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अथर्ववेद के काण्ड - 15 के सूक्त 10 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 10/ मन्त्र 2
    ऋषिः - अध्यात्म अथवा व्रात्य देवता - त्रिपदार्ची पङ्क्ति छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
    51

    श्रेयां॑समेनमा॒त्मनो॑ मानये॒त्तथा॑ क्ष॒त्राय॒ ना वृ॑श्चते॒ तथा॑ रा॒ष्ट्राय॒ना वृ॑श्चते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    श्रेयां॑सम् । ए॒न॒म् । आ॒त्मन॑: । मा॒न॒ये॒त् । तथा॑ । क्ष॒त्राय॑ । न । आ । वृ॒श्च॒ते॒ । तथा॑ । रा॒ष्ट्राय॑ । न । आ । वृ॒श्च॒ते॒ ॥१०.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    श्रेयांसमेनमात्मनो मानयेत्तथा क्षत्राय ना वृश्चते तथा राष्ट्रायना वृश्चते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    श्रेयांसम् । एनम् । आत्मन: । मानयेत् । तथा । क्षत्राय । न । आ । वृश्चते । तथा । राष्ट्राय । न । आ । वृश्चते ॥१०.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 10; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अतिथिसत्कार की महिमा का उपदेश।

    पदार्थ

    वह [राजा] (एनम्) उस [अतिथि] को (आत्मनः) अपने से (श्रेयांसम्) अधिक श्रेष्ठ (मानयेत्) सन्मान करे, (तथा) उस प्रकार [सत्कार] से वह [राजा] (क्षत्राय) क्षत्रिय कुल के लिये (न)नहीं (आ) कुछ (वृश्चते) दोषी होता है, और (तथा) उस प्रकार से (राष्ट्रम्) राज्यके लिये भी (न) नहीं (आ) कुछ (वृश्चते) दोषी होता है ॥२॥

    भावार्थ

    जब ब्रह्मवादी आप्तविद्वान् अतिथि राजा के घर आवे, राजा उसको अपने से अधिक गुणी जानकर यथावत्सत्कार करे, जिस से उसके सदुपदेश से दोषों के मिटने पर उसके कुल की और राज्य कीवृद्धि होवे ॥१, २॥

    टिप्पणी

    २−(श्रेयांसम्) प्रशस्यतरम् (आत्मनः) आत्मसकाशात् (मानयेत्)सत्कुर्यात् (तथा) तेन प्रकारेण (क्षत्राय) क्षत्रियकुलाय (न) निषेधे (आ) ईषत् (वृश्चते) वृश्च्यते। छिद्यते। दूषितो भवति (राष्ट्राय) राज्यसंपादनाय। अन्यद्गतम् ॥

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    विषय

    राजा द्वारा विद्वान् खात्य का सत्कार

    पदार्थ

    १. (तत्) = इसलिए (यस्य राज्ञः गृहान) = जिस राजा के घर को (एवं विद्धान् व्रात्य:) = इसप्रकार ज्ञानी व्रती (अतिथिः आगच्छेत्) = अतिथिरूपेण प्राप्त हो, राजा को चाहिए कि (एनम्) = इसको (आत्मनः श्रेयांसम्) = अपने से अधिक श्रेष्ठ को (मानयेत्) = मान दे तथा वैसा करने पर यह राजा (क्षत्राय) = क्षतों से त्राण करनेवाले बल के लिए न (आवृश्चते) = अपने को छिन्न करनेवाला नहीं होता तथा वैसा करने पर (राष्ट्राय) = राष्ट्र के लिए न (आवृश्चते) = अपने को छिन्न करनेवाला नहीं होता, अर्थात् यह विद्वान् व्रात्य अतिथि का सत्कार करनेवाला राजा उससे उत्तम प्रेरणाएँ प्राप्त करके बल व राष्ट्र का वर्धन करनेवाला होता है।

    भावार्थ

    राजा राष्ट्र में आये विद्वान् व्रात्य का उचित सत्कार करे। उससे उत्तम प्रेरणाएँ प्राप्त करता हुआ राष्ट्र के बल व ऐश्वर्य का वर्धन करनेवाला हो।

