यजुर्वेद - अध्याय 22/ मन्त्र 7
ऋषिः - प्रजापतिर्ऋषिः
देवता - प्राणादयो देवताः
छन्दः - निचृदत्यष्टिः, स्वराडत्यष्टिः
स्वरः - गान्धारः
89
हि॒ङ्का॒राय॒ स्वाहा॒ हिङ्कृ॑ताय॒ स्वाहा॒ क्रन्द॑ते॒ स्वाहा॑ऽवक्र॒न्दाय॒ स्वाहा॒ प्रोथ॑ते॒ स्वाहा॑ प्रप्रो॒थाय॒ स्वाहा॑ ग॒न्धाय॒ स्वाहा॑ घ्रा॒ताय॒ स्वाहा॒ निवि॑ष्टाय॒ स्वाहोप॑विष्टाय॒ स्वाहा॒ सन्दि॑ताय॒ स्वाहा॒ वल्ग॑ते॒ स्वाहासी॑नाय॒ स्वाहा॒ शया॑नाय॒ स्वाहा॒ स्वप॑ते॒ स्वाहा॒ जाग्र॑ते॒ स्वाहा॒ कूज॑ते॒ स्वाहा॒ प्रबु॑द्धाय॒ स्वाहा॑ वि॒जृम्भ॑माणाय॒ स्वाहा॒ विचृ॑ताय॒ स्वाहा॒ सꣳहा॑नाय॒ स्वाहोप॑स्थिताय॒ स्वाहाऽय॑नाय॒ स्वाहा॒ प्राय॑णाय॒ स्वाहा॑॥७॥
स्वर सहित पद पाठहिं॒का॒रायेति॑ हिम्ऽका॒राय॑। स्वाहा॑। हिं॑कृता॒येति॒ हिम्ऽकृ॑ताय। स्वाहा॑। क्रन्द॑ते। स्वाहा॑। अ॒व॒क॒न्दायेत्य॑वऽक्र॒न्दाय॑। स्वाहा॑। प्रोथ॑ते। स्वाहा॑। प्र॒प्रो॒थायेति॑ प्रऽप्रो॒थाय॑। स्वाहा॑। ग॒न्धाय॑। स्वाहा॑। घ्रा॒ताय॑। स्वाहा॑। निवि॑ष्टायेति॒ निऽवि॑ष्टाय। स्वाहा॑। उप॑विष्टा॒येत्युप॑ऽविष्टाय। स्वाहा॑। सन्दि॑ता॒येति॒ सम्ऽदि॑ताय। स्वाहा॑। वल्ग॑ते। स्वाहा॑। आसी॑नाय। स्वाहा॑। शया॑नाय। स्वाहा॑। स्वप॑ते। स्वाहा॑। जाग्र॑ते। स्वाहा॑। कूज॑ते। स्वाहा॑। प्रबु॑द्धायेति॒ प्रऽबु॑द्धाय। स्वाहा॑। वि॒जृम्भ॑माणा॒येति॑ वि॒ऽजृम्भ॑माणाय। स्वाहा॑। विचृ॑ता॒येति॒ विऽचृ॑ताय। स्वाहा॑। सꣳहाना॒येति॒ सम्ऽहा॑नाय। स्वाहा॑। उप॑स्थिता॒येत्युप॑ऽस्थिताय। स्वाहा॑। आय॑ना॒येत्या॒ऽअय॑नाय। स्वाहा॑। प्राय॑णाय। प्राय॑ना॒येति॑ प्र॒ऽअ॑यनाय। स्वाहा॑ ॥७ ॥
स्वर रहित मन्त्र
हिङ्काराय स्वाहा हिङ्कृताय स्वाहा क्रन्दते स्वाहावक्रन्दाय स्वाहा प्रोथते स्वाहा प्रप्रोथाय स्वाहा गन्धाय स्वाहा घ्राताय स्वाहा निविष्टाय स्वाहोपविय स्वाहा सन्दिताय स्वाहा वल्गते स्वाहासीनाय स्वाहा शयानाय स्वाहा स्वपते स्वाहा जाग्रते स्वाहा कूजते स्वाहा प्रबुद्धाय स्वाहा विजृम्भमाणाय स्वाहा विचृत्ताय स्वाहा सँहानाय स्वाहोपस्थिताय स्वाहायनाय स्वाहा प्रायणाय स्वाहा ॥
स्वर रहित पद पाठ
हिंकारायेति हिम्ऽकाराय। स्वाहा। हिंकृतायेति हिम्ऽकृताय। स्वाहा। क्रन्दते। स्वाहा। अवकन्दायेत्यवऽक्रन्दाय। स्वाहा। प्रोथते। स्वाहा। प्रप्रोथायेति प्रऽप्रोथाय। स्वाहा। गन्धाय। स्वाहा। घ्राताय। स्वाहा। निविष्टायेति निऽविष्टाय। स्वाहा। उपविष्टायेत्युपऽविष्टाय। स्वाहा। सन्दितायेति सम्ऽदिताय। स्वाहा। वल्गते। स्वाहा। आसीनाय। स्वाहा। शयानाय। स्वाहा। स्वपते। स्वाहा। जाग्रते। स्वाहा। कूजते। स्वाहा। प्रबुद्धायेति प्रऽबुद्धाय। स्वाहा। विजृम्भमाणायेति विऽजृम्भमाणाय। स्वाहा। विचृतायेति विऽचृताय। स्वाहा। सꣳहानायेति सम्ऽहानाय। स्वाहा। उपस्थितायेत्युपऽस्थिताय। स्वाहा। आयनायेत्याऽअयनाय। स्वाहा। प्रायणाय। प्रायनायेति प्रऽअयनाय। स्वाहा॥७॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्मनुष्यैर्जगत् कथं शोधनीयमित्याह॥
अन्वयः
यैर्मनुष्यैर्हिंकाराय स्वाहा हिंकृताय स्वाहा क्रन्दते स्वाहाऽवक्रन्दाय स्वाहा प्रोथते स्वाहा प्रप्रोथाय स्वाहा गन्धाय स्वाहा घ्राताय स्वाहा निविष्टाय स्वाहोपविष्टाय स्वाहा संदिताय स्वाहा वल्गते स्वाहाऽऽसीनाय स्वाहा शयानाय स्वाहा स्वपते स्वाहा जाग्रते स्वाहा कूजते स्वाहा प्रबुद्धाय स्वाहा विजृम्भमाणाय स्वाहा विचृताय स्वाहा संहानाय स्वाहोपस्थिताय स्वाहाऽयनाय स्वाहा प्रायणाय स्वाहा क्रियन्ते तैर्दुःखानि वियोज्य सुखानि लभ्यन्ते॥७॥
