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अथर्ववेद के काण्ड - 1 के सूक्त 34 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 34/ मन्त्र 2
    ऋषिः - अथर्वा देवता - मधुवनस्पतिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - मधु विद्या
    227

    जि॒ह्वाया॒ अग्रे॒ मधु॑ मे जिह्वामू॒ले म॒धूल॑कम्। ममेदह॒ क्रता॒वसो॒ मम॑ चि॒त्तमु॒पाय॑सि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    जि॒ह्वाया॑: । अग्रे॑ । मधु॑ । मे॒ । जि॒ह्वा॒ऽमू॒ले । म॒धूल॑कम् । मम॑ । इत् । अह॑ । क्रतौ॑ । अस॑: । मम॑ । चि॒त्तम् । उ॒प॒ऽआय॑सि ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    जिह्वाया अग्रे मधु मे जिह्वामूले मधूलकम्। ममेदह क्रतावसो मम चित्तमुपायसि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    जिह्वाया: । अग्रे । मधु । मे । जिह्वाऽमूले । मधूलकम् । मम । इत् । अह । क्रतौ । अस: । मम । चित्तम् । उपऽआयसि ॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 1; सूक्त » 34; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (5)

    विषय

    विद्या की प्राप्ति का उपदेश।

    पदार्थ

    (मे) मेरी (जिह्वायाः) रस जीतनेवाली, जिह्वा के (अग्रे) सिरे पर (मधु) ज्ञान [वा मधु का रस] होवे और (जिह्वामूले) जिह्वा के मूल में (मधूलकम्) ज्ञान का लाभ [वा मधु का स्वाद] होवे। (मम) मेरे (क्रतौ) कर्म वा बुद्धि में (इत्) ही (अह) अवश्य (असः) तू रह, (मम चित्तम्) मेरे चित्त में (उपायसि) तू पहुँच करती है ॥२॥

    भावार्थ

    जब मनुष्य विद्या को रटन, मनन और परीक्षण से प्रेमपूर्वक प्राप्त करते हैं, तब विद्या उनके हृदय में घर करके सुख का वरदान देती है ॥२॥

    टिप्पणी

    २−जिह्वायाः। १।१०।३। जयति रसमनया। रसनायाः। अग्रे। ऋज्रेन्द्राग्रवज्रविप्र०। उ० २।२८। इति अगि गतौ−रन्। उपरिभागे। मधु। म० १। ज्ञानं क्षौद्ररसो वा। जिह्वा−मूले। मूशक्यविभ्यः क्लः। उ० ४।१०८। इति मृङ् बन्धे−क्ल। मवते बध्नाति वृक्षादिकं मूलम्, जिह्वाया रसनाया मूलभागे। मधूलकम्। मधु+उर गतौ-क, रस्य लत्वम्, स्वार्थे कन्। यद्वा मधु+लक स्वादे, प्राप्तौ च−अच्, दीर्घत्वम्। मधुनो ज्ञानस्य प्राप्तिः। मधुनः क्षौद्रस्य स्वादः। मम। मदीये। इत्। एव। अह। अवश्यम्। क्रतौ। कृञः कतुः। उ० १।७६। इति कृञ्−कतु। क्रतुः, कर्म−निघ० २।१। प्रज्ञा−निघ० ३।९। कर्मणि बुद्धौ वा। असः। १।१६।४ ॥ त्वं भूयाः। चित्तम्। चिती ज्ञाने−क्त। अन्तःकरणम्। उप-आयसि। उप+आङ्+अयङ् गतौ−लट्। उपागच्छसि, आदरेण सर्वतः प्राप्नोषि ॥

