ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 92/ मन्त्र 5
तन्नु स॒त्यं पव॑मानस्यास्तु॒ यत्र॒ विश्वे॑ का॒रव॑: सं॒नस॑न्त । ज्योति॒र्यदह्ने॒ अकृ॑णोदु लो॒कं प्राव॒न्मनुं॒ दस्य॑वे कर॒भीक॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठतत् । नु । स॒त्यम् । पव॑मानस्य । अ॒स्तु॒ । यत्र॑ । विश्वे॑ । का॒रवः॑ । स॒म्ऽनस॑न्त । ज्योतिः॑ । यत् । अह्ने॑ । अकृ॑णोत् । ऊँ॒ इति॑ । लो॒कम् । प्र । आ॒व॒त् । मनु॑म् । दस्य॑वे । कः॒ । अ॒भीक॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
तन्नु सत्यं पवमानस्यास्तु यत्र विश्वे कारव: संनसन्त । ज्योतिर्यदह्ने अकृणोदु लोकं प्रावन्मनुं दस्यवे करभीकम् ॥
स्वर रहित पद पाठतत् । नु । सत्यम् । पवमानस्य । अस्तु । यत्र । विश्वे । कारवः । सम्ऽनसन्त । ज्योतिः । यत् । अह्ने । अकृणोत् । ऊँ इति । लोकम् । प्र । आवत् । मनुम् । दस्यवे । कः । अभीकम् ॥ ९.९२.५
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 92; मन्त्र » 5
अष्टक » 7; अध्याय » 4; वर्ग » 2; मन्त्र » 5
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अष्टक » 7; अध्याय » 4; वर्ग » 2; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(पवमानस्य) यः सर्वेषां पवित्रयिता परमात्मास्ति तस्य (सत्यं) सत्यस्थानं (नु) निश्चयं (तत्, अस्तु) तदस्ति (यत्र) यस्मिन् (विश्वे) सर्वे (कारवः) उपासकाः (सन्नसन्त) सङ्गता भवन्ति (अह्ने) प्रकाशकाय (यत्) यत् (ज्योतिः) ज्योतिरस्ति (उ) तथा च (लोकं, अकृणोत्) यज्ज्योतिः प्रकाशमुत्पादयति (मनुं) विज्ञानिपुरुषञ्च (प्र, आवत्) रक्षति, तस्माज्ज्योतिषः (दस्यवे) अज्ञानिनम्, असंस्कारिणम्, अवैदिकं वा पुरुषं (अभीकं) भयरहितं (कः) कः कर्तुं शक्नोति ॥५॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(पवमानस्य) जो सबको पवित्र करनेवाला परमात्मा है, उसका (सत्यं) सत्य का स्थान (नु) निश्चय करके (तत् अस्तु) वह है, (यत्र) जिसमें (विश्वे) सब (कारवः) उपासक (सन्नसन्त) संगत होते हैं। (अह्ने) प्रकाश के लिये (यत्) जो (ज्योतिः) ज्योति है (उ) और (लोकमकृणोत्) जो ज्योति ज्ञानरूप प्रकाश को उत्पन्न करती है और (मनुं) विज्ञानी पुरुष की (प्रावत्) रक्षा करती है, उस ज्योति से (दस्यवे) अज्ञानी, असंस्कारी वा अवैदिक पुरुष के लिये (अभीकं) निर्भयता (कः) कौन कर सकता है ॥५॥
भावार्थ
इस मन्त्र में परमात्मा के सद्रूप का वर्णन किया और उक्त परमात्मा को सब ज्योतियों का प्रकाशक माना है ॥५॥
विषय
प्रभु का परम पावन रूप।
भावार्थ
(पवमानस्य नु तत् सत्यम् अस्तु) परम पावन, परमशोधक, प्रभुका वह सामर्थ्यं सदा सत्य बना रहे (यत्र) जिसमें (विश्वे कारवः) सब कर्त्ता और स्तोता जन (सं नसन्त) एक हों (यद्) वह जो प्रभु (लोकं ज्योतिः अह्ने अकृणोत्) यथार्थदर्शी के प्रकाशक सूर्य को दिन करने के लिये बनाता और जो (मनुं प्रावत्) मननशील ज्ञानी को प्रेम करता, उसकी रक्षा करता है और उसको (दस्यवे अभीकं कः) दुष्ट पुरुष के नाश करने के लिये प्रबल करता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कश्यप ऋषिः॥ पवमानः सोमो देवता ॥ छन्दः- १ भुरिक त्रिष्टुप्। २, ४, ५ निचृत्त्रिष्टुप्। ३ विराट् त्रिष्टुप्। ६ त्रिष्टुप्॥ षडृचं सूक्तम्॥
विषय
सोमरक्षण व प्रभु प्राप्ति
पदार्थ
(पवमानस्य) = पवित्र करनेवाले सोम का (नु) = अब (तत्) = वह सर्वव्यापक [तनु विस्तारे] (सत्यं) = सत्यस्वरूप प्रभु (अस्तु) = हो, (यत्र) = जिसमें विश्वे सब (कारवः) = स्तोता लोग (संनसन्त) = संगत होते हैं। जिस प्रभु को स्तोता लोग प्राप्त करते हैं, उसे वस्तुतः यह सोम ही उन्हें प्राप्त कराता है। वह परमात्मा इस सोम का होता है, अर्थात् सोमरक्षण से प्राप्त होता है (यत्) = जो (अह्ने) = दिन के लिये (लोकं ज्योतिः) = प्रकाशक ज्योति को (अकृणोत्) = करता है, (मनुं प्रावत्) = ज्ञानशील मनुष्य का रक्षण करता है और इस ज्ञानी मनुष्य को (दस्यवे) = दास्यव वृत्तियों के लिये (अभीकं कः) = आक्रमण करनेवाला करता है। इस प्रभु को हम सोमरक्षण के द्वारा ही प्राप्त करते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- स्तोताओं को प्राप्त होनेवाला प्रभु वस्तुतः सोमरक्षण के द्वारा ही प्राप्त होता है। ये प्रभु हमारे लिये सूर्य के प्रकाश को करते हैं। ज्ञानी पुरुष का रक्षण करते हैं, और उसे दास्यव वृत्तियों पर आक्रमण करनेवाला बनाते हैं।
इंग्लिश (1)
Meaning
True it is of Soma, pure and purifying, Truth itself of Soma, wherein all basic causes of existence converge, merge and integrate: Soma it is who created the sun and light of knowledge for the day and enlightenment, which protects the man of thought and knowledge, which for the ignorant lost in darkness is but a distant possibility or even a cause for collision.
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात परमेश्वराच्या सद्रूपाचे वर्णन केलेले आहे व परमेश्वराला सर्व ज्योतींचा प्रकाशक मानलेले आहे. ॥५॥
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