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अथर्ववेद के काण्ड - 1 के सूक्त 24 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 24/ मन्त्र 4
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - आसुरी वनस्पतिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - श्वेत कुष्ठ नाशन सूक्त
    75

    श्या॒मा स॑रूपं॒कर॑णी पृथि॒व्या अध्युद्भृ॑ता। इ॒दमू॑ षु॒ प्र सा॑धय॒ पुना॑ रू॒पाणि॑ कल्पय ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    श्या॒मा । स॒रू॒प॒म्ऽकर॑णी । पृ॒थि॒व्या: । अधि॑ । उत्ऽभृ॑ता। इ॒दम् । ऊं॒ इति॑ । सु । प्र । सा॒ध॒य॒ । पुन॑: । रू॒पाणि॑ । क॒ल्प॒य॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    श्यामा सरूपंकरणी पृथिव्या अध्युद्भृता। इदमू षु प्र साधय पुना रूपाणि कल्पय ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    श्यामा । सरूपम्ऽकरणी । पृथिव्या: । अधि । उत्ऽभृता। इदम् । ऊं इति । सु । प्र । साधय । पुन: । रूपाणि । कल्पय ॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 1; सूक्त » 24; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    महारोग के नाश के लिये उपदेश।

    पदार्थ

    (श्यामा) व्यापनशीला वा सुखप्रदा, (सरूपं करणी) सुन्दरता करनेहारी तू (पृथिव्याः अधि) विख्यात वा विस्तीर्ण पृथिवी में से (उद्भृता) उखाड़ी गई है। (इदम् उ) इस [कर्म्म] को (सु) भली-भाँति से (प्रसाधय) सिद्ध कर, (पुनः) और (रूपाणि) [इस पुरुष] की सुन्दरताओं को (कल्पय) पूर्ण कर ॥४॥

    भावार्थ

    जैसे उत्तम वैद्य उत्तम औषधों से रोग को निवृत्त कर रोगी को सर्वाङ्ग पुष्ट करके आनन्दयुक्त करते हैं, इसी प्रकार दूरदर्शी पुरुष सब विघ्नों को हटा कर कार्य्यसिद्धि कर आनन्द भोगते हैं ॥४॥ मुद्राराक्षस में कहा है−“धरि लात विघ्न अनेक पैं निरभय न उद्यम तें टरैं। जे पुरुष उत्तम अन्त में ते सिद्ध सब कारज करैं ॥”

    टिप्पणी

    ४−श्यामा। इषियुधीन्धिदसिश्याधूसूभ्यो मक्। उ० १।१४५। इति श्यैङ् गतौ-मक्, टाप्। श्यायति गच्छति सुखं प्राप्नोति सा श्यामा व्यापनशीला। सुखप्रदा। ओषधिः। सरूपम्-करणी। सरूपं क्रियते अनयेति। करणाधिकरणयोश्च। पा० ३।३।११७। इति कृञः करणे ल्युट्। पूर्वपदे सुपो लुगभावश्छान्दसः। टिड्ढाणञ्द्वयसज्०। पा० ४।१।१५। इति ङीप्। सुन्दररूपकर्त्री। पृथिव्याः। १।२।१। प्रख्याताया विस्तीर्णाया वा भूमेः सकाशात्। अधि। पञ्चम्यर्थानुवादी। उत्-भृता। उत्+भृञ्-क्त। उत्खाता। उत्पादिता। ऊँ इति। पादपूरणः। पदपूरणस्ते मिताक्षरेष्वनर्थकाः, कमीमिद्विति। निरु० १।९। प्र+साधय। प्र+षाध सिद्धौ, णिच्। सिद्धं कुरु, प्रवर्धय। पुनः। अनन्तरम्। पुना रूपाणि। रो रि। पा० ८।३।१४। इति रेफस्य लोपे कृते। ढ्रलोपे पूर्वस्य दीर्घोऽणः। पा० ६।३।१११। इति पूर्वदीर्घः। रूपाणि। सौन्दर्याणि, स्वास्थ्यलक्षणानि। कल्पय। कृपू सामर्थ्ये, णिच्, कृपो रो लः। पा० ८।२।१८। इति लत्वम्। संपादय, पूरय ॥

