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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 92 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 92/ मन्त्र 2
    ऋषिः - कश्यपः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अच्छा॑ नृ॒चक्षा॑ असरत्प॒वित्रे॒ नाम॒ दधा॑नः क॒विर॑स्य॒ योनौ॑ । सीद॒न्होते॑व॒ सद॑ने च॒मूषूपे॑मग्म॒न्नृष॑यः स॒प्त विप्रा॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अच्छ॑ । नृ॒ऽचक्षाः॑ । अ॒स॒र॒त् । प॒वित्रे॑ । नाम॑ । दधा॑नः । क॒विः । अ॒स्य॒ । योनौ॑ । सीद॑न् । होता॑ऽइव । सद॑ने । च॒मूषु॑ । उप॑ । ई॒म् । अ॒ग्म॒न् । ऋष॑यः । स॒प्त । विप्राः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अच्छा नृचक्षा असरत्पवित्रे नाम दधानः कविरस्य योनौ । सीदन्होतेव सदने चमूषूपेमग्मन्नृषयः सप्त विप्रा: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अच्छ । नृऽचक्षाः । असरत् । पवित्रे । नाम । दधानः । कविः । अस्य । योनौ । सीदन् । होताऽइव । सदने । चमूषु । उप । ईम् । अग्मन् । ऋषयः । सप्त । विप्राः ॥ ९.९२.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 92; मन्त्र » 2
    अष्टक » 7; अध्याय » 4; वर्ग » 2; मन्त्र » 2
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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (नृचक्षाः) सर्वद्रष्टा (कविः) सर्वज्ञश्च (नाम, दधानः) इत्यादि नामानि धारयन् परमात्मा (अस्य, योनौ) कर्मयोगिनोऽन्तःकरणे (पवित्रे) बहुभिः साधनैः पवित्रतां प्राप्तं तस्मिन् (अच्छा, सरत्) सम्यक् प्राप्नोति (होतेव) यथा होता (सदने) यज्ञे (सीदन्) आगच्छन् (चमूषु) बहुषु समुदायेषु स्थिरो भवति, एवमेव (उप, ईं) अस्य समीपे (सप्त, ऋषयः) मनोबुद्धी पञ्च प्राणाश्च ये (विप्राः) मानवान् पवित्रयन्ति ते समागत्य प्राप्नुवन्ति ॥२॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (नृचक्षाः) सबका द्रष्टा (कविः) और सर्वज्ञ (नाम दधानः) इत्यादि नामों को धारण करनेवाला परमात्मा (अस्य, योनौ) कर्म्मयोगी के अन्तःकरण में (पवित्रे) जो साधनों द्वारा पवित्रता को प्राप्त है, उसमें (अच्छा सरत्) भली-भाँति प्राप्त होता है। (होतेव) जिस प्रकार होता (सदने) यज्ञ में (सीदन्) प्राप्त होता हुआ (चमूषु) बहुत से समुदायों में स्थिर होता है, इसी प्रकार (उप ईम्) इसके समीप (सप्तर्षयः) पाँच प्राण, मन और बुद्धि (विप्राः) जो मनुष्य को पवित्र करनेवाले हैं, वे आकर प्राप्त होते हैं ॥२॥

    भावार्थ

    जो पुरुष कर्मयोगी है, उसके पाँचों प्राण मन तथा बुद्धि वशीकृत होते हैं। उक्त साधनों द्वारा परमात्मा का अपने अन्तःकरण में साक्षात्कार करता है ॥२॥

