Loading...
अथर्ववेद के काण्ड - 1 के सूक्त 6 के मन्त्र
मन्त्र चुनें
  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 6/ मन्त्र 4
    ऋषिः - सिन्धुद्वीपं कृतिः, अथवा अथर्वा देवता - अपांनपात् सोम आपश्च देवताः छन्दः - पथ्यापङ्क्तिः सूक्तम् - जल चिकित्सा सूक्त
    127

    शं न॒ आपो॑ धन्व॒न्या॑३ शमु॑ सन्त्वनू॒प्याः॑। शं नः॑ खनि॒त्रिमा॒ आपः॒ शमु॒ याः कु॒म्भ आभृ॑ताः। शि॒वा नः॑ सन्तु॒ वार्षि॑कीः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    शम् । न॒: । आप॑: । ध॒न्व॒न्या: । शम् । ऊं॒ इति॑ । स॒न्तु॒ । अ॒नू॒प्या: । शम् । न॒: । ख॒नि॒त्रिमा॑: । आप॑: । शम् । ऊं॒ इति॑ । या: । कुम्भे । आऽभृ॑ता: । शि॒वा: । न॒: । स॒न्तु । वार्षि॑की: ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    शं न आपो धन्वन्या३ शमु सन्त्वनूप्याः। शं नः खनित्रिमा आपः शमु याः कुम्भ आभृताः। शिवा नः सन्तु वार्षिकीः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    शम् । न: । आप: । धन्वन्या: । शम् । ऊं इति । सन्तु । अनूप्या: । शम् । न: । खनित्रिमा: । आप: । शम् । ऊं इति । या: । कुम्भे । आऽभृता: । शिवा: । न: । सन्तु । वार्षिकी: ॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 1; सूक्त » 6; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    आरोग्यता के लिये उपदेश।

    पदार्थ

    (नः) हमारे लिये (धन्वन्याः) निर्जल देश के (आपः) जल (शम्) सुखदायक, (उ) और (अनूप्याः) जलवाले देश के [जल] (शम्) सुखदायक (सन्तु) होवें। (नः) हमारे लिये (खनित्रिमाः) खनती वा फावड़े से निकाले गये (आपः) जल (शम्) सुखदायक होवें, (उ) और (याः) जो (कुम्भे) घड़े में (आभृताः) लाये गये वह भी (शम्) सुखदायी होवें, (वार्षिकीः) वर्षा के जल (नः) हमको (शिवाः) सुखदायी (सन्तु) होवें ॥४॥

    भावार्थ

    जैसे जल सब स्थानों में उपकारी होता है, वैसे ही जलसमान उपकारी मनुष्यों को प्रत्येक कार्य और प्रत्येक स्थान में परस्पर लाभ पहुँचाकर सुखी होना चाहिये ॥४॥

    टिप्पणी

    ४−शम्−१।३।१। सुखकारिण्यः। नः−अस्मभ्यम्। आपः−जलानि, जलवद् गुणिनः पुरुषाः। धन्वन्याः−कनिन् युवृषितक्षिराजिधन्विद्युप्रतिदिवः। उ० १।१५६। इति धवि गतौ-कनिन्। इदित्त्वात् नुम्। इति धन्वन्। भवे छन्दसि। पा० ४।४।११०। इति यत्। तित् स्वरितम्। पा० ६।१।१८५। इति स्वरितः। धन्वनि मरुभूमौ भवा आपः। ऊं इति। च। अनूप्याः। अनुगता आपो यत्रेति अनूपो देशः। ऋक्पूरब्धूः०। पा० ५।४।७४। इति अनु+अप्−अकारः समासान्तः। ऊदनोर्देशे। पा० ६।३।९८। इति अप् शब्दस्य अकारस्य ऊकारः। पूर्ववद् यत् प्रत्ययः स्वरितश्च। अनूपे जलप्राये देशे भवा आपः। खनित्रिमाः। खनु अवदारणे−अस्माच्छान्दसः क्त्रि प्रत्ययः। आर्धधातुकस्येड् वलादेः। पा० ७।२।३५। इति इडागमः। क्त्रेर्मम्नित्यम्। इति मप् खनित्रेण अस्त्रविशेषेण निर्वृत्ताः कूपोद्भवाः। कुम्भे। कुं भूमिम् उम्भति जलेन। उन्भ पूरणे-अच्। शकन्ध्वादित्वात् साधुः। घटे, कलशे। आ-भृताः। दृञ् हरणे-क्त। हृग्रहोर्भः−इति भत्वम्। आहृताः, आनीताः। शिवाः। सुखदात्र्यः। वार्षिकीः। छन्दसि ठञ्। पा० ४।३।१९। इति वर्षा+ठञ्। ङीप्। जसि पूर्वसवर्णदीर्घः। वार्षिक्यः, वर्षासु भवाः ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    विविध जल

