यजुर्वेद - अध्याय 22/ मन्त्र 18
ऋषिः - अरुणत्रसदस्यू ऋषी
देवता - पवमानो देवता
छन्दः - पिपीलिकामध्या विराडनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
69
अजी॑जनो॒ हि प॑वमान॒ सूर्य्यं॑ वि॒धारे॒ शक्म॑ना॒ पयः॑।गोजी॑रया॒ रꣳह॑माणः॒ पुर॑न्ध्या॥१८॥
स्वर सहित पद पाठअजी॑जनः। हि। प॒व॒मा॒न। सूर्य॑म्। वि॒ऽधार॒ इति॑ वि॒ऽधारे॑। शक्म॑ना। पयः॑। गोजी॑र॒येति॒ गोऽजी॑रया। रꣳह॑माणः। पुर॒न्ध्येति॒ पुर॑म्ऽध्या ॥१८ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अजीजनो हि पवमान सूर्यँविधारे शक्मना पयः । गोजीरया रँहमाणः पुरन्ध्या ॥
स्वर रहित पद पाठ
अजीजनः। हि। पवमान। सूर्यम्। विऽधार इति विऽधारे। शक्मना। पयः। गोजीरयेति गोऽजीरया। रꣳहमाणः। पुरन्ध्येति पुरम्ऽध्या॥१८॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः सूर्यरूपोऽग्निः कीदृश इत्याह॥
अन्वयः
हे पवमानाग्निवत्पवत्र जन! योऽग्निः पुरन्ध्या रंहमाणः सूर्यमजीजनस्तं शक्मना गोजीरया पयश्चाऽहं विधारे हि॥१८॥
पदार्थः
(अजीजनः) जनयति (हि) खलु (पवमान) पवित्रकारक (सूर्यम्) सवितृमण्डलम् (विधारे) धारयामि (शक्मना) कर्मणा। शक्मेति कर्मनाम॥ (निघं॰२।१) (पयः) उदकम् (गोजीरया) गवां जीरया जीवनक्रियया (रंहमाणः) गच्छन् (पुरन्ध्या) यया पुरं दधाति तया॥१८॥
भावार्थः
यदि विद्युत्सूर्यस्य कारणं न स्यात् तर्हि सूर्योत्पत्तिः कथं स्याद्? यदि सूर्यो न स्यात् तर्हि भूगोलधृतिर्वृष्ट्या गवादिपशुजीवनं च कथं स्यात्?॥१८॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर सूर्यरूप अग्नि कैसा है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे (पवमान) पवित्र करने हारे अग्नि के समान पवित्र जन! तू अग्नि (पुरन्ध्या) जिस क्रिया से नगरी को धारण करता, उससे (रंहमाणः) जाता हुआ (सूर्यम्) सूर्य को (अजीजनः) प्रगट करता, उसको और (शक्मना) कर्म वा (गोजीरया) गौ आदि पशुओं की जीवनक्रिया से (पयः) जल को मैं (विधारे) विशेष करके धारण करता (हि) ही हूँ॥१८॥
भावार्थ
जो बिजुली सूर्य्य का कारण न होती तो सूर्य की उत्पत्ति कैसे होती? जो सूर्य न हो तो भूगोल का धारण और वर्षा से गो आदि पशुओं का जीवन कैसे हो?॥१८॥
विषय
तेजस्वी पुरुष की उत्पत्ति और उसका पृथ्वी के पालन का कर्तव्य ।
भावार्थ