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    विषय

    उत्तम सेनापति के कर्त्तव्य। अध्यात्म में इन्द्रियाध्यक्ष आत्मा का वर्णन।

    भावार्थ

    उत्तम शासक (नृचक्षाः) सब मनुष्यों को देखने और उपदेश करने वाला (कविः) परम मेधावी, दूरदर्शी पुरुष (अस्य) इस लोक या प्रजाजन के (योनौ) मूल देश में (नाम दधानः) कीर्त्ति एवं शत्रु को दमन करने वाले बल को धारण करता हुआ (पवित्रे अच्छ असत्) दुष्ट हनन रूप देश के पवित्रकारी कार्य के निमित्त अभिमुख बढ़े, चढ़ाई करे। वह (होता इव) आदेश करने वाले ऋत्विक् के समान (चमूषु सीदन्) सेनाओं के ऊपर प्रमुख पद पर विराजे। और (इम् उप) इस को (सप्त विप्राः ऋषयः) सात विद्वान् मन्त्रद्रष्टा रूप में (उप अग्मन्) प्राप्त हों। अध्यात्म में—आत्मा प्राणों पर द्रष्टा है वह भोक्ता इन्द्रियों पर अध्यक्ष है। सात मुखस्थ इन्द्रियें उसके सात अमात्यवत् है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कश्यप ऋषिः॥ पवमानः सोमो देवता॥ छन्दः- १ भुरिक त्रिष्टुप्। २, ४, ५ निचृत्त्रिष्टुप्। ३ विराट् त्रिष्टुप्। ६ त्रिष्टुप्॥ षडृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    ऋषयः सप्त विप्राः

    पदार्थ

    (नृचक्षाः) = मनुष्यों का ध्यान करनेवाला यह सोम (पवित्रे) = पवित्र हृदयवाले पुरुष में नाम (दधानः) = प्रभु के नाम का धारण करता हुआ (अच्छा असरत्) = उस प्रभु की ओर गतिवाला होता है। (कविः) = यह क्रान्तप्रज्ञ सोम हमें सूक्ष्म तत्त्वदर्शी बनानेवाला सोम (अस्य) = इस शरीर के (योनौ) = उत्पत्ति के कारणभूत प्रभु में (सीदन्) = स्थित होता हुआ, अर्थात् प्रभु का स्मरण करता हुआ (चमूषु) = इन शरीरों में इस प्रकार स्थित होता है, (इव) = जैसे कि (होता) = एक यज्ञकर्ता (पुरुष सदने) = यज्ञगृह में स्थित होता है। शरीर में सोम के सुरक्षित होने पर हमारे जीवन में प्रभुस्तवन व यज्ञों का प्रणयन होता है। उस समय (सप्त) = सात 'दो कान, दो नासिका छिद्र, दो आँखें व मुख' रूप सात (ऋषयः) = तत्त्वद्रष्टा (विप्रः) = ज्ञानी (ईम्) = निश्चय से (उप अग्मन्) = समीपता से प्राप्त होते हैं। सोमरक्षण से ये ज्ञानेन्द्रियाँ स्वकर्मक्षय हमारी ज्ञानवृद्धि का कारण बनती हैं। ये सचमुच 'ऋषि व विप्र' बन जाती हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- सोम शरीर में सुरक्षित होकर हमें प्रभु स्मरण की वृत्तिवाला बनाकर सदा ब्रह्मनिष्ठ बनाता है । इस सोम से ज्ञानेन्द्रियाँ सशक्त बनकर खूब ही ज्ञानवृद्धि का साधन बनती हैं।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Soma, all watchful guardian of humanity and omniscient creator, bearing the divine name and the essential nature of divine bliss, radiates and vibrates with joy in the pure heart core of the soul, abiding there as chief high priest at the head of congregations at yajna, and around him concentrate and join seven seers, that is, five organs of perception, mind and will, and the discriminative intelligence. (That personal yajna of the individual and the joint yajna of society is the essential seat of Soma.)

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जो पुरुष कर्मयोगी आहे त्याचे पाच प्राण, मन व बुद्धी त्याच्या वशमध्ये असतात. त्या साधनांद्वारे आपल्या अंत:करणात तो परमेश्वराचा साक्षात्कार करतो. ॥२॥

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