अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 17/ मन्त्र 6
ऋषिः - अध्यात्म अथवा व्रात्य
देवता - याजुषी त्रिष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
41
तस्य॒व्रात्य॑स्य।योऽस्य॑ ष॒ष्ठो व्या॒नस्त आ॑र्त॒वाः ॥
स्वर सहित पद पाठतस्य॑ । व्रात्य॑स्य । य: । अ॒स्य॒ । ष॒ष्ठ: । वि॒ऽआ॒न: । ते । आ॒र्त॒वा: ॥१७.६॥
स्वर रहित मन्त्र
तस्यव्रात्यस्य।योऽस्य षष्ठो व्यानस्त आर्तवाः ॥
स्वर रहित पद पाठतस्य । व्रात्यस्य । य: । अस्य । षष्ठ: । विऽआन: । ते । आर्तवा: ॥१७.६॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
व्रात्य के सामर्थ्य का उपदेश।
पदार्थ
(तस्य) उस (व्रात्यस्य) व्रात्य [सत्यव्रतधारी अतिथि] का−(यः) जो (अस्य) इस [व्रात्य] का (षष्ठः) छठा (व्यानः) व्यान [सब शरीर में फैला हुआ वायु] है, (ते) वे (आर्तवाः)ऋतुओं में उत्पन्न पदार्थ हैं [अर्थात् वह फूल आदि की उत्पत्ति और उपकार काज्ञान देता है] ॥६॥
भावार्थ
सत्यव्रतधारी महात्माअतिथि संन्यासी अपने प्रत्येक व्यान वायु की चेष्टा में संसार का उपकार करताहै, जैसे वह प्रथम व्यान में भूमिविद्या, दूसरे में अन्तरिक्षविद्या, तीसरे मेंसूर्यविद्या वा आकाशविद्या, चौथे में नक्षत्रविद्या, पाँचवें में वसन्त आदिऋतुविद्या, छठे में ऋतुओं में उत्पन्न पुष्प फल आदि पदार्थविद्या और सातवें मेंसंवत्सर अर्थात् काल की उपभोगविद्या का उपदेश करता है ॥१-७॥
टिप्पणी
६−(आर्तवाः) ऋतुभवानांपुष्पफलादिपदार्थानां ज्ञानम्। अन्यत् पूर्ववत् स्पष्टं च ॥
विषय
सात व्यान
पदार्थ
१. (तस्य व्रात्यस्य) = उस व्रात्य का (यः अस्य) = जो इसका (प्रथम: व्यान:) = पहला व्यान है, (सा इयं भूमिः) = वह यह भूमि है। (तस्य व्रात्यस्य अस्य) = उस वात्य का (यः अस्य) = जो इसका (द्वितीयः व्यान:) = दूसरा व्यान है (तत् अन्तरिक्षम्) = वह अन्तरिक्ष है। (तस्य व्रात्यस्य) = उस व्रात्य का (यः अस्य) = जो इसका (तृतीयः व्यान:) = तीसरा व्यान है, (सा द्यौः) = वह द्युलोक है। (तस्य व्रात्यस्य) = उस व्रात्य का (यः अस्य) = जो इसका (चतुर्थः व्यान:) = चौथा व्यान है (तानि) = वे (नक्षत्राणि) = नक्षत्र हैं। (तस्य व्रात्यस्य) = उस व्रात्य का (यः अस्य) = जो इसका (पंचमः व्यान:) = पाँचवाँ व्यान है (ते ऋतव:) = वे ऋतुएँ हैं। (तस्य व्रात्यस्य) = उस व्रात्य का (यः अस्य) = जो इसका (षष्ठः व्यान:) = छठा व्यान है (ते आर्तवा:) = वे आर्तव है-उस-उस ऋतु में होनेवाले फल, अन्न आदि हैं। (तस्य व्रात्यस्य) = उस वात्य का (यः) = जो (अस्य) = इसका (सप्तमः व्यान:) = सातवाँ व्यान है, (सः संवत्सरः) = वह संवत्सर है। २. 'व्यान' का अर्थ आचार्य [स्वा० दयानन्द] यजुः १५.६५ पर 'विविधविद्या व्याप्ति' करते हैं। १.