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अथर्ववेद के काण्ड - 2 के सूक्त 27 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 27/ मन्त्र 4
    ऋषिः - कपिञ्जलः देवता - ओषधिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - शत्रुपराजय सूक्त
    52

    पा॒टामिन्द्रो॒ व्या॑श्ना॒दसु॑रेभ्य॒ स्तरी॑तवे। प्राशं॒ प्रति॑प्राशो जह्यर॒सान्कृ॑ण्वोषधे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पा॒टाम् । इन्द्र॑: । वि । आ॒श्ना॒त् । असु॑रेभ्य: । स्तरी॑तवे । प्राश॑म् । प्रति॑ऽप्राश: । ज॒हि॒ । अ॒र॒सान् । कृ॒णु॒ । ओ॒ष॒धे॒ ॥२७.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पाटामिन्द्रो व्याश्नादसुरेभ्य स्तरीतवे। प्राशं प्रतिप्राशो जह्यरसान्कृण्वोषधे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पाटाम् । इन्द्र: । वि । आश्नात् । असुरेभ्य: । स्तरीतवे । प्राशम् । प्रतिऽप्राश: । जहि । अरसान् । कृणु । ओषधे ॥२७.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 27; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    बुद्धि से विवाद करे, इसका उपदेश।

    पदार्थ

    (इन्द्रः) बड़े ऐश्वर्यवाले पुरुष ने (पाटाम्) चमकती हुयी [ओषधिरूप बुद्धि] को (असुरेभ्यः) असुरों से (स्तरीतवे) रक्षा के लिये (वि) विविध प्रकार से (आश्नात्) भोजन किया है। (प्राशम्) मुझ वादी के (प्रतिप्राशः) प्रतिवादियों को (जहि) मिटा दे, (ओषधे) हे ताप को पी लेनेवाली [ओषधि के समान बुद्धि ! उन सबको] (अरसान्) फींका (कृणु) कर ॥४॥

    भावार्थ

    जैसे उत्तम ओषधि के सेवन से रोग का नाश होकर शरीर और चित्त को आनन्द मिलता है, वैसे ही ऐश्वर्यशाली पुरुष बुद्धि के यथावत् प्रयोग से शत्रुओं का नाश करके शान्ति लाभ करते हैं ॥४॥ तीनों संहिताओं के (पाटाम्) पद के स्थान पर सायणभाष्य में (पाठाम्) है और भाष्यकार ने उसे ओषधिविशेष माना है। शब्दकल्पद्रुम कोष में लिखा है कि [पाठा] लताविशेष है, आकनादि भाषा नाम है। उसके गुण तिक्तता, गुरुता, उष्णता और वातपित्त, ज्वरपित्त, दाह, अतीसार, शूलनाशन आदि हैं ॥

    टिप्पणी

    ४–पाटाम्। पट गतिदीप्तिवेष्टनेषु–घञ्, टाप्। गतिम्। दीप्तिम्। विद्याम्। ओषधिम्। प्रसङ्गात् सायणभाष्योक्तम् [पाठा] इति पदं व्याख्यायते तद् यथा शब्दकल्पद्रुमकोषे। पठ्यते बहुगुणवत्तया कथ्यते इति। पठ–कर्मणि घञ्, अजादित्वात् टाप्, लताविशेषः, आकनादि इति भाषा, तत्पर्यायः प्राचीना, दीपनी...., अस्या गुणाः, तिक्तत्वम्, गुरुत्वम्, उष्णत्वम्, वातपित्तज्वरपित्तदाहातीसार- शूलनाशित्वम्, भग्नसन्धानकारित्वं च। वि। विविधम्। आश्नात्। अश भोजने–लङ्। अभक्षयत्। अन्यद् व्याख्यातम् ॥