    पदार्थ

    १. (न:) = हमारे लिए (धन्वन्या:) = मरुस्थल के शाद्वल प्रदेशों में होनेवाले (आप:) = जल (शम्) = शान्तिकर हों, (उ) = और (अनूप्या:) = कच्छ प्रदेशों, खादर में होनेवाले जल भी (शं सन्तु) = शान्ति देनेवाले हों। (खनित्रिमा:) = भूमि को खोदकर कुओं से प्राप्त होनेवाले (आपः) = जल (न:) = हमें (शम्) = शान्ति दें। (उ) = और (या:) = जो (कुम्भे) = घड़े में (अभृतः) = भरकर रक्खे गये हैं, वे जल भी हमारे लिए शान्ति दें और अन्त में बार्षिकी:-वृष्टि से प्राप्त होनेवाले जल (नः शिवा:) = हमारे लिए कल्याणकर हों। एवं, ये विविध प्रकार के जल हमें अनुकूलता के साथ नौरोग करते हुए शान्ति दें व हमारा कल्याण करें। २. भिन्न-भिन्न जल प्राप्त होते हैं, यहाँ इन सब जलों से नीरोगता के लिए प्रार्थना की गई है।

    भावार्थ

    विविधरूप में प्राप्त होनेवाले जल हमारा कल्याण करें।

    विशेष

    सूक्त के आरम्भ में कहा है कि जल रोगों का शमन व भयों का यावन करनेवाले हैं [१]। इनमें सब औषध विद्यमान है [२]। ये जल आरोग्य के लिए कवच हैं [३] । विविध प्रकार के जल हमारा कल्याण करें [४]। जलों के प्रयोग से शरीर को निर्दोष बनाकर अब उत्तम प्रचार व दण्ड-व्यवस्था से समाज-शरीर को निर्दोष बनाने का प्रकरण उपस्थित करते हैं। बहाव के धर्मवाले जलों का अन्दर-बाहर दो प्रकार से प्रयोग करके अपना रक्षण करनेवाला 'सिन्धुढीप'४ व ५ सुक्तों का ऋषि था। सिन्धूनां द्विधा प्रयोगेण आत्मानं पाति' इति सिन्धुद्वीपः। अठारहवें सूक्त के दो भाग हैं। एक भाग वह है जिसमें अशुभ लक्षणों का प्रतिपादन हैं और दूसरा भाग वह है जिसमें उन लक्षणों को दूर करने के उपायों का प्रतिपादन है। ये दोनों भाग मिन-से अवश्य हैं, परन्तु वे अत्यन्त स्पष्ट हैं। क्या शरीर के और क्या मन के सभी विकार 'निर्माणात्मक कार्यों में लगे रहने से, द्वेष न करने से, स्नेह से, काम-क्रोध-लोभ को काबू करने से, अनुकूल मति से, अनुकूल आत्म-प्रेरणा से ब प्रभु-स्मरण से' दूर होते हैं। विकारों का दूर होना ही सौभाग्य प्राति है। समाज के दोषों का नाश करनेवाला 'चातन' 'चातयति नाशयति' इति चातन: ७ व ८ सूक्तों का ऋषि है -

    इस भाष्य को एडिट करें

    भाषार्थ

    (नः) हमें (धन्वन्याः) मरुभूमि के (आपः) जल (शम्) शान्तिदायक तथा सुखदायक हों; (सन्तु) हों (अनूप्याः) जलप्राय प्रदेश के जल ( शम् उ ) शान्तिदायक तथा सुखदायक। (नः) हमें (खनित्रिमा:) खनन द्वारा उद्भूत कूपजल (शम्) शान्तिदायक तथा सुखकारक हों। (शम् उ ) शान्तिदायक तथा सुखदायक हों, (याः) जोकि (कुम्भे आभृताः) कुम्भ में धारित हैं। (नः) हमें (शिवाः) कल्याणकारी (सन्तु) हों, (वार्षिकी:) वर्षा के आप: अर्थात् जल।