पदार्थः
(हिंकाराय) यो हिं करोति तस्मै (स्वाहा) (हिंकृताय) हिं कृतं येन तस्मै (स्वाहा) (क्रन्दते) आह्वानं रोदनं वा कुर्वते (स्वाहा) (अवक्रन्दाय) नीचैः कृताह्वानाय (स्वाहा) (प्रोथते) पर्याप्ताय (स्वाहा) (प्रप्रोथाय) अत्यन्तं पर्याप्ताय (स्वाहा) (गन्धाय) (स्वाहा) (घ्राताय) योऽघ्रायि तस्मै (स्वाहा) (निविष्टाय) यो निविशते तस्मै (स्वाहा) (उपविष्टाय) य उपविशति तस्मै (स्वाहा) (संदिताय) यः सम्यग् दीयते खण्ड्यते तस्मै (स्वाहा) (वल्गते) गच्छते (स्वाहा) (आसीनाय) स्थिताय (स्वाहा) (शयानाय) शेते तस्मै (स्वाहा) (स्वपते) प्राप्तसुषुप्तये (स्वाहा) (जाग्रते) (स्वाहा) (कूजते) अप्रकटशब्दोच्चारकाय (स्वाहा) (प्रबुद्धाय) प्रकृष्टज्ञानवते (स्वाहा) (विजृम्भमाणाय) विशेषेणाङ्गविनामकाय (स्वाहा) (विचृताय) ग्रन्थकाय (स्वाहा) (संहानाय) संहन्यते यस्मिंस्तस्मै (स्वाहा) (उपस्थिताय) प्राप्तसमीपत्वाय (स्वाहा) (आयनाय) समन्ताद् विज्ञानाय (स्वाहा) (प्रायणाय) (स्वाहा)॥७॥
भावार्थः
मनुष्यैरग्निहोत्रादियज्ञे यावद्धूयते तावत्सर्वं प्राणिनां सुखकारकं भवति॥७॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर मनुष्यों को जगत् कैसे शुद्ध करना चहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
जिन मनुष्यों ने (हिंकाराय) जो हिं ऐसा शब्द करता है, उसके लिये (स्वाहा) उत्तम क्रिया (हिंकृताय) जिसने हिं शब्द किया उसके लिये (स्वाहा) उत्तम क्रिया (क्रन्दते) बुलाते वा रोते हुए के लिये (स्वाहा) उत्तम क्रिया (अवक्रन्दाय) नीचे होकर बुलाने वाले के लिये (स्वाहा) उत्तम क्रिया (प्रोथते) सब कर्मों में परिपूर्ण के लिये (स्वाहा) उत्तम क्रिया (प्रप्रोथाय) अत्यन्त पूर्ण के लिये (स्वाहा) उत्तम क्रिया (गन्धाय) सुगन्धित के लिये (स्वाहा) उत्तम क्रिया (घ्राताय) जो सूंघा गया उसके लिये (स्वाहा) उत्तम क्रिया (निविष्टाय) जो निरन्तर प्रवेश करता बैठता है, उसके लिये (स्वाहा) उत्तम क्रिया (उपविष्टाय) जो बैठता उसके लिये (स्वाहा) उत्तम क्रिया (संदिताय) जो भलीभांति दिया जाता उसके लिये (स्वाहा) उत्तम क्रिया (वल्गते) जाते हुए के लिये (स्वाहा) उत्तम क्रिया (आसीनाय) बैठे हुए के लिये (स्वाहा) उत्तम क्रिया (शयानाय) सोते हुए के लिए (स्वाहा) उत्तम क्रिया (स्वपते) नींद जिस को प्राप्त हुई उसके लिये (स्वाहा) उत्तम क्रिया (जाग्रते) जागते हुए के लिये (स्वाहा) उत्तम क्रिया (कूजते) कूजते हुए के लिए (स्वाहा) उत्तम क्रिया (प्रबुद्धाय) उत्तम ज्ञान वाले के लिये (स्वाहा) उत्तम क्रिया (विजृम्भमाणाय) अच्छे प्रकार जंभाई लेने के लिए (स्वाहा) उत्तम क्रिया (विचृताय) विशेष रचना करने वाले के लिये (स्वाहा) उत्तम क्रिया (संहानाय) जिससे संघात पदार्थों का समूह किया जाता, उसके लिये (स्वाहा) उत्तम क्रिया (उपस्थिताय) समीपस्थित हुए के लिये (स्वाहा) उत्तम क्रिया (आयनाय) अच्छे प्रकार विशेष ज्ञान के लिये (स्वाहा) उत्तम क्रिया तथा (प्रायणाय) पहुंचाने हारे के लिये (स्वाहा) उत्तम क्रिया की, उन मनुष्यों को दुःख छूट के सुख प्राप्त होते हैं॥७॥
भावार्थ
मनुष्यों से अग्निहोत्र आदि यज्ञ में जितना होम किया जाता है, उतना सब प्राणियों के लिये सुख करने वाला होता है॥७॥
भावार्थ
