ऋषिः - उशनाः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    चत॑स्र ईं घृत॒दुह॑: सचन्ते समा॒ने अ॒न्तर्ध॒रुणे॒ निष॑त्ताः । ता ई॑मर्षन्ति॒ नम॑सा पुना॒नास्ता ईं॑ वि॒श्वत॒: परि॑ षन्ति पू॒र्वीः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    चत॑स्रः । ई॒म् । घृ॒त॒ऽदुहः॑ । स॒च॒न्ते॒ । स॒मा॒ने । अ॒न्तः । ध॒रुणे॑ । निऽस॑त्ताः । ताः । ई॒म् । अ॒र्ष॒न्ति॒ । नम॑सा । पु॒ना॒नाः । ताः । ई॒म् । वि॒श्वतः॑ । परि॑ । स॒न्ति॒ । पू॒र्वीः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    चतस्र ईं घृतदुह: सचन्ते समाने अन्तर्धरुणे निषत्ताः । ता ईमर्षन्ति नमसा पुनानास्ता ईं विश्वत: परि षन्ति पूर्वीः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    चतस्रः । ईम् । घृतऽदुहः । सचन्ते । समाने । अन्तः । धरुणे । निऽसत्ताः । ताः । ईम् । अर्षन्ति । नमसा । पुनानाः । ताः । ईम् । विश्वतः । परि । सन्ति । पूर्वीः ॥ ९.८९.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 89; मन्त्र » 5
    अष्टक » 7; अध्याय » 3; वर्ग » 25; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (चतस्रः) पृथिव्यप्तेजोवायूनां चतस्रः शक्तयः (ईं) अमुं परमात्मानं (घृतदुहः) याः स्नेहदोग्ध्र्यः सन्ति, ताः (सचन्ते) सङ्गच्छन्ति (समाने, धरुणे) एकस्मिन्नधिकरणे (अन्तः, निषत्ताः) व्याप्यव्यापकतायाः सम्बन्धं स्वीकृत्य (ताः) पूर्वोक्ताः शक्तयः (ईम्) अमुं परमात्मानं (अर्षन्ति) प्राप्नुवन्ति। (नमसा) ऐष्वर्येण (पुनानाः) पवित्रयन्त्यः (ताः) ताः शक्तयः (पूर्वीः) या अनन्ताः सन्ति, ताः (ईं) अमुं परमात्मानं (परि, सन्ति) सर्वतो विभूषयन्ति ॥५॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (चतस्रः) पृथिवी, जल, तेज और वायु की चारों शक्तियें (ईं) इस परमात्मा को जो (घृतदुहः) स्नेह के दोहन करनेवाली हैं, वे (सचन्ते) संगत होती हैं। (समाने धरुणे) एक अधिकरण में (अन्तः निषत्ताः) व्याप्य-व्यापकता का सम्बन्ध रखकर (ताः) वे शक्तियें (ईं) इस परमात्मा को (अर्षन्ति) प्राप्त होती हैं। (नमसा) ऐश्वर्य्य से (पुनानाः) पवित्र करती हुई (ताः) वे शक्तियें (पूर्वीः) जो अनन्त हैं, वे (ईं) इस परमात्मा को (परिषन्ति) सर्व ओर से विभूषित करती हैं ॥५॥

    भावार्थ

    प्रकृति की परमाणुरूप शक्तियों से ईश्वर का ऐश्वर्य विभूषित हो रहा है। इन सब शक्तियों का केन्द्र एकमात्र परमात्मा ही है। उसी एकमात्र परब्रह्म में ये उत्पत्ति-स्थिति-प्रलय करती हैं अर्थात् आविर्भाव का नाम उत्पत्ति और सूक्ष्मरूप से विराजमान होने का नाम प्रलय है ॥५॥

