अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 4
ऋषिः - अथर्वा
देवता - चन्द्रमा और पर्जन्य
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - रोग उपशमन सूक्त
301
यथा॒ द्यां च॑ पृथि॒वीं चा॒न्तस्तिष्ठ॑ति॒ तेज॑नम्। ए॒वा रोगं॑ चास्रा॒वं चा॒न्तस्ति॑ष्ठतु॒ मुञ्ज॒ इत् ॥
स्वर सहित पद पाठयथा॑ । द्याम् । च॒ । पृ॒थि॒वीम् । च॒ । अ॒न्तः । तिष्ठ॑ति । तेज॑नम् । ए॒व । रोग॑म् । च॒ । आ॒ऽस्रा॒वम् । च॒ । अ॒न्तः । ति॒ष्ठ॒तु॒ । मुञ्ज॑: । इत् ॥
स्वर रहित मन्त्र
यथा द्यां च पृथिवीं चान्तस्तिष्ठति तेजनम्। एवा रोगं चास्रावं चान्तस्तिष्ठतु मुञ्ज इत् ॥
स्वर रहित पद पाठयथा । द्याम् । च । पृथिवीम् । च । अन्तः । तिष्ठति । तेजनम् । एव । रोगम् । च । आऽस्रावम् । च । अन्तः । तिष्ठतु । मुञ्ज: । इत् ॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
बुद्धि की वृद्धि के लिये उपदेश।
पदार्थ
(यथा) जैसे (तेजनम्) प्रकाश (द्यां च) सूर्यलोक (च) और (पृथिवीम्) पृथिवीलोक के (अन्तः) बीच में (तिष्ठति) रहता है, (एव) वैसे ही (मुञ्जः) शोधनेवाला परमेश्वर [वा औषध] (इत्) भी (रोगं च) शरीरभङ्ग (च) और (आस्रावम्) रुधिर के बहाव वा घाव के (अन्तः) बीच में (तिष्ठतु) स्थित होवे ॥४॥
भावार्थ
जो मनुष्य अपने बाहिरी और भीतरी क्लेशों में (मुञ्ज) हृदयसंशोधक परमेश्वर का स्मरण रखते हैं, वे दुःखों से पार होकर तेजस्वी होते हैं। अथवा जैसे सद्वैद्य (मुञ्ज) संशोधक औषधि से बाहिरी और भीतरी रोग का प्रतीकार करता है, वैसे ही आचार्य विद्याप्रकाश से ब्रह्मचारी के अज्ञान का नाश करता है ॥४॥ सायणभाष्य में (तेजनम्) नपुंसकलिङ्ग को [तेजनः] पुंलिङ्ग मानकर [वेणुः] अर्थात् बाँस अर्थ किया है वह असंगत है ॥
टिप्पणी
४−यथा। येन प्रकारेण। द्याम्। गमेर्डोः। उ० २।६७। इति बाहुलकात् द्युत दीप्तौ−डो प्रत्ययः। सूर्यलोकम्। पृथिवीम्। मं० २। प्रख्यातां विस्तीर्णां वा भूमिम्। अन्तः। अम गतौ-अरन्, तुडागमः। अन्तरान्तरेण युक्ते। पा० २।३।४। इति छन्दसि मध्यशब्दस्य पर्यायवाचकत्वात् अन्तर् इति शब्देन सह द्वितीया। द्वयोर्मध्ये। तिष्ठति। वर्तते। तेजनम्। नपुंसकम्। तिज तीक्ष्णीकरणे-ल्युट्। तेजः प्रकाशः। एव। निपातस्य च। पा० ६।३।१३६। इति छन्दसि दीर्घम्। एवम्, तथा। रोगम्। पदरुजविशस्पृशो घञ्। पा० ३।३।१६। इति रुज भङ्गे हिंसे च-घञ्। रुजति शरीरम्। शरीरभङ्गम्। आस्रावम्। श्याऽऽद्व्यधास्रु०। पा० ३।१।१४१। इति आङ्+स्रु स्रवणे-ण प्रत्ययः। अचो ञ्णिति। पा० ७।२।११५। इति वृद्धिः। आस्रवम्, रुधिरादिस्रवणम्। आघातम्। मुञ्जः। मुञ्ज्यते मृज्यते अनेन। मुजि मार्जने शोधने-अच्। परमेश्वरः संशोधकः पदार्थो वा। इत्। एव अपि ॥
विषय
रोग व आस्त्राव को दूर करनेवाला 'मुञ्ज'
पदार्थ