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    विषय

    श्यामा

    पदार्थ

    १. त्वचा में रंग देनेवाले तत्त्व के निकल जाने से ही कुष्ठ रोग उत्पन्न होता है। इस रंगदायी तत्व [colouring matter] को फिर से शरीर में प्राप्त करा देनेवाली यह (श्यामा) = श्यामता देनेवाली ओषधि (सरूपं करणी) = समानरूपता करनेवाली है। २. यह ओषधि (पृथिव्याः) = पृथिवी से (उद्धृता) = बाहर धारण की गई है। 'पृथिवी से बाहर निकालना' यह भाव स्पष्ट कर रहा है कि यह कन्द आदि के रूप की कोई ओषधि है। ३. हे श्यामा! तू (इदम्) = इस हमारे शरीर को (उ) = निश्चय से (सुप्रसाधय) = अच्छी प्रकार अलंकृत कर दे, रोग को दूर करके इसे ठीक सिद्ध कर दे। (पुन:) = फिर (रूपाणि कल्पय) = तू त्वचा में रूप बना दे। जो रङ्ग देनेवाला तत्त्व कम हो गया था, उसकी पुनः स्थापना कर दे।

    भावार्थ

    'श्यामा' ओषधि रंग देनेवाले तत्त्व को उपस्थित करके त्वचा को फिर से सरूप करनेवाली है।

    विशेष

    अगले सूक्त का विषय भी 'तक्मा'-ज्वर है। इसे अपने से दूर रखनेवाला व्यक्ति 'अङ्गिरा'-सब अङ्गों में रसवाला है। यह ज्वर को परिपक्क करके दूर करनेवाला होने से 'भृगु' है [भ्रस्ज पाके]। यह 'भृगु अङ्गिरा' ही अगले सूक्त का ऋषि है। यह प्रार्थना करता है

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    भाषार्थ

    (श्यामा) श्यामवर्णवाली, (सरूपंकरणी) समान अर्थात् एकरूप कर देनेवाली [ओषधि], (पृथिव्या अधि) पृथिवी से (उद्भृता) उद्धृत हुई है। (इदम्) इस शरीर को (सु) उत्तम प्रकार से ( प्र साधय ) तू ठीक कर दे, (पुनः) अर्थात् फिर से (रूपाणि) इसके भिन्न-भिन्न रूपों को (कल्पय) एक- रूप कर दे।

    टिप्पणी

    [श्यामा ओषधि है असिक्नी (अथर्व० १।२३।१)।]

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    विषय

    त्वचादोष का निवारण।

    भावार्थ

    (श्यामा) पूर्व मन्त्र में कही ओषध ही श्यामा नाम वाली ( पृथिव्याः ) पृथिवी के (अघि उद्-भृता) ऊपर उत्पन्न और पुष्ट होती है वह ( सरूपं-करणी ) उत्तमरूप और समानत्वचा बना देती है। हे श्यामे ! तू ( इदम् ) इस कुष्ठी शरीर में ( प्र साधय ) अपना गुण दर्शा और ( पुनः ) बार बार ( रूपाणि ) नये २ रूप, नयी त्वचाएं ( कल्पय ) उत्पन्न कर ।

    टिप्पणी

    इस सूक्त में सुपर्ण, आसुरी सरुपा और श्यामा ये शब्द औषधियों के वाचक हैं। जिनमें प्रथम सुपर्ण=सप्तपर्णी है, वह गुल्म, कृमि, कुष्ठ का नाशक है। आसुरी राई, लाल सरसों। यह कृमि व्रण का नाशक है। सरूपा या सुरूपा शब्द से पित्ता हल्दी, भार्ङ्गी, वार्षिकी, शालिपर्णी और लाक्षा कहाती है; जिनमें से भार्ङ्गी का वर्णन पहले किया है। लाक्षा अर्थात् लाख कृमिनाशक और व्रणनाशक है । ‘शालिपर्णी’ शोफ को नाश करती है, वार्षिकी विष स्फोट फुंसियों और कृमिदोष का नाशक है। ‘सुपर्णी’ शब्दसे शालिपर्णी पलाशी और रेणुका या हरेणुका, विषकण्डू अर्थात् विषकी खाज का नाश करती है । ‘श्यामा’ शब्द से गुडूची, कस्तूरी, नीलपुनर्नवा, नीलिनी, पिप्पली, रोचना, वटपत्री, और हरिद्रा ये ओषधियां ली जाती हैं। इनमें से गुडूची, गिलोय त्रिदोषनाशक, रक्त-अर्श और कुष्ठ का नाशक है। कस्तूरी विषघ्न और किलास, कफ आदि का नाशक है, नील पुनर्नवा का पूर्व वर्णन कर आये हैं । नीलिनी विष वात, रक्त और कृमिनाशक है । पिप्पली, रोचना दोनों का वर्णन पूर्व किया गया है । वटपत्री प्रमेह कृच्छ्र और व्रणका नाशक है। बन्दका जखम भर देने वाली और रसायन है, हरिद्रा का पूर्व वर्णन कर आये हैं। इस प्रकार वेद के ओषधि नाम व्यापक गुणों को दर्शाते हैं। सायण ने कौशिक सूत्र के अनुसार भृंगराज, हरिद्वा, इन्द्रवारुणी, और नीलिका इनको पीसकर श्वेत कुष्ठ पर लगाने का संकेत किया है । इनमें भृंगराज अर्थात् भांगरा, हरिद्रा हल्दी, नीलीका नीलिनी और इन्द्रवारुणी, ऐन्द्री भी कृमिदोष, कुष्ठ-व्रण और श्लीपद का नाश करती है। इन्द्रवारुणी विशाला को भी कहते हैं जिसका एक भेद श्वेत पुष्पी है इसको नागदन्ती और भटा भी कहते हैं इनमें कुष्ठनाशक गुण विशेष हैं । उक्त दोनों सूक्तों में सायण आदि भाष्यकारों ने तत्व को बिना समझे ही अर्थ का अनर्थ किया है ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्मा ऋषिः। आसुरी वनस्पतिर्देवता। १, ४, ४ अनुष्टुभः, २ निचृत् पथ्यापंक्तिः। चतुर्ऋचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Leprosy Cure

