अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 17/ मन्त्र 7
ऋषिः - अध्यात्म अथवा व्रात्य
देवता - आसुरी अनुष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
44
तस्य॒व्रात्य॑स्य।योऽस्य॑ सप्त॒मो व्या॒नः स सं॑वत्स॒रः ॥
स्वर सहित पद पाठतस्य॑ । व्रात्य॑स्य । य: । अ॒स्य॒ । स॒प्त॒म: । वि॒ऽआ॒न: । स: । स॒म्ऽव॒त्स॒र: ॥१७.७॥
स्वर रहित मन्त्र
तस्यव्रात्यस्य।योऽस्य सप्तमो व्यानः स संवत्सरः ॥
स्वर रहित पद पाठतस्य । व्रात्यस्य । य: । अस्य । सप्तम: । विऽआन: । स: । सम्ऽवत्सर: ॥१७.७॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
व्रात्य के सामर्थ्य का उपदेश।
पदार्थ
(तस्य) उस (व्रात्यस्य) व्रात्य [सत्यव्रतधारी अतिथि] का−(यः) जो (अस्य) इस [व्रात्य] का (सप्तमः) सातवाँ (व्यानः) व्यान [सब शरीर में फैला हुआ वायु] है, (सः) वह (संवत्सरः) संवत्सर है [अर्थात् वर्ष में ऋतु महीने आदि कैसे बनते हैं और सबमनुष्य आदि प्राणी कैसे उसका उपभोग करते हैं, इस का वह ज्ञान कराता है] ॥७॥
भावार्थ
सत्यव्रतधारी महात्माअतिथि संन्यासी अपने प्रत्येक व्यान वायु की चेष्टा में संसार का उपकार करताहै, जैसे वह प्रथम व्यान में भूमिविद्या, दूसरे में अन्तरिक्षविद्या, तीसरे मेंसूर्यविद्या वा आकाशविद्या, चौथे में नक्षत्रविद्या, पाँचवें में वसन्त आदिऋतुविद्या, छठे में ऋतुओं में उत्पन्न पुष्प फल आदि पदार्थविद्या और सातवें मेंसंवत्सर अर्थात् काल की उपभोगविद्या का उपदेश करता है ॥१-७॥
टिप्पणी
७−(संवत्सरः)संपूर्वाच्चित्। उ० ३।७२। सम्+वस निवासे सरन्, स च चित्। संवसन्ति वसन्तादयोयत्र। कालोपभोगविद्या। अन्यत् पूर्ववत् स्पष्टं च ॥
विषय
सात व्यान
पदार्थ
१. (तस्य व्रात्यस्य) = उस व्रात्य का (यः अस्य) = जो इसका (प्रथम: व्यान:) = पहला व्यान है, (सा इयं भूमिः) = वह यह भूमि है। (तस्य व्रात्यस्य अस्य) = उस वात्य का (यः अस्य) = जो इसका (द्वितीयः व्यान:) = दूसरा व्यान है (तत् अन्तरिक्षम्) = वह अन्तरिक्ष है। (तस्य व्रात्यस्य) = उस व्रात्य का (यः अस्य) = जो इसका (तृतीयः व्यान:) = तीसरा व्यान है, (सा द्यौः) = वह द्युलोक है। (तस्य व्रात्यस्य) = उस व्रात्य का (यः अस्य) = जो इसका (चतुर्थः व्यान:) = चौथा व्यान है (तानि) = वे (नक्षत्राणि) = नक्षत्र हैं। (तस्य व्रात्यस्य) = उस व्रात्य का (यः अस्य) = जो इसका (पंचमः व्यान:) = पाँचवाँ व्यान है (ते ऋतव:) = वे ऋतुएँ हैं। (तस्य व्रात्यस्य) = उस व्रात्य का (यः अस्य) = जो इसका (षष्ठः व्यान:) = छठा व्यान है (ते आर्तवा:) = वे आर्तव है-उस-उस ऋतु में होनेवाले फल, अन्न आदि हैं। (तस्य व्रात्यस्य) = उस वात्य का (यः) = जो (अस्य) = इसका (सप्तमः व्यान:) = सातवाँ व्यान है, (सः संवत्सरः) = वह संवत्सर है। २. 'व्यान' का अर्थ आचार्य [स्वा० दयानन्द] यजुः १५.६५ पर 'विविधविद्या व्याप्ति' करते हैं। १.