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    जलों का वर्णन

    भावार्थ

    ( नः ) हमारे लिये ( धन्वन्याः ) मरुभूमि के उत्पन्न हुए जल ( शं ) रोगों के शान्त करने वाले हों और ( अनूप्याः ) अनूप अर्थात् जलमय देश के जल ( शम् उ ) रोगों के शान्त करने वाले हों। ( खनित्रिमाः ) खोदकर कूओं से प्राप्त किये ( आपः ) जल ( नः शं ) हमारे रोगों को शान्त करने वाले हों और ( याः ) जो जल ( कुम्भे ) घडे और मटके में ( आभृताः ) लाकर रखे हों वे भी ( शम् उ ) रोगों को शान्त करने वाले हों और ( वार्षिकीः ) वर्षा के जल भी ( नः ) हमारे लिये ( शिवाः ) कल्याण तथा सुखकारी होते हुए रोग के शान्त करने वाले ( सन्तु ) हों ।

    टिप्पणी

    वेद के ये दोनों सूक्त ‘सलिल गण’ में पठित हैं। उनमें क्रम से पंचम सूक्त के प्रथम मन्त्र में जलों को ‘ मयोभूः ? और ‘उर्जू’=बलकर, दिव्यदृष्टिदायक बतलाया है। संक्षेप से आयुर्वेद के अनुसार नाना जलों के गुण इस प्रकार हैं । सामान्य जल के गुण धन्वन्तरि राजनिघण्टु में:- साधारणं जलं रुच्यं दीपनं पाचनं लघु। श्रमतृष्णापहं वातकफमेदोध्नपुष्टिदम्॥ पानीयं मधुरं हिमं च रुचिदं तृष्णाविशोपापहम्, मोहम्भ्रान्तिमपाकरोति कुरुते भुक्तान्नपक्तिं पराम् । निद्रालस्यनिरासनं विषहरं आन्तात्तसंतर्पणम् । नॄणां धीबलवीर्थबुद्धिजनन नष्टाङ्गपुष्टिप्रदम् ॥ साधारण जल रुचिकर, पाचन शक्ति का उद्दीपक, हलका, प्यास, थकावट, वात, कफ, मेद के दोषों का नाशक, पुष्टिप्रद, मधुर, शीतल तृष्णा शोष का नाशक, मोह, भ्रम को दूर करता, अन्न को पकाने, निद्रा आलस्य ओर विष को दूर करनेहारा, विद्या, बुद्धि, वल और वीर्य का वर्धक और क्षीण अङ्ग को पुष्ट करता है । द्वितीय मन्त्र में ‘शिवतम रस’, तृतीय में वीर्यजनक और चतुर्थ में औषध रूप होकर रोगों का निवारक जल को कहा गया है। ये सब गुण नाना जलों में भिन्न २ रूप से पाये जाते हैं। जैसे:- गगनाम्बु त्रिदोषघ्नं गृहीतं मृत्सुभाजने । बल्यं रसायनं मेध्यं पात्रापेक्षि ततः परम्॥ आकाश से पड़ा जल तीनों दोषों का नाशक, बलकारी पवित्र रसायन है । षष्ट सूक्त के प्रथम मन्त्र में ‘देवीः आपः’— दिव्यवाय्वग्निसंयोगात् संहताः खात् पतन्ति याः। शिलाप्रकारबद्धास्ताः करका अमृतोपमाः॥ दिव्य वायु और अग्नि के संयोग से शिलारूप ओला बनकर गिरने वाला जल अमृत के समान है। इसी प्रकार से आकाश से पड़ें हिमों से आच्छादित पर्वतों से बहती नदियों के जल भी:― हिमवत्प्रभवाः पथ्या पुण्या देवर्षिसेविताः। नद्यः पाषाणसिक्ताश्च वाहिन्यो विमलोदकाः॥ शरीर के लिये पथ्य, आरोग्यजनक और पवित्र होते हैं । द्वितीय मन्त्र में सोम का वचन है कि जल में समस्त ओषधि हैं तथा रोग शांतिकर अग्नि है । इसके लिये राजनिघण्टु का पूर्ण प्रकरण देखने योग्य है । तृतीय मन्त्र में—“ज्योक् च सूर्यं दृशे” राजनिघण्टु में-रात के रखे शीतल जल के प्रातः पान का गुण:― सोयं सद्यः पतगपतिना स्पर्धते नेत्रशक्त्या । स्वर्गाचार्यं प्रहसति धिया द्वेष्टि दस्रौ च तन्वा ॥ उसकी नेत्रशक्ति सूर्य या गरुड के समान होजाती है और बुद्धि बृहस्पति और शरीर अश्विनीकुमारों के समान होजाता है। चतुर्थ मन्त्र में वर्षा के जलों के साथ साथ ४ प्रकार के जलों का वर्णन है, ‘धन्वन्य’, ‘अनूप्य’, ‘खनित्रिम’ और ‘कुम्भे-आभृत’। इनके भी भिन्न २ गुण आयुर्वेद में बतलाये गये हैं, वहां ही देखें । इति प्रथमोऽनुवाकः ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अपोनप्त्रीयं सूक्तम्। अथर्वा कृतिः सिन्धुद्वीपश्च ऋषी। ऋग्वेदे त्रिशिरास्त्वाष्ट्रः सिन्धु द्वीपोऽवाम्बरीष ऋषिः। आपो देवताः। पथ्यापंक्तिश्छन्दः । चतुर्ऋचं सृक्तम् ।