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    विषय

    उसको अनेक शक्तियों की प्राप्ति।

    भावार्थ

    (ईम्) उसको (चतस्रः) चार (घृत-दुहः) वेग, ज्ञान वा जल प्रदान करने वाली (पूर्वीः) सनातन अग्नि, जल, पृथिवी और तेज शक्तियां या वाणियां वेदमयी, (ईम् सचन्ते) उसके साथ समवाय बना कर रहती हैं, अर्थात् उसके साथ नित्य वर्त्तमान रहती हैं। वे उस (समाने) समान (धरुणे) आश्रय में (नि-सत्ताः) निश्चित रूप से स्थिर हैं। (ताः) वे इसका (नमसा पुनानाः) विनय प्रार्थना आदि रूपों से प्राप्त होती हुई (ईम् अर्षन्ति) उसी को पहुंचती है। और वे (विश्वतः ईं परि सन्ति) उसी के इर्द गिर रहती हैं, उसको अपनाये रहती हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    उशना ऋषिः॥ पवमानः सोमो देवता॥ छन्द:- १ पादानिचृत्त्रिष्टुप्। २, ५, ६ त्रष्टुप्। ३, ७ विराट् त्रिष्टुप्। निचृत्त्रिष्टुप्। सप्तर्चं सूक्तम्।

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    विषय

    सोमरक्षण व वेदज्ञान

    पदार्थ

    प्रभु सब के समान रूप से धारण करनेवाले हैं, सो वे 'समान धरुण' कहे गये हैं । वेदवाणियों का आधार भी वे प्रभु हैं । उस (समाने धरुणे अन्तः) = उस सब के आधारभूत प्रभु में (निषत्ता:) = स्थित (चतस्र) = चारों (घृतदुहः) = ज्ञानदीप्ति का दोहन करनेवाली वेदवाणियाँ (ईम्) = निश्चय से (सचन्ते) = इस सोम के साथ समवेत होती हैं। अर्थात् सोमरक्षण के होने पर ज्ञान की वाणियाँ प्राप्त होती हैं। (ताः) = वे वेदवाणियाँ (ईम्) = निश्चय से (नमसा) = नम्रता से (पुनानाः) = पवित्र करती हुई (अर्षन्ति) = प्राप्त होती हैं। सोमरक्षण के होने पर वेदवाणियाँ प्राप्त होती हैं। ये ज्ञान की वाणियाँ हमें नम्र बनाती हैं और हमें पवित्र करती हैं। (ताः) = वे (पूर्वी:) = सृष्टि के प्रारम्भ में दी जानेवाली अथवा हमारा पालन व पूरण करनेवाली वेदवाणियाँ (ईम्) = निश्चय से (विश्वतः) = सब प्रकार से (परिषन्ति) = [To conquer] इसके जीवन में वासनाओं को परिभूत करती हैं और ये वेदवाणियाँ ही [To guide, govern] इसके जीवन का शासन करती हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- सोमरक्षण से हमारे जीवन में वेदवाणियाँ उपस्थित होती हैं, उनके अनुसार ही हमारा जीवन चलता है।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Four eternal powers in existence, cooperative, creative, and gracious, abiding and integrated with and within the one, united, uniform and all integrative systemic soma spirit of the cosmic, social and individual order of life, pure, purifying and strengthening it with obedience and sustaining energy, move to the central master spirit, all time stay around and serve it for the continuance of life in existence.$(In the cosmic system, the four are earth, water, fire and air in time and space. In the social order, they are the four classes: intellectuals, teachers and researchers; rulers, administrators and organisers of defence and law and order of peace and justice system; producers and distributors in the economic system; and the support services.) At the individual level, they are mana (mind and senses), buddhi (intelligence and discrimination), chitta (memory), and ahankara (I- sense).

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    प्रकृतीच्या परमाणूरूप शक्तींनी ईश्वराचे ऐश्वर्य विभूषित होत आहे. या सर्व शक्तींचे केंद्र एकमेव परमात्माच आहे. त्याच एकमात्र परब्रह्मात त्या उत्पत्ती, स्थिती, प्रलय करतात. अर्थात आविर्भावाचे नाव उत्पत्ती व सूक्ष्मरूपाने विराजमान असल्यामुळे प्रलय हे नाव आहे. ॥५॥

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