१. (यथा) = जैसे यह (तेजनम्) = शर [Reed] (द्यां च पृथिवीं च अन्तः) = धुलोक और पृथिवीलोक में (तिष्ठति) = स्थित है (एव) = उसी प्रकार यह (मुञ्ज:) = मुञ्ज नामक शर (रोगं च आस्त्रावं च) = रोग और पीब आदि बहनेवाले घावों के (अन्त:) = बीच में (तिष्ठतु) = ठहरे। २. तेजन शर या मुञ्ज बादल के पानी से पृथिवी पर उत्पन्न होता है। इसप्रकार यह मुञ्ज [मूंज, सरकण्डा] दोनों लोकों के बीच में स्थित है। पृथिवी से इसे विष नाशक शक्ति प्रास होती है। यह मेदिनी' इसमें Medicinal properties को उपस्थित करती है और सूर्य-किरणों के द्वारा इसमें विविध औषध-गुण स्थापित होते हैं। एवं यह शर रोगों व घावों को ठीक करनेवाला हो जाता है।
भावार्थ
मुज का विधिवत् प्रयोग रोगों व घावों को दूर करता है।
विशेष
[१] सूक्त के आरम्भ में आधि-व्याधियों की शान्ति करनेवाले 'शर' के जन्म का वर्णन है। [२] यह हमें दृढ़ शरीर और निर्दोष मनवाला बनाता है। [३] हमें चाहिए कि हम गोदुग्ध व वनस्पतियों से ही शरीर का पालन करें। [४] यह निश्चय रक्खें कि इस शर [मुञ्ज] का प्रयोग हमें रोगों व घावों से बचाएगा। इस शर में 'पर्जन्य, मित्र, वरुण, चन्द्र व सूर्य' की शक्तियाँ निहित हैं।
भाषार्थ
(यथा) जैसे (द्याम् च पृथिवीम् च) द्यौः और पृथिवी के (अन्तः) अन्तराल में (तेजनम्) तेजस्वी सूर्य (तिष्ठति) स्थित होता है, (एव) इसी प्रकार (रोगम् च आस्रावम् च) रोग और आस्राव के (अन्तः) अन्तराल में (मुञ्जः इत्) मूञ्ज ही ( तिष्ठतु) स्थित हो।
टिप्पणी
[अभिप्राय यह कि जैसे द्योः और पृथिवी के मध्य में सूर्य स्थित है, वैसे रोग अर्थात् मूत्रकृच्छ में, और आस्राव अर्थात् मूत्र के स्रवण में, मुञ्ज ही स्थित है, अर्थात् रोग और आस्राव का परस्पर सम्बन्ध मुञ्ज के साथ है, मुञ्ज ही रोग का नाश कर, आस्राव उत्पन्न कर देता है। मुञ्ज का काढ़ा या इसका अन्य आयुर्वेदिक योग अच्छा मूत्रस्रावी है, तभी "इत्" अर्थात् 'ही' का प्रयोग हुआ है।]
विषय
बाण, शर और कानून का वर्णन
भावार्थ
जिस प्रकार ( द्यां च ) द्यौलोक और ( पृथिवीं च ) पृथिवी लोक के ( अन्तः ) भीतर ( तेजनम् ) तेजस्वी सूर्य ( तिष्ठति ) विराजता है, और ( रोगं च ) देह को तोड़ डालने वाले ज्वर, अतीसार आदि रोग ( आस्रावं च ) अङ्ग प्रत्यङ्ग से इकट्ठा होकर बहने वाले बहुमूत्र, अतीसार आदि रोगों को नाश करता है, उसी प्रकार शिर और मूलेन्द्रिय अथवा पट या जंघा के बीच कटिभाग में धारण किया हुआ ( तेजनम् ) तीक्ष्ण स्वभाव का या तिक्त गुण का ( मुञ्जः ) मूंज भी रोग और आस्राव के ( अन्तः ) बीच में रह कर उन पर वश करता और उनको दूर करता है। पूर्व सूक्त में विद्यमान वाचस्पति वैद्य से शरीर के सुख की कामना और इस सूक्त में इन्द्र रूप राजा और वैद्य से