    Meaning

    Shyama, maker of uniform colour and function of the patient’s skin, born and sustained of the earth, cure this patient. Create and re-create the form and colour of the skin, the same uniformly, again and again. Note: In the Vedic tradition herbs and medicines are not dead materials. They share the same vitality of the cosmic spirit and energy which all of us share. They are a part of the living cosmic organism. Hence the Vaidic physician talks to them as living energy. Secondly, everything from cosmic energy and the sun to a herb and a drug is uniform. Disintegrate presences such as diseases are malfunctions which are results of local imbalances. Hence the remedy is called Sarupa, uniform and unifunctional. The cosmic energy, the sun, the earth, the herbs, you and I, all are Sarupa in the healthy state. When the health is disturbed, the Sarupa medicine restores the ‘sarupa’, uniformity. Further, Suparna, Asuri, Sarupa, Shyama, Rajani, Savarani, all these are names of herbs in Ayurveda.

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    Translation

    This herb is dark-coloured. This makes the skin of uniform colour. This herb has been pulled out of earth. O herb, may you accomplish this work efficiently and restore (to man his) previous (original) natural appearances.

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    Translation

    The Shyama, the black plant springs up on the earth and it makes the affected body beautiful. Let it medicate the effected, body of patient and restore to him again the natural colours.

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    Translation

    O Shyama named medicine, thou impartest beauty, thou hast been dug out of the earth, heal thou fully well this leprous body. Restore the colors that were his before the attack of leprosy.

    Footnote

    His refers to the patient. In this Sukta (hymn) the words suparna, Asuri, sarupa, and shyama are the names of medicines. Suparna kills germs and cures leprosy. Asuri kills germs and cures wounds. Sarupa cures smelling, boils. Shyama denotes different medicines like Gudchi, Kasturi, Nilpunarnva, Nilni, Pippali, Rochna, Vatpattrf and Haridra. These medicines cure leprosy, bronchitis, diabetes, boils and wounds.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ४−श्यामा। इषियुधीन्धिदसिश्याधूसूभ्यो मक्। उ० १।१४५। इति श्यैङ् गतौ-मक्, टाप्। श्यायति गच्छति सुखं प्राप्नोति सा श्यामा व्यापनशीला। सुखप्रदा। ओषधिः। सरूपम्-करणी। सरूपं क्रियते अनयेति। करणाधिकरणयोश्च। पा० ३।३।११७। इति कृञः करणे ल्युट्। पूर्वपदे सुपो लुगभावश्छान्दसः। टिड्ढाणञ्द्वयसज्०। पा० ४।१।१५। इति ङीप्। सुन्दररूपकर्त्री। पृथिव्याः। १।२।१। प्रख्याताया विस्तीर्णाया वा भूमेः सकाशात्। अधि। पञ्चम्यर्थानुवादी। उत्-भृता। उत्+भृञ्-क्त। उत्खाता। उत्पादिता। ऊँ इति। पादपूरणः। पदपूरणस्ते मिताक्षरेष्वनर्थकाः, कमीमिद्विति। निरु० १।९। प्र+साधय। प्र+षाध सिद्धौ, णिच्। सिद्धं कुरु, प्रवर्धय। पुनः। अनन्तरम्। पुना रूपाणि। रो रि। पा० ८।३।१४। इति रेफस्य लोपे कृते। ढ्रलोपे पूर्वस्य दीर्घोऽणः। पा० ६।३।१११। इति पूर्वदीर्घः। रूपाणि। सौन्दर्याणि, स्वास्थ्यलक्षणानि। कल्पय। कृपू सामर्थ्ये, णिच्, कृपो रो लः। पा० ८।२।१८। इति लत्वम्। संपादय, पूरय ॥

