अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 10/ मन्त्र 11
ऋषिः - अध्यात्म अथवा व्रात्य
देवता - आसुरी बृहती
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
55
य आ॑दि॒त्यंक्ष॒त्रं दिव॒मिन्द्रं॒ वेद॑ ॥
स्वर सहित पद पाठय: । आ॒दि॒त्यम् । अ॒न्नम् । दिव॑म् । इन्द्र॑म् । वेद॑ ॥१०.११॥
स्वर रहित मन्त्र
य आदित्यंक्षत्रं दिवमिन्द्रं वेद ॥
स्वर रहित पद पाठय: । आदित्यम् । अन्नम् । दिवम् । इन्द्रम् । वेद ॥१०.११॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
अतिथिसत्कार की महिमा का उपदेश।
पदार्थ
(यः) जो [पुरुष] (क्षत्रम्) क्षत्रियसमूह को (आदित्यम्) सूर्य [सूर्यसमान तेजस्वी] और (दिवम्)प्रकाशमान राजनीति को (इन्द्रम्) ऐश्वर्य (वेद) जानता है ॥११॥
भावार्थ
मनुष्य प्रजापालन मेंदक्ष और सुनीतिप्रचार में चतुर होकर ऐश्वर्य बढ़ावें ॥१०, ११॥
टिप्पणी
११−(यः) पुरुषः (आदित्यम्) सूर्यवत्तेजोमयम् (क्षत्रम्) क्षत्रियकुलम् (दिवम्) दिवु द्युतौ गतौच-डिवि। दीप्यमानां राजनीतिम् (इन्द्रम्) ऐश्वर्यम् (वेद) जानाति ॥
विषय
पृथिवी+द्यौ [ज्ञान व बल]
पदार्थ
१. (इयं वा उ पृथिवी) = यह पृथिवी ही निश्चय से (बृहस्पति:) = बृहस्पति है, (द्यौः एव इन्द्रः) = द्युलोक ही इन्द्र है। जैसे पृथिवी व धुलोक माता व पिता के रूप में होते हुए सब प्राणियों का धारण करते हैं [द्यौष्पिता, पृथिवीमाता], इसीप्रकार बृहस्पति व इन्द्र-ज्ञानी पुरोहित व राजा मिलकर राष्ट्र का धारण करते हैं। २. (अयं वा उ अग्नि:) = निश्चय से यह अग्नि ही ब्रह्म-ज्ञान है और (असौ आदित्यः क्षत्रम्) = वह आदित्य क्षत्र-बल है। ज्ञान ही राष्ट्र को ले-चलनेवाला 'अग्रणी' है। जैसे उदय होता हुआ सूर्य कृमियों का संहार करता है, उसीप्रकार क्षत्र व बल राष्ट्रशत्रुओं का उपमर्दन करनेवाला आदित्य है। ३. (एनम्) = इस व्यक्ति को (ब्रह्म आगच्छति) = ज्ञान समन्तात् प्राप्त होता है। यह (ब्रह्मवर्चसी भवति) = ब्रह्मवर्चसवाला होता है, (य:) = जो (पृथिवीं बृहस्पतिम्) = पृथिवी को बृहस्पति के रूप में तथा अग्निं ब्रह्म-पृथिवी के मुख्य देव अग्नि को बृहस्पति के मुख्य गुण 'ब्रह्म' [ज्ञान] के रूप में वेद-जानता है, ४. (एनम्) = इस व्यक्ति को (इन्द्रियम् आगच्छति) = समन्तात् वीर्य [बल] प्राप्त होता है, तथा यह (इन्द्रवान् भवति) = प्रशस्त इन्द्रियोंवाला होता है जो (आदित्यं क्षत्रम्) = सूर्य को बल के रूप में तथा (दिव्यम्) = सूर्याधिष्ठान द्युलोक को (इन्द्रम्) = बल के अधिष्ठानभूत राजा के रूप में देखता है।
भावार्थ
हम ज्ञान को ही माता के रूप में जानें 'ज्ञानाधिपति, बृहस्पति' पृथिवी के रूप में है। इसका गुण 'ज्ञान' अग्नि है। इसे प्राप्त करके हम ब्रह्मवर्चस्वी हो। बल को हम रक्षक पिता युलोक के रूप में देखें। द्युलोक इन्द्र है तो उसका मुख्य देव आदित्य बल है। इस तत्त्व को समझकर हम प्रशस्त, सबल इन्द्रियोंवाले बनें।
भाषार्थ
(यः) जो (आदित्यम्) आदित्य को (क्षत्रम्) क्षत्र और (दिवम्) द्युलोक को (इन्द्रम्) इन्द्र (वेद) जानता तथा तदनुकूल आचरण करता है। इन्द्रियम् = धनयाम् (निघं० २।१०)।
टिप्पणी
[अनुसन्धान सम्बन्धी निर्देश:— पृथिवी= बृहस्पति, द्यौः = इन्द्रः अग्निः =ब्रह्म आदित्यः = क्षत्रम् इस प्रकार "बृहस्पतिः, पृथिवी, ब्रह्म, अग्निः" शब्द मन्त्रार्थ में लगभग पारस्परिक सम्बन्धी रूप में प्रयुक्त किये जा सकते हैं, प्रकरणानुसार। तथा "इन्द्रः, द्यौः, क्षत्रम्, आदित्यः" शब्द भी लगभग पारस्परिक सम्बन्धीरूप में प्रयुक्त किये जा सकते हैं, प्रकरणानुसार। निर्देश में वाण द्वारा ब्रह्म का बृहस्पति में, तथा क्षत्र का इन्द्र में प्रवेश दर्शाया है।]
इंग्लिश (4)
Subject
Vratya-Prajapati daivatam
Meaning
Who knows that Aditya, the sun, is the social order, and heaven, enlightenment, is Indra, the ruler.
Translation
who knows the sun as ruling power and heaven as the resplendent army-chief.
Translation
Who knows sun as Kshatra and heavenly region as Indra.
Translation
Who knows that physical force is lustrous like the Sun, and statesmanship is sovereignty
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
११−(यः) पुरुषः (आदित्यम्) सूर्यवत्तेजोमयम् (क्षत्रम्) क्षत्रियकुलम् (दिवम्) दिवु द्युतौ गतौच-डिवि। दीप्यमानां राजनीतिम् (इन्द्रम्) ऐश्वर्यम् (वेद) जानाति ॥
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