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अथर्ववेद के काण्ड - 15 के सूक्त 10 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 10/ मन्त्र 3
    ऋषिः - अध्यात्म अथवा व्रात्य देवता - द्विपदा प्राजापत्या पङ्क्ति छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
    39

    अतो॒ वै ब्रह्म॑च क्ष॒त्रं चोद॑तिष्ठतां॒ ते अ॑ब्रूतां॒ कं प्र वि॑शा॒वेति॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अत॑: । वै । ब्रह्म॑ । च॒ । क्ष॒त्रम् । च॒ । उत् । अ॒ति॒ष्ठ॒ता॒म् । ते ‍इति॑ । अ॒ब्रू॒ता॒म् । कम् । प्र । वि॒शा॒य॒ । इति॑ ॥१०.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अतो वै ब्रह्मच क्षत्रं चोदतिष्ठतां ते अब्रूतां कं प्र विशावेति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अत: । वै । ब्रह्म । च । क्षत्रम् । च । उत् । अतिष्ठताम् । ते ‍इति । अब्रूताम् । कम् । प्र । विशाय । इति ॥१०.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 10; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अतिथिसत्कार की महिमा का उपदेश।

    पदार्थ

    (अतः) इस [अतिथिसत्कार] से (वै) निश्चय करके (ब्रह्म) ब्रह्मज्ञानी कुल (च च) और (क्षत्रम्)क्षत्रिय कुल (उत् अतिष्ठताम्) दोनों ऊँचे होवें, (ते) वे दोनों (अब्रूताम्)कहें−(कम्) किस [गुण] में (प्र विशाव इति) हम दोनों प्रवेश करें ॥३॥

    भावार्थ

    ब्रह्मज्ञानी औरक्षत्रिय लोग अतिथि का सत्कार करके विचार करें कि कौन से गुण स्वीकारकरने से हमारी उन्नति होवे। इस का उत्तर आगे है ॥३॥

    टिप्पणी

    ३−(अतः) एतस्मात् सत्कारात् (वै) निश्चयेन (ब्रह्म) ब्रह्मवादिकुलम् (च) (क्षत्रम्) क्षत्रियकुलम् (च) (उत्)उदेत्य (अतिष्ठताम्) तिष्ठताम् (ते) द्वे (अब्रूताम्) कथयताम् (कम्) कं गुणम् (प्र विशाव) आवां प्रविष्टौ भवाम (इति) ॥

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    विषय

    'ब्रह्म+क्षत्र' का उत्थान

    पदार्थ

    १. (अत:) = इसप्रकार राजा के द्वारा विद्वान् व्रात्य का मान करने से (वै) = निश्चयपूर्वक (ब्रह्म च क्षत्रं च) = ब्रह्म और क्षत्र-ज्ञान और बल-दोनों (उदतिष्ठताम्) = उन्नत होते हैं-उथित होते हैं। (ते) = वे ब्रहा और (क्षत्र अब्रुताम्)-कहते हैं (इति) = कि (कं प्रविशाव) = हम किसमें प्रवेश करें। २. (अत:) = इस राजा द्वारा व्रात्य के सत्कार से उत्पन्न हुआ-हुआ ब्रह्म-ज्ञान (वै) = निश्चय से (बृहस्पतिं एव) = ब्रह्मणस्पति-वेदज्ञ विद्वान् पुरोहित में ही प्रविशतु-प्रवेश करे तथा वा उसीप्रकार निश्चय से क्षत्रम्-बल इन्द्रम् राष्ट्रशत्रुओं के विदारक राजा में प्रवेश करे, (इति) = यह निर्णय ठीक है। ३. (अत:) = इस निर्णय के होने पर (वै) = निश्चय से (ब्रह्म) = ज्ञान (बृहस्पतिं एवं प्राविशत्) = बृहस्पति में ही प्रविष्ट हुआ और (क्षत्रं इन्द्रम्) = बल ने शत्रुविदारक राजा में आश्रय किया।

    भावार्थ

    राजा द्वारा विद्वान् व्रात्यों का आदर करने पर राष्ट्र पुरोहित बृहस्पति ब्रह्मसम्पन्न होता है, शत्रुविदारक राजा बल-सम्पन्न होता है। ब्रह्म व क्षत्र मिलकर राष्ट्र के उत्थान का कारण बनते हैं।

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    भाषार्थ

    (वै) निश्चय से, (अतः) इस विद्वान् व्रात्य अतिथि से, (ब्रह्म च क्षत्रं च) ब्रह्मसम्बन्धी और क्षत्रसम्बन्धी उपदेश (उदतिष्ठताम्) उठे, प्रकट हुए। (ते) वे ब्रह्म और क्षत्र (इति अब्रूताम्) यह बोले कि (कम्) किस में (प्रविशाव) हम प्रवेश करें ?