(हिंकाराय स्वाहा ) 'हिं' ऐसा शब्द करने वाले साम गायक विद्वान् का, राजा का, (हिंकृताय ) 'हिं' कर चुकने वाले विद्वान् का (स्वाहा ) आदर करो । और अश्व प्राणी का उपयोग करो । बज्रो हिङ्कारः । कौ० ३ । २ ॥ हिङ्कारेण वज्रेण अस्माल्लोकादसुराननुदत् । जै० उ० २ । ८ । ३ ॥ अर्थात् वज्र को धारण करने वाले राजा शासक का आदर करो । शुक्लमेव हिंकारः । जै० उ० १ । ३ । ४ । १ ॥ उत्तम धर्म कार्य करने वाले धर्मात्मा का आदर करो। प्राणो वै हिंकारः । श० ४ । २ । २ । ११ ॥ प्राण साधक और प्राण विद्या जानने वाले का आदर करो। प्रजापतिर्वै हिंकारः । तां० ६।८।५ ॥ प्रजा के पालक पुरुष का आदर करो । प्रजा के भूतपूर्व पालक की भी प्रतिष्ठा करो । ( कन्दते स्वाहा अव- क्रन्द्राय स्वाहा ) शत्रु को ललकारने वाले, विद्वानों को बुलाने वाले और ललकारने वाले को दबाने वाले राजा का, आदर करो। (प्रोथते स्वाहा प्रप्रोथाय स्वाहा ) पदार्थों को स्वतः प्राप्त करने वाले, उत्कृष्ट कोटि के धनैश्वर्यादि प्राप्त करने वाले का आदर करो । ( गन्धाय स्वाहा घ्राताय स्वाहा ) गन्ध लेने वाले और गन्धादि के अनुभवी, पुरुष का भी आदर करो । ( निविष्टाय स्वाहा ) छावनी या बस्ती बसाकर बैठे हुए और (उपविष्टाय ) 'आसन वृत्ति' से नीतिपूर्वक विराजने वाले राजा का आदर करो । पूज्य पुरुष लेटा हो या बैठा हो उसका भी आदर करो। (संतिताय स्वाहा ) शत्रुओं को काटने वाले या न्यायपूर्वक विभाग करने वाले का आदर करो | (बल्गते स्वाहा) गमन करते हुए या आतिथ्य सत्कार करते हुए, उत्तम उपदेश करने वाले पुरुष का आदर करो । ( आसीनाय स्वाहा ) बैठे हुए का आदर करो । ( शयानाय स्वाहा ) सोते हुए का आदर करो | (स्वपते जाग्रते, कूजते स्वाहा ) सोते हुए, जागते हुए, तन्द्रा में कुछ कहते हुए का भी आदर करो । ( प्रबुद्धाय विजृम्भमाणाय, विचृताय स्वाहा ) अच्छी तरह से जागे हुए, जम्भाई लेते हुए, व्रत नियम आदि के बन्धन से युक्त होते हुए का भी आदर करो। (संहानाय स्वाहा ) बिस्तर त्यागते हुए का आदर करो । (उपस्थिताय स्वाहा ) सभाभवन में उपस्थित हुए का, (अपानाय ) मार्ग से जाते हुए का ( प्रायणाय ) विशेष रूप से जाते हुए का भी (स्वाहा ) आदर करो ॥ ७ ॥
टिप्पणी
१ हिङ्काराय । २ सीनाय । प्रक्रमहोमाय एकोनपञ्चाशत्।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
( १, २ ) अत्यष्टिः । गान्धारः ।
विषय
उनन्चास मरुत
पदार्थ
१. छठे मन्त्र के अनुसार स्वार्थत्याग करने पर व प्रभु के प्रति अपना अर्पण करने पर अग्नि आदि तत्त्वों के शरीर में विकसित होने का उल्लेख था। अब सातवें व आठवें मन्त्र में उसी प्रकार स्वार्थत्याग से व प्रभु के प्रति अर्पण से शरीर में उननचास मरुतों व प्राणभेदों के ठीक से कार्य चलने का उल्लेख करते हैं। शरीर में ये प्राणवायु भिन्न-भिन्न रूप में होकर सारे शरीर की विविध क्रियाओं को सिद्ध करती है। ये भेद उननचास हैं-अतः ये प्राण= मरुत उननचास कहलाते हैं। इन उननचास मरुतों की क्रियाओं का वर्णन करते हुए कहते हैं कि १. (हिङ्काराय स्वाहा) = [शुक्लमेव हिङ्कारः । जै०उ० १।३४।१] अपने जीवन को शुक्ल बनाने के लिए मैं स्वार्थत्याग करता हूँ। स्वार्थ ही मलिनता है। इसके त्याग से मेरा जीवन शुद्ध होता है। उठने पर सबसे पूर्व शोधन ही आवश्यक होता है, अत: इस शोध से ही मन्त्र को प्रारम्भ किया गया है। 'प्राणो वै हिङ्कारः' [श० ४।२।२।११] । प्राणशक्ति की वृद्धि के लिए मैं स्वार्थभाव से ऊपर उठता हूँ। स्वार्थभाव में भोगप्रवणता बढ़ती है और प्राणशक्ति का ह्रास होता है। 'वज्रो हिङ्कारः' [कौ० ३।