२० पर "विविधमन्यते व्याप्यते येन स सर्वेषां शुभगुणानां कर्मविद्योगानाञ्च व्याप्तिहेतुः" इस रूप में लिखते हैं। एवं स्पष्ट है कि व्यान का भाव-सब ज्ञानों की प्राप्ति-जीवन के निर्माण के लिए, जीवन को शुभगुणों व विद्याओं से व्याप्त करने के साधनभूत प्राणवायु पर आधिपत्य। इस नात्य के जीवन में प्रथम व्यान 'भूमि' है, द्वितीय अन्तरिक्ष', तृतीय 'द्यौ:' और चतुर्थ 'नक्षत्र'। यह व्रात्य इन सबके ज्ञान को सम्यक्तया प्राप्त करके क्रमश: अपने 'शरीर, मन व मस्तिष्क' [भूमि, अन्तरिक्ष, द्यौः] को उत्तम बनाता हुआ व विज्ञान के नक्षत्रों को अपने मस्तिष्क-गगन में उदित करता है। इनके उदय से ही वह जीवन के लिए आवश्यक सब सामग्नी को जुटानेवाला होता है। ३. पाँचवाँ व्यान 'ऋतुएँ' है, छठा 'आर्तव' ऋतुओं में होनेवाले अन्न व फल तथा सातवाँ 'संवत्सर'। यह व्रात्य अपनी ऋतुचर्या को ठीक रखता है, उस-उस ऋतु में उन 'आर्तव' पदार्थों का ठीक प्रयोग करता है, सम्पूर्ण वर्ष बड़ी नियमित गतिवाला होता है। इसी दृष्टिकोण से यह कालविद्या को खूब समझने का प्रयत्न करता है।
भावार्थ
व्रात्य 'भूमि, अन्तरिक्ष, धुलोक, नक्षत्र, ऋतु, आर्तव व संवत्सर' इन सबका ज्ञान प्राप्त करके इनका ठीक प्रयोग करता हुआ अपने जीवन को सुन्दरतम बनाता है।
भाषार्थ
(तस्य) उस (व्रात्यस्य) व्रतपति तथा प्राणिवर्गों के हितकारी परमेश्वर की [सृष्टि में], (यः) जो (अस्य) इस परमेश्वर का (सप्तमः) सातवां (व्यानः) ब्यान है, (सः) यह (संवत्सरः) वर्ष है।
टिप्पणी
[प्राण, अपान, व्यान=ये दो प्रकार के हैं, व्यष्टि१ तथा समष्टि। व्यष्टिरूप में तो अस्मदादि प्राणियों में वर्तमान है, और समष्टिरूप में ब्रह्माण्ड में। व्यष्टिरूप प्राण, नासिका से फेफड़ों तक गति करता है, और फेफड़ों में रक्त में मिलकर शरीरावयवों को पुष्टि देता है। अपान का कार्य है शरीर के मल को शरीर से बाहिर फैंकना। फेफड़ों की मलिन वायु CO2 (कार्बन डायोक्साइड) को नासिका द्वारा प्रश्वासरूप में बाहिर फैंकना, तथा मल-मूत्र और पसीने आदि को शरीर से पृथक् करना– अपान का कार्य है। अपान२ शब्द में “अप" का अर्थ है पृथक् करना। व्यष्टिरूप में व्यान का स्थान है, सुषुम्णा, इडा, तथा पिङ्गला नाड़ियां। सुषुम्णा अतिसूक्ष्म नली के सदृश है, जो कि गुदा के निकट से मेरुदण्ड (Spinal Column) के भीतर होती हुई मस्तिष्क के ऊपर तक चली गई है। इसी गुदा के स्थान से इस के वामभाग से इडा और दक्षिणभाग से पिङ्गला नासिकामूल पर्यन्त चली गई हैं। सुषुम्णा नाड़ी, शाखाप्रशाखारूप में समग्र शरीर में फैल कर, शरीर के सब अङ्ग-प्रत्ङ्गयों को सक्रिय बना रही है। यह नाड़ी-संस्थान, व्यान का स्थान है। इसीलिए कहा है कि "व्यानः सर्वशरीरगः"। समष्टि-ब्रह्माण्ड के प्राण,अपान,और व्यान के आश्रय पर व्यष्टि शरीर के प्राण आदि की स्थिति है। ब्रह्माण्ड के प्राण, अपान और व्यान के मन्त्रों में सप्तविध रूप में दर्शाया है। अग्नि, आदित्य, चन्द्रमा, पवमान, आपः, पशवः, प्रजाः ये सब प्राणरूप हैं। पार्थिव अग्नि पाकक्रिया में सहायक होने के कारण तथा औदर्य अग्नि अन्न पचा कर शरीर के तापमान को बनाएं रखने के कारण प्राण है। आदित्य वर्षा के कारण, तथा ताप-प्रकाश देने के कारण प्राण है। चन्द्रमा द्वारा ओषधियों में रस संचार होता है जिन का कि हम सेवन कर जीवित रहते हैं, इसलिये चन्द्रमा भी प्राण है। "चन्द्रमा ओषधीनामधिपतिः" है । वायु और जल प्राणरूप हैं यह अतिस्पष्ट है। पशु भार ढोने, कृषिकर्म में सहायक होने, तथा दूध आदि देने से प्राणरूप है। वैयक्तिक, सामाजिक आदि कार्यों में परस्पर सहायक होने से प्रजाजन भी प्राणरूप है। अकेला व्यक्ति केवल अपने ही आश्रय पर जीवित