    टिप्पणी

    [मन्त्र में ब्रह्म और क्षत्र कोई व्यक्ति विशेष नहीं, जो कि वस्तुतः बोल सकें और पूछ सकें। ये दोनों भावद्योतक शब्द हैं। कविता की दृष्टि से इन अचेतन भावों को भी चेतनदृष्टया वर्णित किया है। ऐसे वर्णन वेदों में प्रायः हुए हैं, जिन्हें ऐतिहासिक मान लेना भ्रान्तिमूलक ही है। मन्त्र में यह भी दर्शाया है कि राजा द्वारा सम्मान का अधिकारी ऐसा ही विद्वान् तथा व्रात्य अतिथि होना चाहिए, जोकि ब्राह्मधर्म और क्षात्रधर्म का उपदेश दे सकें]

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    विषय

    व्रात्य का आदर, ब्राह्मबल और क्षात्रबल का आश्रय।

    भावार्थ

    (अतः) उस विद्वान् प्रजापति रूप आचार्य से ही (ब्रह्म च) ब्रह्म-वेद और वेदज्ञ ब्राह्मण और (क्षत्रं च) क्षात्रबल और वीर्यवान् क्षत्रिय (उत् अतिष्ठताम्) उत्पन्न होते हैं। (ते अब्रूताम्) वे दोनों कहते हैं। (कम् प्रविशाव) हम दोनों ब्रह्मबल और क्षात्रबल कहां प्रविष्ट होकर रहें। (अतः) इस व्रात्य से उत्पन्न (ब्रह्म) ब्रह्मबल, ब्रह्मज्ञान, वेद और ब्राह्मण लोग (बृहस्पतिम् एव प्रविशतु) वृहस्पति परमेश्वर या महान् वेदज्ञ का आश्रय लें और (क्षत्रम्) क्षात्रबल, वीर्य (इन्दं प्रविशतु) एैश्वर्यवान् राजा का आश्रय लें। (तथा वा इति) ब्रह्म और क्षत्र दोनों को ‘तथाऽस्तु’ कह कर स्वीकार करता है। (अतः वै) निश्चय से उस व्रात्य आचार्य प्रजापति से उत्पन्न (ब्रह्म) ब्रह्मबल (बृहस्पतिम् एव) बृहस्पति आचार्य में (प्र अविशत्) प्रविष्ट है। और (क्षत्रम् इन्द्रं प्र अविशत्) क्षात्रबल राजा के आधीन होता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १ द्विपदासाम्नी बृहती, २ त्रिपदा आर्ची पंक्तिः, ३ द्विपदा प्राजापत्या पंक्तिः, ४ त्रिपदा वर्धमाना गायत्री, ५ त्रिपदा साम्नी बृहती, ६, ८, १० द्विपदा आसुरी गायत्री, ७, ९ साम्नी उष्णिक्, ११ आसुरी बृहती। एकादशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Vratya-Prajapati daivatam

    Meaning

    From this harmony, the spirit of Brahma, divine learning, and Kshatra, the spirit of social order, would rise stronger and say: where shall we enter and abide?

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    Translation

    From him, verily, sprang up the intellectual power and the ruling power; they said : " Who shall we enter?"

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    Translation

    From this (Vratya or act) spring up knowledge and the Administrative power. Both these say, whom should we enter into ?

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    Translation

    May this system of honoring the guest uplift both the spiritual-minded, and martial families. They both should ask, what characteristic should they imbibe.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३−(अतः) एतस्मात् सत्कारात् (वै) निश्चयेन (ब्रह्म) ब्रह्मवादिकुलम् (च) (क्षत्रम्) क्षत्रियकुलम् (च) (उत्)उदेत्य (अतिष्ठताम्) तिष्ठताम् (ते) द्वे (अब्रूताम्) कथयताम् (कम्) कं गुणम् (प्र विशाव) आवां प्रविष्टौ भवाम (इति) ॥

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