२ ] । प्राणशक्ति की वृद्धि के द्वारा मैं अपने इस शरीर को वज्रतुल्य बनाता हूँ। २. (हिङ्कृताय स्वाहा) = जिसने अपना शोधन कर लिया है, प्राणशक्ति की वृद्धि की है तथा शरीर को वज्रतुल्य बनाया है, उसके लिए हम [सु+आह] शुभ शब्द बोलते हैं, प्रशंसात्मक शब्द कहते हैं । ३. (क्रन्दते) = [क्रदि आह्वाणे] प्रभु को पुकारनेवाले का स्वाहा-हम आदर करते हैं । ४. (अवक्रन्दाय) = प्रभु को नीचे-अपने अन्दर बुलाने के लिए हम स्वाहा स्वार्थत्याग करते हैं। प्रातः उठकर शोधन की प्रक्रिया के बाद प्रभु का स्मरण व स्तवन ही चलना चाहिए। इस प्रभु के आह्वान से हमें शुद्ध बनने में सहायता मिलती है । ५. (प्रोथते) = [ प्रोथ पर्यापणे subdue, overcome] प्रभु स्मरण के द्वारा कामादि शत्रुओं का विजय करनेवाले के लिए हम स्वाहा आदर के शब्द बोलते हैं। ६. (प्रप्रोथाय स्वाहा) = वासना - विजय के प्रकृष्ट कार्य के लिए, इन शत्रुओं को जीतने की क्षमता प्राप्त करने के लिए मैं स्वार्थत्याग करता हूँ। ७. अब प्रभु स्मरण के पश्चात् स्वाध्याय का क्रम आता है। उस स्वाध्याय में मैं विज्ञान के साथ अपना सम्बन्ध स्थापित करता हूँ अथवा विज्ञान के द्वारा प्रभु के साथ सम्बन्ध जोड़ता हूँ। इस (गन्धाय स्वाहा) = ज्ञान की गन्ध के लिए मैं स्वार्थत्याग करता हूँ। स्वार्थ से ऊपर उठकर ही मैं अपनी बुद्धि को शुद्ध करता हूँ और अपने में ज्ञान का सम्बन्ध कर पाता हूँ। ८. (घ्राताय स्वाहा) = इस ज्ञान-गन्ध का ग्रहण करनेवाले के लिए मैं आदरभाव धारण करता हूँ। ९. स्वाध्यायानन्तर निविष्टाय-अपने कार्यों में लग जानेवाले पुरुष के लिए मैं (स्वाहा) = शुभ शब्द बोलता हूँ। १०. इन कार्यों को करते समय (उपविष्टाय स्वाहा) = सदा प्रभु के समीप स्थित के लिए मैं आदर के शब्द कहता हूँ। ११. इन कार्यों को करते हुए (सन्दिताय स्वाहा) = [सम्यक् दितं खण्डनं यस्य सः] वासनाओं व आलस्य की भावना का सम्यक् खण्डन करनेवाले के लिए हम आदर करते हैं। १२. (वल्गते स्वाहा) = आलस्य को छोड़कर मधुरता से गति करते हुए का हम आदर करते हैं। १३. आसीनाय स्वाहा कर्म करने के बाद अब आराम के लिए बैठे हुए के लिए हम शुभ शब्द बोलते हैं। १४. (शयानाय स्वाहा) = लेटनेवाले के लिए हम शुभ शब्द बोलते हैं। १५. (स्वपते स्वाहा) = सोनेवाले के लिए हम शुभ शब्द कहते हैं । १६. अब सोने के बाद (जाग्रते स्वाहा) = जागनेवाले के लिए हम शुभ शब्द बोलते हैं । १७. (कूजते स्वाहा) = जागने के बाद अव्यक्त रूप में, मानस जप के रूप में प्रभु के नामों का उच्चारण करनेवाले का हम आदर करते हैं १८. (प्रबुद्धाय स्वाहा) = अब खूब अच्छी प्रकार जागरित हो गये के लिए हम प्रशंसात्मक शब्द कहते हैं। १९. (विजृम्भमाणाय स्वाहा) = अब गात्रों का विविध नयन करनेवाले के लिए, अर्थात् सब अङ्ग-प्रत्यङ्गों को फैलानेवाले के लिए हम शुभ शब्द बोलते हैं । २०. (विचृताय) = [ चृती दीप्तौ ] गात्रविनाम के द्वारा दीप्त होनेवाले का हम आदर करते हैं । २१. (संहानाय) = 'अत्रा जहाम अशिवा ये असन्' इस मन्त्रभाग की भावना के अनुसार अशिव को छोड़नेवाले का हम आदर करते हैं। २२. (उपस्थिताय स्वाहा) = अशुभ को छोड़कर प्रभु के समीप पहुँचे हुए का हम आदर करते हैं। २३. (अयनाय स्वाहा) = [अयते] प्रभु की ओर जानेवाले का हम आदर करते हैं । २४. (प्रायणाय स्वाहा) = [प्रकृष्टमयते] सदा प्रकृष्ट मार्ग से जानेवाले का हम आदर करते हैं। २५. (यते स्वाहा) = गतिशील का हम आदर करते हैं। २६. (धावते स्वाहा) = गतिशीलता के द्वारा