२० पर "विविधमन्यते व्याप्यते येन स सर्वेषां शुभगुणानां कर्मविद्योगानाञ्च व्याप्तिहेतुः" इस रूप में लिखते हैं। एवं स्पष्ट है कि व्यान का भाव-सब ज्ञानों की प्राप्ति-जीवन के निर्माण के लिए, जीवन को शुभगुणों व विद्याओं से व्याप्त करने के साधनभूत प्राणवायु पर आधिपत्य। इस नात्य के जीवन में प्रथम व्यान 'भूमि' है, द्वितीय अन्तरिक्ष', तृतीय 'द्यौ:' और चतुर्थ 'नक्षत्र'। यह व्रात्य इन सबके ज्ञान को सम्यक्तया प्राप्त करके क्रमश: अपने 'शरीर, मन व मस्तिष्क' [भूमि, अन्तरिक्ष, द्यौः] को उत्तम बनाता हुआ व विज्ञान के नक्षत्रों को अपने मस्तिष्क-गगन में उदित करता है। इनके उदय से ही वह जीवन के लिए आवश्यक सब सामग्नी को जुटानेवाला होता है। ३. पाँचवाँ व्यान 'ऋतुएँ' है, छठा 'आर्तव' ऋतुओं में होनेवाले अन्न व फल तथा सातवाँ 'संवत्सर'। यह व्रात्य अपनी ऋतुचर्या को ठीक रखता है, उस-उस ऋतु में उन 'आर्तव' पदार्थों का ठीक प्रयोग करता है, सम्पूर्ण वर्ष बड़ी नियमित गतिवाला होता है। इसी दृष्टिकोण से यह कालविद्या को खूब समझने का प्रयत्न करता है।
भावार्थ
व्रात्य 'भूमि, अन्तरिक्ष, धुलोक, नक्षत्र, ऋतु, आर्तव व संवत्सर' इन सबका ज्ञान प्राप्त करके इनका ठीक प्रयोग करता हुआ अपने जीवन को सुन्दरतम बनाता है।
भाषार्थ
(तस्य) उस (व्रात्यस्य) व्रतपति तथा प्राणिवर्गों के हितकारी परमेश्वर की [सृष्टि में], (यः) जो (अस्य) इस परमेश्वर का (षष्ठः) छठा (व्यानः) व्यान है, (ते) वे (आर्तवाः) ऋतुओं के अवयव या समूह है।
टिप्पणी
[आर्तवा= ऋतुओं के अवयव=मास। समूह= उत्तरायण, दक्षिणायन]
विषय
व्रात्य प्रजापति के सात व्यान।
भावार्थ
(यः अस्य षष्ठः व्यानः) जो इस जीव का छठा व्यान है वैसे ही (तस्य व्रात्यस्य) उस व्रात्य का छठा व्यान (ते आर्तवाः) वे ऋतु सम्बन्धी नाना पदार्थ हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१, ५ प्राजापत्योष्णिहौ, २ आसुर्यनुष्टुभौ, ३ याजुषी पंक्तिः ४ साम्न्युष्णिक्, ६ याजुषीत्रिष्टुप्, ८ त्रिपदा प्रतिष्ठार्ची पंक्तिः, ९ द्विपदा साम्नीत्रिष्टुप्, १० सामन्यनुष्टुप्। दशर्चं सप्तदशं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Vratya-Prajapati daivatam
Meaning
Of the Vratya, the sixth vyana is the products of the seasons.
Translation
Of that Vratya; what is his sixth diffused breath, that are those groups of seasons.
Translation
That which is the sixth Vyana of that Vratya are these things which spring up in seasons.
Translation
His sixth diffused breath are the products of seasons.
Footnote
He preaches how flowers, fruits, cereals and vegetables are grown in different seasons.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
६−(आर्तवाः) ऋतुभवानांपुष्पफलादिपदार्थानां ज्ञानम्। अन्यत् पूर्ववत् स्पष्टं च ॥
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