हे ( पवमान) सबको पवित्र करने हारे विद्वन् ! अग्नि तत्व ( सूर्यम् ) सूर्य को उत्पन्न करता है उसी प्रकार तू ( सूर्यम् ) सूर्यवत् तेजस्वी पुरुष, राजा को (अजीजनः ) उत्पन्न करता है और सूर्य (गोजीरया) समस्त पृथ्वी लोक को जीवन देने और (पुरन्ध्या) पुर, देह, ब्रह्माण्ड को धारण पोषण करने वाली शक्ति से ( रंहमाण:) गति करता है ( शक्मना ) शक्ति से ( पयः) जल को ( विधारे) विशेष रूप से धारण करता है और उसी प्रकार (गोजीरया) गौ आदि पशुओं के जीवन देने वाली और ( पुरंध्या) पुर को धारण करने वाली राजनीति से (रहमाणः) चलता हुआ ( शक्मना) शक्ति से ( पयः) पोषक राष्ट्र को धारण करता है ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अरुणत्रसदस्यू ऋषी । पवमानो देवता । पिपीलिकमध्याकृतिः अनुष्टुप् । गांधारः ॥
विषय
अरुण-त्रसदस्यु
पदार्थ
१. हे (पवमान) = मेरे हृदय को पवित्र करनेवाले प्रभो ! (हि) = निश्चय से आप (सूर्यं अजीजन:) = मेरे मस्तिष्करूप द्युलोक में ज्ञान के सूर्य को उदित करते हैं । २. मैं आपके आदेश के अनुसार (शक्मना) = शक्ति के हेतु से (पयः) = दूध को विधारे धारण करता हूँ, अर्थात् दूध आदि पवित्र पदार्थों के सेवन से शक्ति को प्राप्त करने का प्रयत्न करता हूँ। ३. (गोजीरया) = [इमे लोका गौ:- शतपथ० ६।५।२।१७] समस्त लोकों को जीवन देनेवाली (पुरन्ध्या) = [ पुरं बहु दधाति] बहुतों को धारण करनेवाली शक्ति से (रहमाण:) = इस जीवन-यात्रा में मैं आगे-और-आगे बढ़ता हूँ। मेरे सब कार्य इन पृथिवीस्थ [गो] प्राणियों के मिलाने के हेतु से तथा बहुत के धारण के दृष्टिकोण से ही हों। ('यद्भूतहितमत्यन्तं तत्सत्यमिति धारणा') = जो अधिक-से-अधिक प्राणियों का हित है वही तो सत्य है। मेरे सब कार्य भी पृथिवीस्थ प्राणियों के जिलानेवाले व बहुत का धारण करनेवाले हों। ४. इस प्रकार मेरा सारा जीवन गतिशील व्यक्ति का जीवन हो [ॠ गतौ] मैं 'अरुण' बनूँ। मेरी इस 'गतिशीलता' से दास्यववृत्तियाँ मुझसे भयभीत होकर दूर ही रहें और मैं मन्त्र का ऋषि 'त्रसदस्यु' बनूँ ।
भावार्थ
भावार्थ- पवित्रता से ज्ञान दीप्त होता है। शक्ति के लिए हमें सात्त्विक दुग्ध आदि लोकों के प्राणियों के जीवन के उद्देश्य पदार्थों का प्रयोग करना है। हम सदा पृथिवी आदि से तथा बहुत के धारण के उद्देश्य से क्रियाओं को करनेवाले बनें।
मराठी (2)
भावार्थ
विद्युत हे सूर्याचे कारण नसते तर सूर्याची उत्पत्ती कशी झाली असती? जर सूर्य नसता तर भूगोलाची धारणा व वृष्टी कशी होऊ शकली असती? आणि गाई वगैरे पशूंचे अस्तित्त्व कसे टिकले असते?