अपना शोधन करनेवाले का हम आदर करते हैं । २७. (उद्भावाय स्वाहा) = उत्कृष्ट गतिवाले का हम आदर करते हैं । २८. (उद्द्रुताय) = जो विषयों से (उत्) = ऊपर [out] उठ गया है, उसका हम आदर करते हैं। २९. (शूकाराय स्वाहा) = शीघ्रता से कार्यों को करनेवाले के लिए हम शुभ शब्द कहते हैं । ३०. (शूकृताय स्वाहा) = शीघ्रता से शिक्षित हुए का हम आदर करते हैं । ३१. (निषण्णाय) = अपने कार्यों में निश्चित रूप से स्थित का हम आदर करते हैं। ३२. (उत्थिताय स्वाहा) = उठ खड़े हुए के लिए, अर्थात् सदा कार्यों में उद्युक्त का हम आदर करते हैं । ३३. (जवाय) = वेगवान् के लिए, क्रियाओं में गतिवाले का हम आदर करते हैं । ३४. (बलाय स्वाहा) = क्रियाओं में सतत वेग के द्वारा उत्पन्न बल के लिए हम स्वार्थत्याग करते हैं। आलस्य आराम को छोड़कर प्रबलता से कर्मों को करनेवाला ही सबल बनता है। ३५. (विवर्त्तमानाय) = विशिष्ट रूप से क्रियाओं में चेष्टा करनेवाले का हम आदर करते हैं। ३६. (विवृत्ताय) = विशिष्ट वर्तन के कारण जो उत्कृष्ट चरित्रवाला बना है [विशिष्टं वृतं यस्य ] उसके लिए हम आदर करते हैं । ३७. (विधूवानाय स्वाहा) जो विशिष्ट वृत्तवाला बनकर बुराइयों को अपने से कम्पित करके दूर कर रहा है, उसके लिए शुभ शब्द कहते हैं । ३८. (विधूताय स्वाहा) = बुराइयों को कम्पित करते हुए जो 'विधूतपाप्मा' बन गया है, उसका हम आदर करते हैं। ३९. (शुश्रूषमाणाय स्वाहा) = विधूतपाप्मा बनने के लिए गुरुओं का उपदेश सुनने की इच्छावालों का तथा गुरुओं का उपासन करनेवाले का हम आदर करते हैं। ४०. (शृण्वते स्वाहा) = गुरुओं के उपदेश को सुननेवाले का लिए हम आदर करते हैं। ४१. (ईक्षमाणाय स्वाहा) = ज्ञान प्राप्ति के लिए प्रकृति का सूक्ष्मता से निरीक्षण करनेवाले का हम आदर करते हैं। ४२. (ईक्षिताय स्वाहा) = प्रकृति के तत्त्वों के द्रष्टा का हम आदर करते हैं। ४३. (वीक्षिताय स्वाहा) = वीक्षित का ठीक conecption बनानेवाले का हम आदर करते हैं। ४४. इस प्रकृति - निरीक्षण के बाद (निमिषाय स्वाहा) = आँख आदि के व्यापार को रोककर अन्तःस्थित आत्मतत्त्व को देखनेवाले का हम आदर करते हैं। ४५. (यत् अत्ति तस्मै स्वाहा) = आत्मज्ञान की प्राप्ति के लिए शरीर को स्वस्थ रखने के उद्देश्य से जो खाता है, सात्त्विक भोजन करता है, अन्न का सेवन करता है उसका हम आदर करते हैं। ४६. (यत् पिबति तस्मै स्वाहा) = इसी उद्देश्य से जो सात्त्विक दूध आदि का पान करता है, उसका हम आदर करते हैं। ४७ (यत् मूत्रं करोति तस्मै स्वाहा) = शरीर में से मूत्र आदि के क्षार मलांश को दूर करनेवाले प्राण का हम आदर करते हैं । ४८. (कुर्वते स्वाहा) = शोधनकार्य को करते हुए का हम आदर करते हैं और ४९. (कृताय स्वाहा) = मलादि के शोधनकार्य को कर चुके प्राण के लिए हम शुभ शब्द बोलते हैं। इस प्रकार की प्रशंसा करते हुए उसे प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील होते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- हमारे शरीरों में प्राण के ४९ भेद भिन्न-भिन्न कार्य करते हैं। उन्हीं से अङ्ग-प्रत्यङ्ग के सब कार्य चलते हैं । प्राणों की क्रिया से ही स्वास्थ्य व सुबुद्धि प्राप्त होती है, अतः विविध रूपों में उल्लिखित इन सब कार्यों को करते हुए प्राणों के लिए हम प्रशंसात्मक शब्द कहते हैं।
मराठी (2)
भावार्थ
माणसे अग्नीहोत्रात जितक्या आहुती देतात तितक्या त्या सर्व प्राण्यांना सुखदायक ठरतात.