नहीं रह सकता, न उत्पन्न ही हो सकता है। ये सातों प्राण समष्टि प्राण है। इन्हीं के आश्रय प्रत्येक प्राणी जीवित रहता और उत्पन्न होता है। सात अपान है-पौर्णमासेष्टि, अष्टकेष्टि, अमावास्येष्टि, यज्ञ, श्रद्धा, दीक्षा, तथा दक्षिणा । इन में से श्रद्धा आदि तीन तो प्रेरक रूप है, और प्रेर्य इष्टियां तथा यज्ञ अपानरूप है। प्रेरक होने के कारण श्रद्धा आदि को भी अपान कहा है। यज्ञों से वर्षा हो कर अन्नाभाव दूर होता, रोग और रोगकीटाणु नष्ट होते, वायु जल स्थल की शुद्धि होती,- इस अपाकरण के कारण इन्हे अपान कहा है। यज्ञ और श्रद्धा आदि जीवन के अविनाभावरूप में साधक नहीं, इस लिये प्राणरूप भी नहीं। अग्नि, आदित्य आदि जीवन के अविनाभावरूप में साधक हैं, अतः प्राणरूप हैं। व्यान हैं-भूमि, अन्तरिक्ष, द्यौः, नक्षत्र, ऋतुएं-ऋतुओं के अवयव या समूह, तथा संवत्सर। भूमि आश्रय है अग्नि-प्राण का, अन्तरिक्ष आश्रय है पवमान-प्राण का, द्यौः आश्रय है आदित्य-प्राण का, नक्षत्र आश्रय हैं चन्द्रमा-प्राण का। ऋतु आदि काल सामान्य आश्रय है, प्राणी और अप्राणी जगत् के। इस प्रकार समस्त प्राणी और अप्राणी जगत् के आश्रय होने के कारण भूमि आदि, व्याष्टिव्यान के सदृश व्यापी होने से, व्यानरूप३ है] [१. देखो अथर्व० १५।२।५।३ की व्याख्या। २. अपान= अप (पृथक्)+अन (प्राण)। ३. वस्तुतः भूमि, अन्तरिक्ष तथा द्यौः त्रिलोकीरूप है। नक्षत्र द्युलोक के ही अवयव हैं। नक्षत्रों का पृथक वर्णन इसलिये वेदों में होता है, चूंकि नक्षत्रमण्डलों में ही सूर्य और उसके परिवार का परिभ्रमण हो रहा है। नक्षत्र और अन्य तारायण मिलकर, द्यौः है। ऋतु, आर्तव और संवत्सर कालरूप है। शेष समग्र प्राणि-अप्राणी जगत् , इसी त्रिलोकी और काल के आश्रय में विद्यमान है। अतः त्रिलोकी और काल का व्यापी-रूप होने के कारण इन्हें व्यान कहा है। जैसे कि व्यष्टि व्यान, शरीर में व्यापी होने के कारण, व्यानरूप है।]
विषय
व्रात्य प्रजापति के सात व्यान।
भावार्थ
(यः अस्य सप्तमः व्यानः) जो इस जीव का सांतवां व्यान है वैसे ही (तस्य व्रात्यस्य सः संवत्सरः) उस व्रात्य का सांतवां व्यान वह संवत्सर है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१, ५ प्राजापत्योष्णिहौ, २ आसुर्यनुष्टुभौ, ३ याजुषी पंक्तिः ४ साम्न्युष्णिक्, ६ याजुषीत्रिष्टुप्, ८ त्रिपदा प्रतिष्ठार्ची पंक्तिः, ९ द्विपदा साम्नीत्रिष्टुप्, १० सामन्यनुष्टुप्। दशर्चं सप्तदशं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Vratya-Prajapati daivatam
Meaning
Of the Vratya, the seventh vyana is the year.
Translation
Of that Vratya; what is his seventh diffused breath, that is the year
Translation
That which is the seventh vyana of vratya is this year.
Translation
His seventh diffused breath is the year.
Footnote
He preaches how months and seasons constitute the year, how the year is divided in days, weeks, and fortnights.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
७−(संवत्सरः)संपूर्वाच्चित्। उ० ३।७२। सम्+वस निवासे सरन्, स च चित्। संवसन्ति वसन्तादयोयत्र। कालोपभोगविद्या। अन्यत् पूर्ववत् स्पष्टं च ॥
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