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (4)

    Subject

    Waters for Health and Happiness

    Meaning

    May waters of wells and tanks be good and auspicious for us. May waters stored in pots and jars and coolers be good and auspicious for us. And may waters collected from rain be good and auspicious for us. May waters destroy germs, viruses and ailments and promote good health.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    May the waters of the desert be for our well-being; also for well-being the waters of the low lands.May the waters dug out from earth be for our well-being; also for well-being those , that have been brought in pitchers. May the rainwaters also be beneficial for us (joy-giving to us).

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    May the water procured from the desert be auspicious for us, may the water obtained from the marsh be for our happiness, may the waters dug from earth be for our health and happiness. May the waters kept in the gass be for our pleasure and the water secured from rain be for our happiness.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    Bless us the Waters that rise in desert lands or marshy pools. Bless us the Waters dug from earth, bless us the waters brought in jars, bless us the waters of the Rains!

    Footnote

    Five different kinds of water have been mentioned in the verse. Each one of them has its own healing properties for a detailed account of the efficiency of these waters, one should study Dhanvantri's Raj Nighantu, and other books on medicine.

    इस भाष्य को एडिट करें

    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ४−शम्−१।३।१। सुखकारिण्यः। नः−अस्मभ्यम्। आपः−जलानि, जलवद् गुणिनः पुरुषाः। धन्वन्याः−कनिन् युवृषितक्षिराजिधन्विद्युप्रतिदिवः। उ० १।१५६। इति धवि गतौ-कनिन्। इदित्त्वात् नुम्। इति धन्वन्। भवे छन्दसि। पा० ४।४।११०। इति यत्। तित् स्वरितम्। पा० ६।१।१८५। इति स्वरितः। धन्वनि मरुभूमौ भवा आपः। ऊं इति। च। अनूप्याः। अनुगता आपो यत्रेति अनूपो देशः। ऋक्पूरब्धूः०। पा० ५।४।७४। इति अनु+अप्−अकारः समासान्तः। ऊदनोर्देशे। पा० ६।३।९८। इति अप् शब्दस्य अकारस्य ऊकारः। पूर्ववद् यत् प्रत्ययः स्वरितश्च। अनूपे जलप्राये देशे भवा आपः। खनित्रिमाः। खनु अवदारणे−अस्माच्छान्दसः क्त्रि प्रत्ययः। आर्धधातुकस्येड् वलादेः। पा० ७।२।३५। इति इडागमः। क्त्रेर्मम्नित्यम्। इति मप् खनित्रेण अस्त्रविशेषेण निर्वृत्ताः कूपोद्भवाः। कुम्भे। कुं भूमिम् उम्भति जलेन। उन्भ पूरणे-अच्। शकन्ध्वादित्वात् साधुः। घटे, कलशे। आ-भृताः। दृञ् हरणे-क्त। हृग्रहोर्भः−इति भत्वम्। आहृताः, आनीताः। शिवाः। सुखदात्र्यः। वार्षिकीः। छन्दसि ठञ्। पा० ४।३।१९। इति वर्षा+ठञ्। ङीप्। जसि पूर्वसवर्णदीर्घः। वार्षिक्यः, वर्षासु भवाः ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    बंगाली (3)