विषय
मनुष्यांनी या जगाला (जगाच्या वातावरणाला) कशाप्रकारे शुद्ध वा सुखकर केले पाहिजे, याविषयी पुढील मंत्रात सांगितले आहे -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - जे लोक (हिंकाराय) हिं हिं असा ध्वनी उच्चारणाऱ्या (घोडा आदी) प्राण्यांसाठी) (स्वाहा) उत्तम क्रिया करतात (पालन, प्रशिक्षण, रणकौशल्य आदी दृष्टीने उपयोगी बनतात) तसेच जे लोक (हिंकृताय) ज्यानें हिं हिं शब्द केले (त्या प्राणी विशेष अथवा श्रमिकजनासाठी) (स्वाहा) उत्तम क्रिया करतात (त्यांना सुख का मिळूं नये? म्हणजे सुख मिळणार, हे निश्चित) जे लोक (क्रन्दते) (संकटकाळी मदतीसाठी ओरडणाऱ्या) अथवा दुःखामुळे रुदन, आक्रोश करणाऱ्या मनुष्यांसाठी (स्वाहा) उत्तम मदत कार्य करतात आणि (आक्रन्दाय) (अगदी हतबल वा निराश होऊन) हाका मारणाऱ्या माणसासठी (स्वाहा) श्रेष्ठ हितकर कर्म करतात (त्यांना सुख का मिळूं नये?) (प्रोथते) सर्व कामांमधे परिपूर्णत्व प्राप्त करण्यासाठी जे लोक (स्वाहा) उत्तम कर्म करतात, तसेच जे (प्रपोथाय) अत्यंत परिपूर्णत्वासाठी झटपट (त्यांना सुख का मिळूं नये?) - (गन्धाय) सुगंध (निर्मितीसाठी वा प्रसारणासाठी जे लोक (स्वाहा) उत्तम कर्म करतात आणि जे (घ्राताय) वास घेणाऱ्या व्यक्तीसाठी अथवा सुवासासाठी (स्वाहा) उत्तम कर्म करतात (त्यांना सुख अवश्य मिळते) - जे लोक (निविष्टाय) जो (घरात वा आश्रमात) प्रविष्ट होऊन निरंतर तिथेच वास्तव्य करतो, त्या (गृहस्थ वा आश्रमस्य जनांसाठी) (स्वाहा) उत्तम क्रिया करतात, तसेच जे (उपविष्टाय) लोक बसलेल्या (वा निराश्रितासाठी) (स्वाहा) उत्तम कर्म (मदत वा आधार) करतात. (ते अवश्य सुखी होतात) - (संदिताय) जे पदार्थ (दान म्हणून दिले जातात, त्यांच्याविषयी (स्वाहा) उत्तम क्रिया करतात (देव वा उपभोग्य पदार्थांना अधिक उपयोगी करतात) तसेच (वल्गते) जाणाऱ्यासाठी (स्वाहा) उत्तम कर्म करतात (ते अवश्य सुखी होतात) जे लोक (आसीनाय) बसलेल्यासाठी (स्वाहा) उत्तम क्रिया तसेच (शयानाय) झोपणाऱ्या नुसते पडून राहलेल्या (स्वाहा) (अपंग, लुळे-पांगळे वा बेसावध असलेल्यासाठी (स्वाहा) उत्तम हितकारी क्रिया करतात (ते सुखी होतात) - (स्वपते) झोपलेल्यासाठी (स्वाहा) उत्तम क्रिया आणि (जाग्रते) जागृत असणाऱ्यासाठी (हुशार माणसासाठीदेखील) जे लोक (स्वाहा) उत्तम क्रिया करतात (ते सुखी होतात) (कूजते) कूजन वा गायन करणाऱ्यासाठी (स्वाहा) तसेच (प्रबुद्धाय) विशेषत्वाने जागृत व बुद्धिमान असणाऱ्यासाठी जे लोक (स्वाहा) उत्तम क्रिया (मदत, सहकार्य, प्रेरणादी) करतात (ते सुखी होतात) (विजृम्भमाणाय) चांगल्याप्रकारे वा निश्चिंतपणे आळस देत असलेल्या (किंचित बेसावध) व्यक्तीसाठी (स्वाहा) तसेच (विचृताय) विशेष लक्ष देऊन विशिष्ट रचना करीत असलेल्या (कार्मिक, चित्रकार, लेखन कलाकार आदी) व्यक्तीसाठी जे लोक (स्वाहा) उत्तम क्रिया करतात (ते अवश्य सुखी होतात) - (संहानाय) ज्या पदार्थापासून विशिष्ट संघात वा समूह तयार केले जातात (उदाहरणार्थ - मातीपासून घागर, दिवे वा पितळ आदी धातूपासून तांब्या, वाटी आदी संघटित पदार्थ) या पदार्थांवर जे लोक (स्वाहा) उत्तम प्रक्रिया करतात (ते सुखी होतात) जे लोक (उपस्थिताय) जवळ असलेल्यासाठी (स्वाहा) उत्तम क्रिया करतात, तसेच (आयनाय) चांगल्या पद्धतीने विशेष ज्ञान प्राप्त करण्यासाठी जे लोक (स्वाहा) उत्तम प्रयोगादी (अणूंपासून ऊर्जा) सारख्या उत्तम क्रिया करतात आणि जे (प्रायणाय) ते पदार्थ वाहून नेणाऱ्या वा योग्य ठिकाणी पोहचविण्यासाठी कार्य करतात, त्यांच्यासाठी जे लोक (स्वाहा) उत्तम प्रक्रिया करतात, ते लोक दुःखांना दूर लोटून अवश्यमेव सुखमात्र प्राप्त करतात ॥7॥
