अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 3
ऋषिः - प्रजापति
देवता - द्विपदा साम्नी बृहती
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - दुःख मोचन सूक्त
72
म्रो॒को म॑नो॒हाख॒नो नि॑र्दा॒ह आ॑त्म॒दूषि॑स्तनू॒दूषिः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठम्रो॒क: । म॒न॒:ऽहा । ख॒न: । नि॒:ऽदा॒ह: । आ॒त्म॒ऽदूषि॑: । त॒नू॒ऽदूषि॑: ॥१.३॥
स्वर रहित मन्त्र
म्रोको मनोहाखनो निर्दाह आत्मदूषिस्तनूदूषिः ॥
स्वर रहित पद पाठम्रोक: । मन:ऽहा । खन: । नि:ऽदाह: । आत्मऽदूषि: । तनूऽदूषि: ॥१.३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
दुःख से छूटने का उपदेश।
पदार्थ
(म्रोकः) सतानेवाला, (मनोहा) मन का नाश करनेवाला, (खनः) खोद डालनेवाला, (निर्दाहः) जलन करनेवाला, (आत्मदूषिः) आत्मा को दूषित करनेवाला, और (तनूदूषिः) शरीर को दूषित करनेवाला [जोरोग है] ॥३॥
भावार्थ
मनुष्यों को योग्य हैकि जिन रोगों वा दोषों से आत्मा और शरीर में विकार होवे, उनको ज्ञानपूर्वकहटावें और कभी न बढ़ने दें ॥२-४॥
टिप्पणी
३−(म्रोकः) म्रुचु गतौवेदे तु हिंसने-घञ्, कुत्वम्। हिंसकः (मनोहा) मनोनाशकः (खनः) खनु विदारणे-अच्।विदारकः। पीडकः (निर्दाहः) निरन्तरदाहकः (आत्मदूषिः) आत्मदूषको रोगः (तनूदूषिः)शरीरदूषकः ॥
विषय
आत्मदूधि:-तनूदूषिः
पदार्थ
१. उत्तम प्रेरणाओं के अभाव में मन बड़ा अशान्त हो जाता है। यह कामवासना' का शिकार होता है। यह 'काम' (म्रोकः) = [म्रुच to go, to move] मन को अतिशयेन चञ्चल व अशान्त कर देता है। (मनोहा) = मन को मार ही डालता है, चिन्तन की शक्ति रह ही नहीं जाती उत्साह नहीं रहता। (खन:) = [खनु अवदारणे] शरीर की सब शक्तियों का भी यह अवदारण कर देता है। (निर्दाह:) = वासना के सन्ताप से यह सदा जलता रहता है। २. (आत्मदूषि:) = यह काम मन को तो दूषित करता ही है (तनूदूषिः) = शरीर को भी दूषित कर डालता है। यह मदन [कामदेव] 'मन्मथ' है-चेतना को नष्ट करनेवाला है और 'मार' है-शरीर की शक्तियों को नष्ट करके मार ही डालता है।
भावार्थ
कामवासना जीवन में अशान्ति व अज्ञान पैदा करती है। यह शक्तियों का अवदारण करके हृदय में जलन का कारण बनती है। यह मन व शरीर को दूषित करती है।
भाषार्थ
मादक-अग्नि (म्रोकः) चञ्चलता पैदा करती, (मनोहा) मननशक्ति या मन का हनन करती, (खनः) शारीरिक शक्तियों का अवदारण करती, (निर्दाहः) मन और शरीर में दाह पैदा करती, (आत्मदूषिः) आत्मा को दूषित करती, (तनूदूषिः) तथा शरीर को दूषित करती है।
टिप्पणी
[म्रोकः म्रुच् गतौ)। गति=चञ्चलता। खन=खनु अवदारणे]
विषय
पापशोधन।
भावार्थ
(रुजन्) देह को तोड़ने वाला (परि रुजन्) सब प्रकार से देह को फोड़ता हुआ, पीड़ित करता हुआ (मृणन् प्रमृणन्) मारता हुआ, काटता हुआ रोग भी अग्नि है। वह (म्रोकः) अति संतापकारी, (मनोहा) मन का नाशक, चेतना का नाशक, (खनः) शरीर के रस धातुओं को खोद डालने वाला, (निर्दाहः) अति अधिक दाहकारी, जलन उत्पन्न करने वाला, (आत्मदूषिः) अपने चित्त में विकार उत्पन्न करने वाला और (तनूदूषिः) शरीर में दोष उत्पन्न करने वाला ये सब प्रकार के भी संताप ही हैं। (तम्) इस उक्त प्रकार सब संतापक पदार्थों को (इदम्) यह इस रीति से (अति सृजामि) अपने से दूर करता हूं कि मैं (तम्) उस संतापकारी पदार्थ को (मा) कभी न (अभि अवनिक्षि) प्राप्त करूं। मैं उस में डूब न जाऊं।
टिप्पणी
‘तिर्दाहात्म’ इति पैप्प० सं।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रजापतिर्देवता। १, ३ साम्नी बृहत्यौ, २, १० याजुपीत्रिष्टुभौ, ४ आसुरी गायत्री, ५, ८ साम्नीपंक्त्यौ, (५ द्विपदा) ६ साम्नी अनुष्टुप्, ७ निचृद्विराड् गायत्री, ६ आसुरी पंक्तिः, ११ साम्नीउष्णिक्, १२, १३, आर्च्यनुष्टुभौ त्रयोदशर्चं प्रथमं पर्यायसूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Vratya-Prajapati daivatam
Meaning
Whatever is burning, depressing the mind, piercing and uprooting, consuming, polluting body and soul.
Translation
Utterly destructive, mind-killer, digger in, burner, ruiner of soul, ruiner of body,
Translation
Mortifying. rooting up, mind-killing, burning, ruiner of spirit and ruiner of the body.
Translation
Vexations, mind-destroying, uprooting, consuming, ruiner of the soul, ruiner of the body.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३−(म्रोकः) म्रुचु गतौवेदे तु हिंसने-घञ्, कुत्वम्। हिंसकः (मनोहा) मनोनाशकः (खनः) खनु विदारणे-अच्।विदारकः। पीडकः (निर्दाहः) निरन्तरदाहकः (आत्मदूषिः) आत्मदूषको रोगः (तनूदूषिः)शरीरदूषकः ॥
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