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    भाषार्थ

    (एनम्) इस अतिथि को (आत्मनः) अपने से (श्रेयांसम्) श्रेष्ठ जान कर (मानयेत्) इसका मान करे । (तथा) इस प्रकार राजा (क्षत्राय) क्षात्रधर्म से (न आवृश्चते) अपने आप को वञ्चित नहीं करता, (तथा) इस प्रकार (राष्ट्राय) राष्ट्र से (न आवृश्चते) अपने-आप को वञ्चित नहीं करता।

    टिप्पणी

    [क्षत्राय=क्षतात् किल त्रायत इत्युदग्रः क्षत्रस्य शब्दो भुवनेषु रूढः, (कालिदास, रघुवंश २।५३)। सब की रक्षा और पालन करना क्षत्रियों का धर्म है। राष्ट्राय नावृश्चते= रक्षा से विपरीतवृत्ति राजा राष्ट्रशासन से अपने को वञ्चित कर लेता है, प्रजा द्वारा च्युत कर दिया जाता है (द्र० अथर्व० ६।८७।१)]

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    विषय

    व्रात्य का आदर, ब्राह्मबल और क्षात्रबल का आश्रय।

    भावार्थ

    (तत्) तो (यस्य राज्ञः) जिस राजा के (गृहान्) घरों पर (एवं विद्वान्) इस प्रकार के व्रात्य प्रजापति के स्वरूप को साक्षात् करने वाला (व्रात्यः) व्रात्य प्रजापति (अतिथिः) अतिथि होकर (आगच्छेत्) आवे वह (एनम्) इस विद्वान् 'व्रातपति’ लोकपति प्रजापति, आचार्य को (आत्मनः) अपने लिये (श्रेयांसम्) अति अधिक कल्याणकारी अतिश्रेष्ठ मान कर (मानयेत्) उसका आदर करे (तथा) वैसा करने से वह (क्षत्राय) क्षेत्र अर्थात् क्षात्रबल या राज्य का (न आ वृश्चते) अपराध नहीं करता (तथा) उसी प्रकार वह (राष्ट्राय न आ वृश्चते) अपने राष्ट्र का भी अपराध नहीं करता। विद्वान् अतिथि की सेवा कर के राजा अपने क्षात्र तेज, बल और राज्य और राष्ट्र को हानि नहीं पहुंचाता।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १ द्विपदासाम्नी बृहती, २ त्रिपदा आर्ची पंक्तिः, ३ द्विपदा प्राजापत्या पंक्तिः, ४ त्रिपदा वर्धमाना गायत्री, ५ त्रिपदा साम्नी बृहती, ६, ८, १० द्विपदा आसुरी गायत्री, ७, ९ साम्नी उष्णिक्, ११ आसुरी बृहती। एकादशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Vratya-Prajapati daivatam

    Meaning

    And the ruler entertains him, treating him as better than even his own self, then the ruler does not revile, and does not from himself, alienate the Raja- Dharma and the Rashtra, the common wealth of social order.

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    Translation

    Consider him as conducive to his welfare and honour him. By doing so he is not cut off from the ruling power by doing so he is not cut off from the kingdom.

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    Translation

    Give respect to him as a superior to him-self (King). Doing so he does not act any thing against the interest of his princely rank and against the interest of his kingdom,

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    Translation

    Honor him as superior to himself. Thus he does not act against the interests of his princely rank or his kingdom.

    Footnote

    If a king honors a learned guest and considers him to be his well-wisher, he profits by his advice and improves the administration of his country thereby.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २−(श्रेयांसम्) प्रशस्यतरम् (आत्मनः) आत्मसकाशात् (मानयेत्)सत्कुर्यात् (तथा) तेन प्रकारेण (क्षत्राय) क्षत्रियकुलाय (न) निषेधे (आ) ईषत् (वृश्चते) वृश्च्यते। छिद्यते। दूषितो भवति (राष्ट्राय) राज्यसंपादनाय। अन्यद्गतम् ॥

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