अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 12
ऋषिः - प्रजापति
देवता - आर्ची अनुष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - दुःख मोचन सूक्त
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शि॒वेन॑ मा॒चक्षु॑षा पश्यतापः शि॒वया॑ त॒न्वोप॑ स्पृशत॒ त्वचं॑ मे ॥
स्वर सहित पद पाठशि॒वेन॑ । मा॒ । चक्षु॑षा । प॒श्य॒त॒ । आ॒प॒: । शि॒वया॑ । त॒न्वा᳡ । उप॑ । स्पृ॒श॒त॒ । त्वच॑म् । मे॒ ॥१.१२॥
स्वर रहित मन्त्र
शिवेन माचक्षुषा पश्यतापः शिवया तन्वोप स्पृशत त्वचं मे ॥
स्वर रहित पद पाठशिवेन । मा । चक्षुषा । पश्यत । आप: । शिवया । तन्वा । उप । स्पृशत । त्वचम् । मे ॥१.१२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
दुःख से छूटने का उपदेश।
पदार्थ
(आपः) हे विद्वानो ! (शिवेन) सुखप्रद (चक्षुषा) नेत्र से (मा) मुझे (पश्यत) तुम देखो, (शिवया) अपनेसुखप्रद (तन्वा) शरीर से (मे) मेरे (त्वचम्) शरीर को (उप स्पृशत) तुम सुख से छूओ॥१२॥
भावार्थ
विद्वान् लोग कृपादृष्टि से मनुष्यों को देख कर अपने समान स्वस्थ और उपकारी बनावें ॥१२॥यह मन्त्रआ चुका है-अ० १।३३।४ ॥
टिप्पणी
१२−(शिवेन) सुखप्रदेन (मा) माम् (चक्षुषा) नेत्रेण (पश्यत)अवलोकयत (आपः) म० ८। हे विद्वांसः (शिवया) सुखप्रदेन (तन्वा) शरीरेण (उप) सुखेन (स्पृशत) (त्वचम्) शरीरम् (मे) मम ॥
विषय
शिवचक्षु
पदार्थ
१. हे (आप:) = शरीर में सुरक्षित रेत:कणो! तुम (मा) = मुझे (शिवेन चक्षुषा पश्यत्) = कल्याणकारिणि दृष्टि से देखो। तुम्हारे द्वारा मेरा कल्याण हो-मेरी चक्षु आदि सब इन्द्रियाँ ठीक बनी रहें। यही तो 'सु-ख' है- इन्द्रियों का [ख] उत्तम होना [सु]। २. हे आप! तुम (मे त्वचम्) = मेरी त्वचा को (शिवया तन्वा) = कल्याणयुक्त शरीर से (उपस्पृशत) = स्पृष्ट करो, अर्थात् इन सुरक्षित रेत:कणों द्वारा मेरा शरीर कल्याणयुक्त हो और वह सुन्दर त्वचा से आवृत हुआ रहे।
भावार्थ
शरीर में सुरक्षित रेत:कण चक्षु आदि सब इन्द्रियों की शक्ति को ठीक बनाये रखते हैं और नीरोग शरीर को नीरोग त्वचा से आवृत किये रहते हैं।
भाषार्थ
(आपः) जलवत् शान्त हे आप्त महात्माओं ! (शिवेन चक्षुषा) कल्याणकारिणी दृष्टि द्वारा (मा) मुझ पर (पश्यत) कृपादृष्टि कीजिये, तथा (शिवया तन्वा) निज कल्याण कारिणी देह द्वारा (मे) मेरी (त्वचम्) त्वचा अर्थात् शरीर को (स्पृशत) स्पर्श कीजिये।
टिप्पणी
[मन्त्र ६,१०,११ द्वारा निष्पाप हुआ व्यक्ति, महात्माओं का संग कर, उन से विनय करता है कि आप कृपा पूर्वक मुझ पर अपनी कल्याण कारिणी दृष्टिपात कीजिये या सदा मुझ पर कृपादृष्टि कीजिये, और निज पवित्र और कल्याणकारी हस्त द्वारा मेरे शरीर का स्पर्श कीजिये। महात्माओं की कृपादृष्टि और उन द्वारा किया गया स्पर्श मनुष्य को पवित्र कर देता है। "हस्तस्पर्श चिकित्सा" वेदानुमोदित है। यथा- अयं मे हस्तो भगवानयं मे भगवत्तरः। अयं मे विश्वभेषजोऽयं शिवाभिमर्शनः ॥ हस्ताभ्यां दशशाखाभ्यां जिह्वा वाचः पुरोगवी। अनामयित्नुभ्यां हस्ताभ्यां ताभ्यां त्वाभि मृशामसि ।। (अथर्व० ४।१३।६,७)॥ अर्थात् यह मेरा हाथ भाग्यशाली है, और यह मेरा हाथ और अधिक भाग्यशाली है। यह मेरा हाथ विश्वभेषज अर्थात् महौषध रूप है, तथा यह स्पर्श द्वारा कल्याण करता है। दस शाखाओं वाले दो हाथों से पहिले, मेरी जिह्वा, रोगनिवारक वाणी को आगे प्रेरित करती है। रोग निवारक उन दो हाथों द्वारा तेरा हम स्पर्श करते हैं। रोगी के रोग को स्पर्श तथा वाकशक्ति (Suggetion) द्वारा, हटाने का वर्णन मन्त्रों में हुआ है]
विषय
पापशोधन।
भावार्थ
हे (आपः) जलों के समान स्वच्छ हृदय के आप्त पुरुषो ! आप लोग (मा) मुझे (शिवेन चक्षुषा) कल्याणकारी चक्षु से (पश्यत) देखो। और (शिवया तन्वा) कल्याणकारी शरीर से (मे त्वचम्) मेरी त्वचा को (उप स्पृशत) स्पर्श करो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रजापतिर्देवता। १, ३ साम्नी बृहत्यौ, २, १० याजुपीत्रिष्टुभौ, ४ आसुरी गायत्री, ५, ८ साम्नीपंक्त्यौ, (५ द्विपदा) ६ साम्नी अनुष्टुप्, ७ निचृद्विराड् गायत्री, ६ आसुरी पंक्तिः, ११ साम्नीउष्णिक्, १२, १३, आर्च्यनुष्टुभौ त्रयोदशर्चं प्रथमं पर्यायसूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Vratya-Prajapati daivatam
Meaning
O waters of purity, vibrations of divinity, radiations of holy light, watch and bless with the eye of peace, love and grace, touch and consecrate my body with your divine presence.
Translation
O waters, may you look at me with an auspicious eye; may you touch my skin with your auspicious body.
Translation
May these waters be the source of making us see by an auspicious eye and may they touch us with their auspicious structure and effect.
Translation
Look on me with a friendly eye, O learned persons, and touch my skin with your auspicious body.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१२−(शिवेन) सुखप्रदेन (मा) माम् (चक्षुषा) नेत्रेण (पश्यत)अवलोकयत (आपः) म० ८। हे विद्वांसः (शिवया) सुखप्रदेन (तन्वा) शरीरेण (उप) सुखेन (स्पृशत) (त्वचम्) शरीरम् (मे) मम ॥
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