राष्ट्र-शरीर और इस शरीर के रोगनाशक "शर" ओषधि को प्राप्त कर रोग विनाश करने का उपदेश है। शर और मुञ्ज के गुणों के विषय में धन्वन्तरि राजनिघण्टु में इसके ४ भेद लिखे हैं, काश, मुञ्ज, मृदुदर्भ, और शर, साधारण भाषा में इसको सरकण्डा, मूंज, दाभ, सर या सींक कहा जाता है। काश के गुण—काशः स्वादू रसे तिक्तो विपाके वीर्यतो हिमः। तर्पणो बलकृद् वृष्यः श्रमशोषभयापहः। काशद्वयं च पित्तास्रकृच्छ्रजिन्मधुरं हिमम् ॥ काश रस में स्वादु, पकने पर कुछ तीखा, शीतल वीर्य, बलकारी, वृष्य, श्रम और शोष का विनाशक, रक्त पित्त और मूत्रकृच्छ को नाश करने वाला होता है। मुञ्ज के गुण—मुज्जोऽनुष्णो विसर्पास्त्रमूत्रवस्त्यक्षिरोगनुत्। बाणाह्वो मधुरः शीतः पित्तदाहतृषापहः॥ मूंज स्वभाव में शीतल, विसर्प नामक खुजली, कुष्ठ, वस्ति=मूत्रस्थली और आंखों के रोगों को दूर करता है। वह रस में मधुर, पित्त, दाह और प्यास को मिटाता है । दर्भ के गुण—यज्ञमूलं हिमं रुच्यं मधुरं पित्तनाशनम् । रक्तज्वर तृषाश्वासकामलादोषशोषकृत् ॥ दर्भों द्वौ च गुणे तुल्यौ तथापि च सितोऽधिकः । यदि श्वेतकुशाभावस्त्वपरं योजयेद् भिषक् ॥ कुश के दो भेद हैं एक श्वेत दूसरा लाल । इसका स्वभाव शीतल और भोजन में रुचिकर, मधुर, पित्त का नाशक, ज्वर, प्यास, श्वास (दमा), कामला, पाण्डुरोग और शोष (तपेदिक) का नाशक है । प्रायः दोनों के गुण समान हैं, इनमें भी श्वेत दर्भ अधिक गुणकारी है । शर—इसके भी दो भेद हैं। एक पतला दूसरा मोटा । शरद्वयं स्यान् मधुरं सतिक्तं कोष्णं कफभ्रान्तिमदापहारि । बलं च वीर्यं च करोति नित्यं निषेवितं वातकरं च किञ्चित् ॥ दोनों मधुर, तिक्त, कुछ उष्ण स्वभाव के, कफ, माथे का घूमना, मद ( ज़नून ) का नाशक, बलवीर्य का जनक और कुछ वातकारी है। वाण के द्वारा विजय करना धनुर्वेद और ज्वर, अतिसार, अतिमूत्र और नाडीव्रणों की चिकित्सा का उपदेश आयुर्वेद के अनुसार जानना चाहिये।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। अमृतमयः पर्जन्यश्चन्द्रमा देवता। १, २, ४, अनुष्टुप् छन्द, ३ त्रिपदा विराड् गायत्री। चतुर्ऋचं सुक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Hymn of Victory
Meaning
O ruler, O physician, O teacher, just as sharp catalytic light energy abides in heaven, on earth and in the firmament and destroys antilife elements, similarly let the power of the arrow, the medicinal munja grass, the twisted munja girdle of the disciple, strengthen and protect humanity’s security and peace, health of the individual and society, and the intellectual and moral health of the disciple against evil, weakness, disease and wasteful flow out.