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    विषय

    मधु उच्चारण करो

    व्याख्याः शृङ्गी ऋषि कृष्ण दत्त जी महाराज

    आज मैं तुम्हें ये उद्गीत गाने के लिए आया हूँ मेरे प्यारे! राजा इस अग्नि का मानो देखो, अग्नि का गीत गाता हुआ, राजा बेटा! देखो, अपनी सभाएं करता हैं, अपनी सभा करता हुआ, राजा अपनी प्रजा को कहता है, हे प्रजाओं! तुम सत्य उच्चारण करो, मानो मैं भी सत्यवादी बनूंगा, जब तक मैं सत्यवादी नही बनूंगा, तो प्रजा मेरी सत्यवादी नही बनेगीतो वह इसी अग्नि को ले करके अश्वमेध याग करता है, अश्वमेध याग करता है, मानो देखो, उसका याग, वह होता रहता हैं, जिसको मुनिवरों! देखो, हम देखो, जिसको बलिवैश्व याग कहते हैंबलिवैश्व याग की कल्पना, जब राजा के समीप आती हैं, क्या कोई प्राणी हमें हनन नही करना चाहिए, इतना अहिंसा परमोधर्म आ जाना चाहिए, राजा के राष्ट्र में, क्या एक दूसरा प्राणी, प्राणी का भक्षक न होमेरे प्यारे! देखो, वाणी से देखो, वाणी से हिंसा का प्रारम्भ होता हैं, जब राजा अपनी वाणी से उद्गीत यथार्थता के रूप में गाता है, तो मुनिवरों! देखो, वह प्रजा भी, उसी प्रकार यथार्थ उद्गीत गाने लगती हैं, और गाती हुई मुनिवरों! देखो, प्रजा महान बन जाती हैराजा अश्वमेध याग और बलि वैश्व याग करता हैं, जब बलि वैश्व याग करता है तो सबके भाग अन्न में से देता है, वह मानो देखो, कुकर को भी देता हैं, और वह जितने भी पक्षी गण हैं, जलचर हैं देखो, उन सबको वह प्रदान करता रहता हैं

    तो मेरे प्यारे! देखो, अग्नि का जब चयन करता हैं, अग्नि की आभाओं में रत्त होने लगता है, तो मेरे प्यारे! देखो, वह राजा अपनी प्रजा से कहता है, हे प्रजाओं! तुम मानो अपने क्रिया कलापों में परिणत होते हुए, तुम प्रत्येक गृह में और बलिवैश्व याग अवश्य किया करो, क्योंकि बलिवैश्व याग, अग्नि में प्रदान किया जाता हैअग्नि उसे मानो उसकी भावना के साथ, वह प्रदान करती रहती हैं, इसी प्रकार उन्होने कहा सम्भवा अग्नि के द्वारा राजा देखो, राजा के राष्ट्र में यही अग्नि वाणी का स्वरूप धारण कर लेती हैं, जब वाणी कटु हो जाती हैं, तो राजा के राष्ट्र में कटुता आ जाती है जब यह वाणी मधुर बन जाती है, तो यही वाणी राजा के राष्ट्र का उत्थान कर देती हैं।

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    विषय

    मधुर शब्द, मधुर-व्यवहार

    पदार्थ

    १. (मे) = मेरी (जिह्वायाः अने) = जिह्वा के अग्रभाग में (मधु) = माधुर्य हो, (जिह्वामूले) = जिला के मूल में भी (मभूलकम्) = माधुर्य की ही प्रासि हो [मधु उर+क, उर् गतौ]। मैं जिह्वा से कभी कटु शब्द बोल ही न पाऊँ। (इत् अह) = निश्चय से (मम क्रतौ) = मेरे कर्ममात्र में (असः) = यह माधुर्य हो। हे माधुर्य! तु (मम चित्तम् उपायसि) = मेरे चित्त को समीपता से प्राप्त हो, अर्थात् मेरे कर्म तो मधुर हों ही, मैं चित्त में भी कटुता न आने दूँ।

    भावार्थ

    मेरी बोलचाल तथा मेरे कर्म माधुर्य को लिये हुए हों। मेरे चित्त में भी कभी कटु-विचार न आये।

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    भाषार्थ

    (मे) मेरी (जिह्वायाः) जिह्वा के (अग्रे) अग्रभाग में ( मधु ) मधु हो, (जिह्वामूले) जिह्वा के मूल अर्थात् जड़ में (मधूलकम्) मधु को आदान करनेवाला मन हो। (मम) मेरे (क्रतौ) कर्म में (इत् ) अवश्य (अस:) हे मधु ! तु हो, (मम) और मेरे (चित्तम् ) चित्त में ( उपायसि ) तू प्राप्त हो।