भावार्थ
भावार्थ - यज्ञकर्ता मनुष्य अग्निहोत्र आदी यज्ञांमधे ज्या पदार्थांचा होम करतात वा यज्ञाग्नीत टाकतात, ते ते आहुत पदार्थ सर्व प्राण्यांकरिता सुखदायक होतात ॥7॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Reverence for him who recites the Sama Veda. Reverence for him who has recited the Sama Veda. Reverence for the warrior who challenges the foe. Reverence for the victor who welcomes the -learned. Reverence for him accomplished in all actions. Reverence for the most accomplished. Reverence for him fond of perfume. Reverence for the perfumed. Reverence for him who builds a cantonment and resides therein. Reverence for him who sits in a yogic posture. Reverence for him who tears asunder the foes. Reverence for the learned guest who keeps moving. Reverence for the elders while sitting and sleeping. Reverence for the elders fast asleep, waking and warbling. Reverence for a man of knowledge. Reverence for the elder yawning. Reverence for the architect. Reverence for him who makes a collection of curiosities. Reverence for the neighbours. Reverence for supreme knowledge. Reverence for him who imparts knowledge.
Meaning
Reverence to the singer of Samans, reverence to him who has done the singing, reverence to the loud challenger, reverence to the soft singer, reverence to the man of accomplishment, reverence to the specialist, value for fragrance, welcome to the fragrant, reverence to the securely seated, reverence to the close-by friends and yogis in posture, thanks for what is well-given, reverence for the one on the move, reverence for the sitting, reverence for the sleeping, care for the one in deep sleep, welcome to the waking one, love for the humming one, rest for the yawning one, reverence for the shining, reverence for the strong and well-built, reverence for the close neighbours, reverence for the knowledgeable, reverence for the scholars of special knowledge. (Those who welcome, respect and reverence the others are fortunate and blessed. )
Translation
Svaha to the hin sound. (1) Svaha to him, that has made hin sound. (2) Svaha to the crying. (3) Svaha to the low crying. (4) Svaha to the snorting. (5) Svaha to the loud snorts. (6) Svaha to the smell. (7) Svaha to him, that smells. (8) Svaha to him, that enters. (9) Svaha to him, that sits down. (10) Svaha to him, that is departing. (11) Svaha to him, that is walking. (12) Svaha to him, that is seated. (13) Svaha to him, that is lying down. (14) Svaha to him, that is sleeping. (15) Svaha to him, that is awake. (16) Svaha to him, that is making sweet low sounds. (17) Svaha to him, that is aroused. (18) Svaha to him, that is yawning. (19) Svaha to him, that is outshining. (20) Svaha to him, that is crouching. (21) Svaha to him, that is standing by. (22) Svaha to him, that is poing. (23) Svaha to him, that is going extremely well. (24)
Notes
and 8. Enumeration of various actions of a horse.