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    बंगाली (3)

    पदार्थ

    (শ্যামা) সুখপ্রদা (সরূপং করণী) সৌন্দর্য দায়িণী তুমি (পৃথিব্যাঃ অধি) বিস্তৃর্ণ পৃথিবী হইতে (উদ্‌ভৃতা) উদ্ধৃতা হইয়াছ। (ইদম্ উ) এই কর্মকে (সু) ভাল ভাবে (প্রসাধয়) সিদ্ধ কর। (পুনঃ) এবং (রূপাণি) সৌন্দর্যকে (কল্পয়) পূর্ণ কর।।

    भावार्थ

    সুখ প্রদায়িণী, সৌন্দর্য বিধায়িণী ওষধি! তুমি ভূমি হইতে উদ্ধৃত হইয়াছে। আমাদের রোগ নিবৃত্তি কর্মকে ভাল ভাবে সিদ্ধ কর এবং সৌন্দর্যকে পরিপূর্ণ কর।।

    मन्त्र (बांग्ला)

    শ্যামা সরূপং করণী পৃথিব্যা অধ্যুভৃতা ইদম্ য়ু প্রসাধয় পুনা রূপাণি কল্পয়।।

    ऋषि | देवता | छन्द

    ব্ৰহ্মা। আসুরী বনস্পতিঃ। অনুষ্টুপ্

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    मन्त्र विषय

    (মহারোগনাশোপদেশঃ) মহারোগ নাশের জন্য উপদেশ

    भाषार्थ

    (শ্যামা) ব্যাপনশীলা বা সুখপ্রদা, (সরূপং করণী) সুন্দরতা সৃষ্টিকারী তুমি (পৃথিব্যাঃ অধি) বিখ্যাত বা বিস্তীর্ণ পৃথিবী থেকে (উদ্ভৃতা) উৎপাটিত হয়েছ। (ইদম্ উ) এই [কর্মকে] (সু) উত্তমভাবে (প্রসাধয়) সিদ্ধ করো (পুনঃ) এবং (রূপাণি) [এই পুরুষ] এর সৌন্দর্যকে (কল্পয়) পূর্ণ করো ॥৪॥

    भावार्थ

    যেরূপ উত্তম বৈদ্য উত্তম ঔষধিসমূহ দ্বার রোগ নিবৃত্ত করে রোগীর সর্বাঙ্গ পুষ্ট করে আনন্দযুক্ত করে দেয়, তেমনিভাবে দূরদর্শী পুরুষ সব বিঘ্নসমূহকে দূর করে কার্যসিদ্ধির মাধ্যমে আনন্দ ভোগ করে/করুক ॥৪॥ মুদ্রারাক্ষসে বলা হয়েছে− “ধরি লাত বিঘ্ন অনেক পৈং নিরভয় ন উদ্যম তেং টরৈং। যে পুরুষ উত্তম অন্তে সিদ্ধ সব কার্য করে॥”

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    भाषार्थ

    (শ্যামা) শ্যাম বর্ণবিশিষ্ট (সরূপংকরণী) সমান অর্থাৎ একরূপপ্রদায়ী [ঔষধি], (পৃথিব্যা অধি) পৃথিবী থেকে (উদ্ভৃতা) উদ্ধৃত হয়েছে। (ইদম্) এই শরীরকে (সু) উত্তম প্রকারে (প্র সাধয়) তুমি ঠিক করে দাও, (পুনঃ) অর্থাৎ আবার (রূপাণি) এর ভিন্ন-ভিন্ন রূপকে (কল্পয়) এক রূপ করে দাও।

    टिप्पणी

    [শ্যামা ঔষধি হলো অসিক্নী (অথর্ব০ ১।২৩।১)।]

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