    टिप्पणी

    [मधूलकम्= मधु + ला (आदाने, अदाादिः ) + क: (कृञ् डः औणादिकः)। क्रतु कर्मनाम (निघं० २।१)। मन में तो मधु का विचार सदा रहे, और चित्त में उसका सम्यक ज्ञान (चिती संज्ञाने, भ्वादिः)।]

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    विषय

    मधुलता के दृष्टान्त से ब्रह्म विद्या और मातृशक्ति का वर्णन।

    भावार्थ

    हे लतास्वरूप ब्रह्मविद्ये या बीजजन्मदात्रि प्रिये ! (जिह्वायाः) जिह्वा के ( अग्रे ) अग्रभाग में ( मधु ) ब्रह्मज्ञान रहे और (जिह्वामूले) जिह्वा के मूलभाग मानस में भी ( मधूलकम् ) अति अधिक मधुर मनोहर ज्ञानामृत संग्रह हो । हे ब्रह्मविद्ये ! ( मम ) मेरे ( क्रतौ ) क्रियावान् कर्ता रूप आत्मा में ( इत् अह ) अवश्य ही (असः) तू विद्यमान रह और (मम) मेरे ( चित्तम् ) चित्त में भी ( उपायसि ) व्याप्त रह । लता पक्ष में मधुलता मन, शरीर में पुष्टि, आरोग्यता और स्वरमाधुर्य और मानस बल का सम्पादन करे । स्त्रीपक्ष में मधु=स्नेह ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः । मधुवनस्पतिर्देवता । मधुवनस्पतिस्तुतिः । अनुष्टुप् छन्दः । पञ्चर्चं, मधुद्यमणिसूक्तम् ।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Life’s Honey

    Meaning

    Let there be honey sweetness at the tip of my tongue. Let there be honey sweetness at the root of my tongue. O honey sweetness of divinity, always stay in my thought and will in action, and ever abide at the depth of my mind and soul.

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    Translation

    May the honey be at the tip of my tongue.May the sweetness (of honey) be at the root of my tongue. O sweetness, may you reside in my action; may you come to my intentions too.

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    Translation

    This plant creates sweetness on the front part of our tongue more sweetness at the root of our tongue. Let it, be useful to our soul and send its effect into our mind.

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    Translation

    O divine knowledge may thou reside at the tip of my tongue, may the fascinating knowledge of God reside in my mind. O spiritual knowledge, stay thou without fail, in my active soul, remain steadfast in my heart.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २−जिह्वायाः। १।१०।३। जयति रसमनया। रसनायाः। अग्रे। ऋज्रेन्द्राग्रवज्रविप्र०। उ० २।२८। इति अगि गतौ−रन्। उपरिभागे। मधु। म० १। ज्ञानं क्षौद्ररसो वा। जिह्वा−मूले। मूशक्यविभ्यः क्लः। उ० ४।१०८। इति मृङ् बन्धे−क्ल। मवते बध्नाति वृक्षादिकं मूलम्, जिह्वाया रसनाया मूलभागे। मधूलकम्। मधु+उर गतौ-क, रस्य लत्वम्, स्वार्थे कन्। यद्वा मधु+लक स्वादे, प्राप्तौ च−अच्, दीर्घत्वम्। मधुनो ज्ञानस्य प्राप्तिः। मधुनः क्षौद्रस्य स्वादः। मम। मदीये। इत्। एव। अह। अवश्यम्। क्रतौ। कृञः कतुः। उ० १।७६। इति कृञ्−कतु। क्रतुः, कर्म−निघ० २।१। प्रज्ञा−निघ० ३।९। कर्मणि बुद्धौ वा। असः। १।१६।४ ॥ त्वं भूयाः। चित्तम्। चिती ज्ञाने−क्त। अन्तःकरणम्। उप-आयसि। उप+आङ्+अयङ् गतौ−लट्। उपागच्छसि, आदरेण सर्वतः प्राप्नोषि ॥