    पदार्थ

    (নঃ) আমাদের জন্য (ধন্বন্যাঃ) নির্জলা দেশের (আপঃ) জল (শম্) সুখদায়ক (সন্তু) হউক (নঃ) আমাদের জন্য (খনিত্রিমাঃ) কূপের (আপঃ) জল (শম্) সুখদায়ক হউক (উ) এবং (য়াঃ) যাহা (কুম্ভে) ঘটে (আভৃতাঃ) আনীত হইয়াছে তাহাও (শম্) সুখকারী হউক (বার্ষিকীঃ) বৃষ্টির জন্য (নঃ) আমাদের জন্য (শিবাঃ) সুখদায়ক (সন্তু) হউক।।
    ‘ধন্বন্যাঃ' ধন্বনি মরুভুমৌ ভবা আপঃ। অনুপ্যাঃ অনুগতা। আপঃ য়ত্রেতি অনূপো দেশঃ। 'খনিত্রিমা' খণিত্ৰেণ অন্ত্র 'বিশেষেণ নিব্রত্তাাঃ কূপোদ্ভবাঃ। 'কুম্ভে' কুং ভূমিং উদ্ভতি জলেন। করশে। ‘বার্ষিকীঃ’ বর্ষাসু ভবাঃ।।

    भावार्थ

    নির্জল মরুভূমির জল এবং সুজলা দেশের জল আমাদের জন্য সুখদায়ক হউক । কূপের জল, কুম্ভ রক্ষিত জর এবং বৃষ্টির জর আমাদের জন্য সুখকর হউক।।

    मन्त्र (बांग्ला)

    শং ন আপো ধন্বন্যাঃ ৩ শমু শন্ত্বনুপ্যাঃ । শং নঃ খনিত্রিমা আপঃ শমু য়াঃ কুম্ভ আভৃতাঃ শিবা নঃ সন্তু বার্ষিকীঃ।।

    ऋषि | देवता | छन्द

    অর্থবা কৃতিৰ্বা। আপঃ। পথ্যা পঙ্ক্তিঃ

    इस भाष्य को एडिट करें

    मन्त्र विषय

    (আরোগ্যতোপদেশঃ) আরোগ্য­তার জন্য উপদেশ

    भाषार्थ

    (নঃ) আমাদের জন্য (ধন্বন্যাঃ) নির্জল দেশের (আপঃ) জল (শম্) সুখদায়ক, (উ) এবং (অনূপ্যাঃ) জলময় দেশের [জল] (শম্) সুখদায়ক (সন্তু) হোক। (নঃ) আমাদের জন্য (খনিত্রিমাঃ) খননকারী যন্ত্রের মাধ্যমে উদ্ভূত (আপঃ) জল (শম্) সুখদায়ক হোক, (উ) এবং (যাঃ) যে জল (কুম্ভে) ঘড়ায়/কলসে (আভৃতাঃ) নিয়ে আসা হয়েছে তাও (শম্) সুখদায়ী হোক, (বার্ষিকীঃ) বর্ষার জল (নঃ) আমাদের (শিবাঃ) সুখদায়ী (সন্তু) হোক ॥৪॥

    भावार्थ

    যেভাবে জল সমস্ত স্থানে উপকারী হয়, সেভাবেই জলের সমান উপকারী মনুষ্যকে প্রত্যেক কার্যে এবং প্রত্যেক স্থানে পরস্পর লাভ পৌঁছে সুখী হওয়া উচিত ॥৪॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    भाषार्थ

    (নঃ) আমাদের (ধন্বন্যাঃ) মরুভূমির (আপঃ) জল (শম্) শান্তিদায়ক ও সুখদায়ক (সন্তু) হোক (অনূপ্যাঃ) জলপ্রায় প্রদেশের জল (শম্ উ) শান্তিদায়ক ও সুখদায়ক হোক। (নঃ) আমাদের (খনিত্রিমাঃ) খনন দ্বারা উদ্ভূত কূপজল (শম্) শান্তিদায়ক ও সুখকারক হোক। (শম্ উ) শান্তিদায়ক ও সুখদায়ক হোক, (যাঃ) যা (কুম্ভে আভৃতাঃ) কুম্ভে ধারিত আছে। (নঃ) আমাদের (শিবাঃ) কল্যাণকারী (সন্তু) হোক, (বার্ষিকীঃ) বর্ষার আপঃ অর্থাৎ জল।

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिंगलिश (1)

    Subject

    जल का महत्व

    Word Meaning

    (धन्वन्या: आप:) मरुभूमि में उपलब्ध जल, (अनूप्या:)जलमय देश में उपलब्ध जल, (खनमित्रा: ) खोद कर कूओं से प्राप्त जल, (कुम्भे आभृता: ) घड़े, मटके में लाकर रखे जल,(वार्षिकी:)वर्षा के एकत्रित किए जल, सब शांति,सुखदायक और व्याधिओं को शान्त करने वाले हों | }

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top