बंगाली (1)
विषय
পুনর্মনুষ্যৈর্জগৎ কথং শোধনীয়মিত্যাহ ॥
পুনঃ মনুষ্যদিগকে জগৎ কীভাবে শুদ্ধ করা উচিত, এই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- যে সব মনুষ্যগণ (হিংকারায়) হিং-মত শব্দ করে তাহাদের জন্য (স্বাহা) উত্তম ক্রিয়া, (হিংকৃতায়) যাহারা হিং শব্দ করিয়াছে তাহাদের জন্য (স্বাহা) উত্তম ক্রিয়া (ক্রন্দতে) আহ্বান করে বা ক্রন্দন করে তাহাদের জন্য (স্বাহা) উত্তম ক্রিয়া (অবক্রন্দায়) নিচু হইয়া যারা আহ্বান করে তাহাদের জন্য (স্বাহা) উত্তম ক্রিয়া (প্রোথতে) সকল কর্ম্মে পরিপূর্ণ হেতু (স্বাহা) উত্তম ক্রিয়া (প্রপ্রোথায়) অত্যন্ত পূর্ণ হেতু (স্বাহা) উত্তম ক্রিয়া (গন্ধায়) সুগন্ধ হেতু (স্বাহা) উত্তম ক্রিয়া (ঘ্রাতায়) যাহা শোঁকা হইয়াছে তাহার জন্য (স্বাহা) উত্তম ক্রিয়া (নিবিষ্টায়) যে নিরন্তর প্রবেশ করে, উপবেশন করে তাহার জন্য (স্বাহা) উত্তম ক্রিয়া, (উপবিষ্টায়) যে উপবেশন করে তাহার জন্য (স্বাহা) উত্তম ক্রিয়া (সন্দিতায়) যাহা ভালমত দেওয়া হয় তাহার জন্য (স্বাহা) উত্তম ক্রিয়া (বল্গতে) গমনশীলদের জন্য (স্বাহা) উত্তম ক্রিয়া (আসীনায়) আসীনদের জন্য (স্বাহা) উত্তম ক্রিয়া (শয়ানায়) শয়নরতদের জন্য (স্বাহা) উত্তম ক্রিয়া (স্বপতে) নিদ্রা প্রাপ্তদিগের জন্য (স্বাহা) উত্তম ক্রিয়া (জাগ্রতে) জাগ্রতদের জন্য (স্বাহা) উত্তম ক্রিয়া (কূজতে) কূজনকারীদের জন্য (স্বাহা) উত্তম ক্রিয়া (প্রবুদ্ধায়) উত্তম জ্ঞান প্রাপ্তকারীদিগের জন্য (স্বাহা) উত্তম ক্রিয়া (বিজৃম্ভমানায়) উত্তম প্রকার জৃম্ভণের জন্য (স্বাহা) উত্তম ক্রিয়া, (বিচৃতায়) বিশেষ রচনাকারদের জন্য (স্বাহা) উত্তম ক্রিয়া, (সংহানায়) যদ্দ্বারা সংঘাত পদার্থগুলির সমূহ করা হয়, তাহার জন্য (স্বাহা) উত্তম ক্রিয়া (উপস্থিতায়) সমীপস্থিতদের জন্য (স্বাহা) উত্তম ক্রিয়া (আয়নায়) উত্তম প্রকার বিশেষ জ্ঞান হেতু (স্বাহা) উত্তম ক্রিয়া তথা (প্রায়নায়) উপস্থিতকারীদের জন্য (স্বাহা) উত্তম ক্রিয়ার সেই সব মনুষ্যদিগের দুঃখ মুক্ত হইয়া সুখ প্রাপ্ত হয় ॥ ৭ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- মনুষ্যদিগের দ্বারা অগ্নিহোত্রাদি যজ্ঞে যত হোম করা হয়, সে সব প্রাণীদের সুখের জন্য করা হয় ॥ ৭ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
হি॒ঙ্কা॒রায়॒ স্বাহা॒ হিঙ্কৃ॑তায়॒ স্বাহা॒ ক্রন্দ॑তে॒ স্বাহা॑ऽবক্র॒ন্দায়॒ স্বাহা॒ প্রোথ॑তে॒ স্বাহা॑ প্রপ্রো॒থায়॒ স্বাহা॑ গ॒ন্ধায়॒ স্বাহা॑ ঘ্রা॒তায়॒ স্বাহা॒ নিবি॑ষ্টায়॒ স্বাহোপ॑বিষ্টায়॒ স্বাহা॒ সন্দি॑তায়॒ স্বাহা॒ বল্॑তে॒ স্বাহাসী॑নায়॒ স্বাহা॒ শয়া॑নায়॒ স্বাহা॒ স্বপ॑তে॒ স্বাহা॒ জাগ্র॑তে॒ স্বাহা॒ কূজ॑তে॒ স্বাহা॒ প্রবু॑দ্ধায়॒ স্বাহা॑ বি॒জৃম্ভ॑মাণায়॒ স্বাহা॒ বিচৃ॑তায়॒ স্বাহা॒ সꣳহা॑নায়॒ স্বাহোপ॑স্থিতায়॒ স্বাহাऽয়॑নায়॒ স্বাহা॒ প্রায়॑ণায়॒ স্বাহা॑ ॥ ৭ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
হিংকারায়েত্যস্য প্রজাপতির্ঋষিঃ । প্রাণাদয়ো দেবতাঃ । পূর্বস্য নিচৃদত্যষ্টিশ্ছন্দঃ । আসীনায়েত্যুত্তরস্য স্বরাডত্যষ্টিশ্ছন্দঃ ।
গান্ধারৌ স্বরৌ ॥
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