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    विषय

    असुरों की पराजय

    पदार्थ

    १. (इन्द्रः) = इन्द्र ने (असुरेभ्यः तरीतवे) = असुरों से-प्राणशक्ति नाशक रोगकृमियों से पार पाने के लिए (पाटाम) = पाटा नामक ओषधि का (व्याश्नात्) = भक्षण किया। यह पाटा 'वातपित्तचरनी' तथा 'कफकण्ठरूजापहा' होने से रोगों की नाशक है। वात-पित व कफ तीनों के विकारों से होनेवाले कष्टों में यह उपयोगी है, अत: इन्द्र ने इसका भक्षण किया। २. इन्द्र से भक्षण की गई है (ओषधे) = ओषधे! तू (प्राशम्) = उत्कृष्ट भोजनवाले के (प्रतिप्राशम्) = विरोधी बनकर खा जानेवाले इन रोगों को (जहि) = नष्ट कर दे। तू इन रोगकृमियों को (अरसान्) = नीरस व शुष्क (कृणु) = कर दे।

    भावार्थ

    पाटा ओषधि वात-पित व कफ-जनित सभी विकारों की शान्ति के लिए उपयोगी है।

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    भाषार्थ

    (पाटाम्) पाटा१ को (इन्द्रः) जीवात्मा ने ( वि आश्नात् ) खाया (असुरेभ्यः) असुरों के लिये, (स्तरीतवे) अर्थात् उनके वध के लिये। (प्राशम्""") अर्थ पूर्ववत्।

    टिप्पणी

    [इन्द्र अर्थात जीवात्मा ने खाया। खाना धर्म शरीर का है। अत: जीवात्मा सशरीर२ है। प्राशम् अश भोजने (सायण)। अतः "प्राश" शब्द प्रश्नार्थक नहीं, जैसेकि सायण ने इस सूक्त में पूर्व के मन्त्र३ में कहा है पाटा के स्थान में "पाठा" पाठ (सायण)।] [१. पाटा=उत्पाटनयीला ओषधि, अर्थात् असुरों को उत्पाटन करनेवाली ओषधि (मन्त्र २)। २. इन्द्र जीवात्मा इन्द्रियों का प्रेरक है। ३. मन्त्र (१) की टिप्पणी।]

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    विषय

    ओषधि के दृष्टान्त से चितिशक्ति का वर्णन ।

    भावार्थ

    (असुरेभ्यः) असुरों, आसुरी भावों को (स्तरीतवे) बिनाश करने के लिये (इन्द्रः) इन्द्र आत्मा (पाटाम्) दीप्तमती तुझ आत्मशक्ति विज्ञानमयी, विवेकख्याति रूप प्रत्यक् चेतना शक्ति को (वि आ अश्नाद्) उपभोग करता है। (प्राशं० इत्यादि) पूर्ववत् ।

    टिप्पणी

    ‘पाठामिन्द्रः’ इति पाठः सायणसम्मतः। ‘पाय [ टा ] मिन्द्रो व्यश्नन हन्तवेऽसुरेभ्यः’ इति पैप्प० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कपिञ्जल ऋषिः। वनस्पतिर्देवता। १-४ अनुष्टुभः। सप्तर्चं सूक्तम् ॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Victory

    Meaning

    Indra, mighty ruler and warrior, in self-defence agaist demonic forces, ill health and disease takes the Pata herb. O herb, answer all doubts and questions raised by sceptics and negationists and silence them all one by one. Expose them as empty and meaningless.

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    Translation

    The resplendent one has consumed the pata herb for defence against evil forces. May you send a counter-missile against the missile. O herb, make my rivāls sapless, dull and flat.

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    Translation

    The mighty man eats the herb Pata for his protection from the diseases. This makes the diseases dull becoming counter questioner to him who questions its efficacy.

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    Translation

    The soul, for suppressing the ignoble sentiments, utilizes his spiritual power, full of knowledge and discernment, O intellect, refute thou, thee adversaries of mine, the debater O intellect, efficacious like the medicine, that cures fever, render all my opponents in the debate, dull and flat! [1]