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    बंगाली (3)

    पदार्थ

    (মে) আমার (জিহ্বায়াঃ) জিহ্বার (অগ্রে) অগ্র ভাগে (মধু) মধুর রস হউক (জিহ্বামুলে) জিহ্বার শূলদেশে (মধূ লকং) মধুর স্বাদ হউক (মম) আমার (ক্রতৌ) কর্মে (ইৎ)(অহ) অবশ্য (অসঃ) তুমি থাক । আমার (চিত্তং) চিত্তে (উপায়সি) তুমি উপনীত হও।।

    भावार्थ

    আমার জিহ্বার অগ্রভাগে মধুর রস হউক, জিহ্বার মূলদেশে মধুর স্বাদ হউক। আমার কর্ম মধুর হউক। আমার চিত্ত মধুর হউক।।

    मन्त्र (बांग्ला)

    জিহ্বায়া অগ্রে মধু মে জিহ্বামূলে মধূলকম্। মমেদহ ক্রতাবসো মম চিত্তমুপায়সি।।

    ऋषि | देवता | छन्द

    অর্থবা। মধুবনস্পতিঃ। অনুষ্টুপ্

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    मन्त्र विषय

    (বিদ্যাপ্রাপ্ত্যুপদেশঃ) বিদ্যা প্রাপ্তির উপদেশ

    भाषार्थ

    (মে) আমার (জিহ্বায়াঃ) রস জয়ী, জিহ্বার (অগ্রে) অগ্রভাবে (মধু) জ্ঞান [বা মধুর রস] হোক এবং (জিহ্বামূলে) জিহ্বা মূলে (মধূলকম্) জ্ঞানের লাভ [বা মধুর স্বাদ] হোক। (মম) আমার (ক্রতৌ) কর্ম বা বুদ্ধিতে (ইৎ) -ই (অহ) অবশ্য (অসঃ) তুমি অবস্থান করো, (মম চিত্তম্) আমার চিত্তে (উপায়সি) তুমি প্রবেশ করো ॥২॥

    भावार्थ

    যখন মনুষ্য বিদ্যা অনুশীলন, মনন এবং পরীক্ষণ দ্বারা প্রেমপূর্বক বিদ্যা প্রাপ্ত করে, তখন বিদ্যা তার হৃদয়ে আশ্রয় করে সুখের বর প্রদান করে॥২।।

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    भाषार्थ

    (মে) আমার (জিহ্বায়াঃ) জিহ্বার (অগ্রে) অগ্রভাগে (মধু) মধু হোক, (জিহ্বামূলে) জিহ্বার মূলে (মধূলকম্) মধুর আদানকারী মন হোক। (মম) আমার (ক্রতৌ) কর্মে (ইৎ) অবশ্য (অসঃ) হে মধু ! তুমি হও, (মম) এবং আমার (চিত্ত) চিত্তে (উপায়সি) তুমি প্রাপ্ত হও ।

    टिप्पणी

    [মধূলকম্ =মধু+ লা (আদানে, অদাদিঃ) + কঃ (কৃঞ্ ডঃ ঔণাদিক)। ক্রতু কর্মনাম (নিঘং০ ২।১)। মনে মধুর বিচার সদা থাকুক, এবং চিত্তে তার সম্যক জ্ঞান (চিতী সংজ্ঞানে, ভ্বাদিঃ)।]

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    हिंगलिश (1)

    Subject

    Sweet Temperament : Madhu Vidya

    Word Meaning

    My tongue should be coated with honey, so that I never use harsh language and always speak sweetly. I pray that I develop a sweet temperament and all my transactions should be sweet. मेरी जिह्वा के अग्रभाग पर मिठास हो,मेरी जिह्वा के मूल में भी मिठास हो.मैं मृदु भाषी बनूं ( मैं कटु शब्द न बोलूं ) मेरा चित्त और सब कर्म मधुरता पूर्ण हों .

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