Translation
As the sharpened point if arrow stands between the heaven and earth, so may this reed grass stand between the disease and fatal dysenteric discharge.
Translation
As the heat permeating internally resides in the earth, the heaven so the MunJa. The medicinal grass sits fit in the heart of ailment and dysenteric illness.
Translation
Just as light hangs between Earth and Firmament, so does Munja, a healing medicine stand between fever and dysentery.
Footnote
Dhanvantri ji writes in Raj Nighantu about Munja. मुञ्जोऽतुष्णो विसर्पात्रमूत्रवस्त्यथिरोगनुम। वाणाह्वो मधुरः शीतं पित्तदाहतृषापहः ॥ Munja is cold in nature, cures itch, leprosy, diseases pertaining to urine and eyes. It is sweet in taste, cures bile, burns and removes thirst. This herb removes fever, diarrhea and dysentery as well. In vernacular it is termed as दाभ Sayana has taken 'तेजनम्' in the neuter gender as तेजनः in the masculine gender, and translated it as a bamboo, which is Inadmissible.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
४−यथा। येन प्रकारेण। द्याम्। गमेर्डोः। उ० २।६७। इति बाहुलकात् द्युत दीप्तौ−डो प्रत्ययः। सूर्यलोकम्। पृथिवीम्। मं० २। प्रख्यातां विस्तीर्णां वा भूमिम्। अन्तः। अम गतौ-अरन्, तुडागमः। अन्तरान्तरेण युक्ते। पा० २।३।४। इति छन्दसि मध्यशब्दस्य पर्यायवाचकत्वात् अन्तर् इति शब्देन सह द्वितीया। द्वयोर्मध्ये। तिष्ठति। वर्तते। तेजनम्। नपुंसकम्। तिज तीक्ष्णीकरणे-ल्युट्। तेजः प्रकाशः। एव। निपातस्य च। पा० ६।३।१३६। इति छन्दसि दीर्घम्। एवम्, तथा। रोगम्। पदरुजविशस्पृशो घञ्। पा० ३।३।१६। इति रुज भङ्गे हिंसे च-घञ्। रुजति शरीरम्। शरीरभङ्गम्। आस्रावम्। श्याऽऽद्व्यधास्रु०। पा० ३।१।१४१। इति आङ्+स्रु स्रवणे-ण प्रत्ययः। अचो ञ्णिति। पा० ७।२।११५। इति वृद्धिः। आस्रवम्, रुधिरादिस्रवणम्। आघातम्। मुञ्जः। मुञ्ज्यते मृज्यते अनेन। मुजि मार्जने शोधने-अच्। परमेश्वरः संशोधकः पदार्थो वा। इत्। एव अपि ॥
बंगाली (3)
पदार्थ
(য়থা) যেমন (তেজনম্) প্রকাশ (দ্যাং) সূর্যলোক এবং (পৃথিবীং) পৃথিবী লোকের (অঃ) মধ্যে (তিষ্ঠতি) অবস্থান করে (এব) তেমনই (মুঞ্জঃ) শোধন কর্তা পরমেশ্বর বা ঔষধ (ইং) ও (রোগং) রোগ (চ) এবং (আস্রাবং) রক্ত প্রবাহের (অন্তঃ) মধ্যে (চ) এবং (তিষ্ঠতু) অবস্থান করে।।