    Footnote

    [1] Sayana takes पाटाम् as पाठाम् and interprets it as a medicine.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ४–पाटाम्। पट गतिदीप्तिवेष्टनेषु–घञ्, टाप्। गतिम्। दीप्तिम्। विद्याम्। ओषधिम्। प्रसङ्गात् सायणभाष्योक्तम् [पाठा] इति पदं व्याख्यायते तद् यथा शब्दकल्पद्रुमकोषे। पठ्यते बहुगुणवत्तया कथ्यते इति। पठ–कर्मणि घञ्, अजादित्वात् टाप्, लताविशेषः, आकनादि इति भाषा, तत्पर्यायः प्राचीना, दीपनी...., अस्या गुणाः, तिक्तत्वम्, गुरुत्वम्, उष्णत्वम्, वातपित्तज्वरपित्तदाहातीसार- शूलनाशित्वम्, भग्नसन्धानकारित्वं च। वि। विविधम्। आश्नात्। अश भोजने–लङ्। अभक्षयत्। अन्यद् व्याख्यातम् ॥

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    बंगाली (2)

    भाषार्थ

    (পাটাম্) পাটা১ কে (ইন্দ্রঃ) জীবাত্মা (বো আশ্নাৎ) ভক্ষণ করেছে (অসুরেভ্যঃ) অসুরদের জন্য, (স্তরীতবে) অর্থাৎ তাদের বধের জন্য। (প্রাশম্) প্রকর্ষরূপে ভোজনকারীকে উদ্দিষ্ট করে (প্রতিপ্রাশঃ) প্রতিদ্বন্দ্বী প্রাশকে (ওষধে) হে ঔষধি তুমি (জহি) নাশ করো (অরসান্ কুণু) এবং তাদের রসবিহীন করো।

    टिप्पणी

    [ইন্দ্র অর্থাৎ জীবাত্মা ভক্ষণ করেছে। ভক্ষণ ধর্ম শরীরের। অতঃ জীবাত্মা হল সশরীর২। প্রাশম্ অশ ভোজনে (সায়ণ)। অতঃ "প্রাশ" শব্দ প্রশ্নার্থক নয়, যেমনটা সায়ণ এই সূক্তে পূর্বের মন্ত্রে৩ বলেছে পাটা এর স্থানে "পাঠা" পাঠ (সায়ণ)।] [১. পাটা= উৎপাটনশীলা ঔষধি, অর্থাৎ অসুরদের উৎপাটনকারী ঔষধি (মন্ত্র ২)। ২. ইন্দ্র জীবাত্মা ইন্দ্রিয়-সমূহের প্রেরক। ৩. মন্ত্র (১) এর টিপ্পণী।]

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    मन्त्र विषय

    বুদ্ধ্যা বিবাদঃ কর্ত্তব্য ইত্যুপদিশ্যতে

    भाषार्थ

    (ইন্দ্রঃ) পরম্ ঐশ্বর্যবান পুরুষ (পাটাম্) দীপ্তিময় [ঔষধিরূপ বুদ্ধিকে] (অসুরেভ্যঃ) অসুরদের থেকে (স্তরীতবে) রক্ষার জন্য (বি) বিবিধ প্রকারে (আশ্নাৎ) ভোজন করেছে। (প্রাশম্) আমার [বাদীর] (প্রতিপ্রাশঃ) প্রতিবাদীদের (জহি) বিনাশ করো, (ওষধে) হে তাপ পানকারী [ঔষধির সমান বুদ্ধি ! সেই সকলকে] (অরসান্) ক্ষীণ/নীরস (কৃণু) করো ॥৪॥

    भावार्थ

    যেমন উত্তম ঔষধির সেবন দ্বারা রোগের নাশ হয়ে শরীর ও চিত্ত আনন্দ প্রাপ্ত হয়, সেভাবেই ঐশ্বর্যশালী পুরুষ বুদ্ধির যথাবৎ প্রয়োগ দ্বারা শত্রুদের নাশ করে শান্তি লাভ করে ॥৪॥ তিনটি সংহিতার (পাটাম্) পদের স্থানে সায়ণভাষ্যে (পাঠাম্) আছে এবং ভাষ্যকার তা ঔষধিবিশেষ মেনেছে। শব্দকল্পদ্রুম কোষে লেখা আছে [পাঠা] লতাবিশেষ, আকনাদি হল ভাষা নাম। তার গুণ তিক্ততা, গুরুতা, উষ্ণতা ও বাতপিত্ত, জ্বরপিত্ত, দাহ, অতিসার, শূলনাশন আদি ॥

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