विषय
पुढील मंत्रात सूर्यरूप अग्नी कसा आहे, याविषयी -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - हे (पवमान) पवित्र करणाऱ्या अग्नीप्रमाणे पवित्र असलेल्या हे पवित्र मनुष्या, जो अग्नी (पुरन्ध्या) नगरीला विशेष पद्धतीने धारण करीत आहे (विद्युत रूप अग्नी नगरांचा प्राणरूप आहे) त्या पद्धतीने (रंहमाणः) कार्य करीत (अग्नीचा उपयोग घेत) (सूर्यम्) सूर्याला (अजीजनः) प्रकट वा व्यक्त करतो (विद्युत अग्नी व सूर्यरूप अग्नी एकमेकाला पूरक होऊन समाजजीवनाला धारण करीत आहेत) त्याचप्रकारे मी (एक नागरिक) (शक्मना) कर्माद्वारो अथवा (गोजीरया) गौ आदी पशूंच्या जीवनचर्येद्वारे (पयः) जलाला मी (विधारे) विशेषत्वाने (हि) अवश्य धारण करतो. (सूर्य आणि विद्युतग्नी नगरास ऊर्जा देतात व नागरिकांनी पशुपालन आणि जलसंधारण क्रिया करावी) ॥18॥
भावार्थ
भावार्थ - जर विद्युत शक्ती सूर्याचे कारण नसती तर सूर्याची उत्पत्ती कशी झाली असती? अर्थात (विद्युतशक्ती ही सूर्याचे मूळ शक्तिस्तोत्र आहे) तसेच जर सूर्य नसता, तर भूगोलाचे (त्यावरील प्राण्यांचे) जीवन कसे राहिले असते? आणि वृद्धी न झाल्यामुळे गौ आदी पशंचे जगणे शक्य झाले असते का? अर्थातच ते अशक्य होते. ॥18॥
इंग्लिश (3)
Meaning
O purifying, pervading fire, thou hast verily manifested the sun, moving with the force that gives life to earth and cows, and sustains all ; and retains waters with its strength.
Meaning
Agni, universal energy, pure and purifying, faster than light, flowing as well as omnipresent, you create and hold the sun and, as is mission of the cow and the earth, with your own actions, bear the waters of sustenance for existence.
Translation
O purifier Lord, you have created the sun with your might for lifting water (in the space), that in its turn hastens in large streams for sustaining the life of animals. (1)
Notes
Pavamāna, O purifier Lord. Soma is also called pavamānaḥ Śakmanā, सामर्थ्येन, with your power. Vidhāre, विशेषेण धारयितुं, for lifting up and holding. Gojirayā, जीरा जीवनं, the life. गवां जीरा गोजीरा, the life of animals; with that life of animals. Ramhamāṇaḥ, moving quickly. Purandhyā, पुरं ददधाति इति पुरंधि: धारा , one that sustains the town, the stream of water.
बंगाली (1)
विषय
পুনঃ সূর্য়রূপোऽগ্নিঃ কীদৃশ ইত্যাহ ॥
পুনঃ সূ্র্য্যরূপ অগ্নি কেমন, এই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- হে (পবমান) পবিত্রকারী অগ্নিসমান পবিত্র ব্যক্তি! তুমি অগ্নি (পুরন্ধ্যা) যে ক্রিয়া দ্বারা নগরীকে ধারণ কর তদ্দ্বারা (রহমানঃ) গমনশীল (সূর্য়ম্) সূর্য্যকে (অজীজনঃ) প্রকট কর তাহাকে এবং (শক্মনা) কর্ম্ম অথবা (গোজীরয়া) গাভি আদি পশুদিগের জীবনক্রিয়া দ্বারা (পয়ঃ) জলকে আমি (বিধারে) বিশেষ করিয়া ধারণ করি (হি) ই ॥ ১৮ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- যদি বিদ্যুৎ সূর্য্যের কারণ না হইত, তবে সূর্য্যের উৎপত্তি কী করিয়া হইত, যদি সূর্য্য না হইত, তবে ভূগোলের ধারণ ও বর্ষা দ্বারা গাভি আদি পশুদের জীবন কেমন হইত? ॥ ১৮ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
অজী॑জনো॒ হি প॑বমান॒ সূর্য়্যং॑ বি॒ধারে॒ শক্ম॑না॒ পয়ঃ॑ ।
গোজী॑রয়া॒ রꣳহ॑মাণঃ॒ পুর॑ন্ধ্যা ॥ ১৮ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
অজীজন ইত্যস্যারুণত্রসদসূ্য ঋষী । পবমানো দেবতা । পিপীলিকামধ্যা বিরাডনুষ্টুপ্ ছন্দঃ । গান্ধারঃ স্বরঃ ॥
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