‘তেজনম্’ তিজ তীক্ষণীকরণে। তেজঃ প্রকাশঃ । ‘রোগং’ রুজ ভংগে হিংসে চ ঘঞ্। রুজতি শরীরম্। শরীর ভঙ্গম্। যাহা শরীর ভঙ্গ করে বা নাশ করে তাহাই রোগ। ‘মুঞ্জঃ’ মুঞ্জতে মৃজ্যতে অনেন। মুজি মার্জনে শোধনে অচ্। পরমেশ্বর বা সংশোধক পদার্থ।।
भावार्थ
প্রকাশ যেমন সূর্যলোক ও পৃথিবীলোকের মধ্যে অবস্থান করে শোধন কর্তা পরমেশ্বর বা ঔষধও তেমন রোগ ও রক্ত প্রবাহের মধ্যে অবস্থান করে।।
मन्त्र (बांग्ला)
য়থা দ্যাং চ পৃথিবীং চান্তস্তিষ্ঠতি তেজনম্ । এবা রোগং চাস্রাবং চান্তষ্ঠিতু মুঞ্জইৎ।।
ऋषि | देवता | छन्द
অর্থবা। পর্জন্যঃ। অনুষ্টুপ্
मन्त्र विषय
(বুদ্ধিবৃদ্ধ্যুপদেশঃ) বুদ্ধির বৃদ্ধির জন্য উপদেশ।
भाषार्थ
(যথা) যেভাবে (তেজনম) প্রকাশ (দ্যাং চ) সূর্যলোক (চ) এবং (পৃথিবীম) পৃথিবীলোকের (অন্তঃ) মধ্যে/মাঝখানে (তিষ্ঠতি) বর্তমান/থাকে, (এব) তেমনই (মুঞ্জঃ) শোধনকারী পরমেশ্বর [বা ঔষধ] (ইৎ) ও (রোগং চ) শরীরভঙ্গ (চ) এবং (আস্রাবম্) রক্তক্ষরণ বা ক্ষত এর (অন্তঃ) মধ্যে (তিষ্ঠতু) স্থিৎ হোক॥৪॥
भावार्थ
যে মনুষ্য নিজের বাহ্যিক এবং আভ্যন্তরীণ ক্লেশে (মুঞ্জ) হৃদয়সংশোধক পরমেশ্বরের স্মরণ রাখে, সে দুঃখ থেকে উদ্ধার/পার হয়ে তেজস্বী হয়। অথবা যেভাবে সৎ বৈদ্য (মুঞ্জ) সংশোধক ঔষধি দিয়ে/দ্বারা বাহ্যিক এবং আভ্যন্তরীণ রোগের প্রতিকার করেন, সেভাবেই আচার্য বিদ্যাপ্রকাশের মাধ্যমে ব্রহ্মচারীর অজ্ঞানতার নাশ করে/করুক ॥৪॥ সায়ণভাষ্যে (তেজনম্) নপুংসকলিঙ্গকে [তেজনঃ] পুংলিঙ্গ মেনে [বেণুঃ] অর্থাৎ বাঁশ অর্থ করা হয়েছে, যা অসঙ্গত ॥
भाषार्थ
(যথা) যেমন (দ্যাম্ চ পৃথিবীম্ চ) দ্যৌঃ ও পৃথিবীর (অন্তঃ) অন্তরালে (তেজনম্) তেজস্বী সূর্য (তিষ্ঠতি) স্থিত হয়, (এব) এইভাবে (রোগম্ চ আস্রাবম্ চ) রোগ ও আস্রাবের (অন্তঃ) অন্তরালে (মুঞ্জঃ ইৎ) মুঞ্জই (তিষ্ঠতু) স্থিত হোক।
टिप्पणी
[অভিপ্রায় হল, যেমন দ্যৌ ও পৃথিবীর মধ্যে/মাঝখানে সূর্য স্থিত আছে, তেমনই রোগ অর্থাৎ মূত্রকৃচ্ছতে, এবং আস্রাব অর্থাৎ মূত্রের স্রবণে, মুঞ্জই স্থিত আছে, অর্থাৎ রোগ ও আস্রাবের পরস্পর সম্বন্ধ মুঞ্জের সাথে, মুঞ্জই রোগের নাশ করে, আস্রাব উৎপন্ন করে দেয়। মুঞ্জের ক্বাথ বা এর অন্য আয়ুর্বেদিক যোগ উত্তম মূত্রস্রাবী, তাই “ইৎ” অর্থাৎ ‘ই’ এর প্রয়োগ হয়েছে।] [মুঞ্জ=reed/ উলুখাগড়া/নলখাগড়া গাছ]
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