अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 47/ मन्त्र 19
वि द्या॑मेषि॒ रज॑स्पृ॒थ्वह॒र्मिमा॑नो अ॒क्तुभिः॑। पश्यं॒ जन्मा॑नि सूर्य ॥
स्वर सहित पद पाठवि । द्याम् । ए॒षि॒ । रज॑: । पृ॒थु॒ । अह॑: । मिमा॑न: । अ॒क्तुभि॑: ॥ पश्य॑न् । जन्मा॑नि । सू॒र्य॒ ॥१७.१९॥
स्वर रहित मन्त्र
वि द्यामेषि रजस्पृथ्वहर्मिमानो अक्तुभिः। पश्यं जन्मानि सूर्य ॥
स्वर रहित पद पाठवि । द्याम् । एषि । रज: । पृथु । अह: । मिमान: । अक्तुभि: ॥ पश्यन् । जन्मानि । सूर्य ॥१७.१९॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
१३-२१। परमात्मा और जीवात्मा के विषय का उपदेश।
पदार्थ
[उस प्रकाश से] (सूर्य) हे सूर्य ! [रविमण्डल] (अहः) दिन को (अक्तुभिः) रात्रियों के साथ (मिमानः) बनाता हुआ और (जन्मानि) उत्पन्न वस्तुओं को (पश्यन्) दिखाता हुआ तू (द्याम्) आकाश में (पृथु)-फैले हुए (रजः) लोक को (वि) विविध प्रकार (एषि) प्राप्त होता है ॥१९॥
भावार्थ
जैसे सूर्य अपने प्रकाश से वृष्टि आदि द्वारा अपने घेरे के सब प्राणियों और लोकों का धारण-पोषण करता है, वैसे ही मनुष्य सर्वोपरि विराजमान परमात्मा के ज्ञान से परस्पर सहायक होकर सुखी होवें ॥१८, १९॥
टिप्पणी
१३-२१−एते मन्त्रा व्याख्याताः-अ० १३।२।१६-२४ ॥
विषय
दिन-रात्रि का 'पालन-चक्र'
पदार्थ
१. हे (सूर्य) = आकाश में निरन्तर सरण करनेवाले आदित्य! तू (द्याम्) = इस विस्तृत द्युलोक में (वि एषि) = विशेषरूप से प्राप्त होता है। द्युलोक में आकर (पृथुरजः) = इस विस्तृत अन्तरिक्षलोक में आगे और आगे बढ़ता है। इस गति के द्वारा (अक्तुभि:) = रात्रियों के साथ (अहः मिमान:) = दिनों का तू निर्माण करनेवाला होता है। २. इसप्रकार अपनी गति के द्वारा दिन-रात का निर्माण करता हुआ यह सूर्य (जन्मानि) = जन्म लेनेवाले प्राणियों को (पश्यन्) = देखता है-उनका पालन करता है [दुश् to look after] | दिन-रात्रि का यह चक्र हमारा सुन्दर निर्माण करता है। दिनभर की थकावट रात्रि में दूर हो जाती है। अकेला दिन व अकेली रात्रि मृत्यु ही है। दिन-रात्रि के क्रम के द्वारा सूर्य हमारा पालन करता है।
भावार्थ
सूर्य उदय होकर अन्तरिक्ष में आगे बढ़ता हुआ दिन व रात्रि के निर्माण द्वारा हमारा पालन करता है।
भाषार्थ
(सूर्य) हे सूर्यों के सूर्य! आप (जन्मानि) जन्म-मरण की व्यवस्था का (पश्यन्) निरीक्षण करते हुए, (द्याम्) द्युलोक में, (पृथुरजः) विस्तृत अन्तरिक्षलोक में, तथा (अक्तुभिः) रात्रियों के साथ (अहः) दिनों का (मिमानः) निर्माण करते हुए पृथिवीलोक में, (वि) इन विविध लोकों में (एषि) व्याप्त हो रहे हैं।
विषय
ईश्वर।
भावार्थ
हे (सूर्य) सूर्य ! सबके प्रेरक, उत्पादक, सूर्य के समान तेजस्विन् ! सूर्य जिस प्रकार (अहः) दिनको (अक्तुभिः) रात्रियों के साथ (मिमानः) बनाता हुआ (धाम) आकाश और (पृथु) विशाल (रजः) अन्तरिक्ष को (वि एषि) विविध प्रकार से व्यापता है और (जन्मानि पश्यन्) समस्त उत्पन्न होने वाले प्राणियों को देखता है या अपने ही प्रतिदिन के जन्मों को देखता है उसी प्रकार हे परमेश्वर महान् आत्मन् ! तू भी (अक्तुभिः) प्रलयकाल रूप रात्रियों से (अहः) ब्राह्म दिन, सर्ग काल को (मिमानः) मापता या परिमित करता हुआ (द्याम्) इस विशाल आकाश को और (पृथु रजः) विशाल अन्तरिक्ष को भी (वि एषि) विविध सृष्टियों से व्यापता है और (जन्मानि) उत्पन्न लोकों को और अपने ही बनाये नाना सर्गों को भी (पश्यन्) देखता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१-३ सुकक्षः। ४–६, १०-१२ मधुच्छन्दाः। ७-९ इरिम्बिठिः। १३-२१ प्रस्कण्वः। इन्द्रो देवता। गायत्र्यः। एकविंशतृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Indra Devata
Meaning
O sun, watching the species of various forms and traversing and measuring the wide worlds of existence by days and nights, you move to the regions of light and heaven. So may the Lord of Light Supreme, we pray, watch us, guard us and sustain in measure our life and actions through successive lives and births.
Translation
O All-impelling God, you making the day with night and beholding all the created worlds pervade heaven and spreading worlds.
Translation
O All-impelling God, you making the day with night and beholding all the created worlds pervade heaven and spreading worlds.
Translation
See 13.2.22.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१३-२१−एते मन्त्रा व्याख्याताः-अ० १३।२।१६-२४ ॥
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
১৩-২১ আধ্যাত্মোপদেশঃ ॥
भाषार्थ
[সেই প্রকাশ দ্বারা] (সূর্য) হে সূর্য ! [রবিমণ্ডল] (অহঃ) দিনকে (অক্তুভিঃ) রাত্রির সাথে (মিমানঃ) রচনা করে এবং (জন্মানি) উৎপন্ন বস্তুসমূহ (পশ্যন্) দেখিয়ে/প্রত্যক্ষ করিয়ে তুমি (দ্যাম্) আকাশে (পৃথু) বিস্তৃত (রজঃ) লোক-সমূহকে (বি) বিবিধ প্রকারে (এষি) প্রাপ্ত হও ॥১৯॥
भावार्थ
যেমন সূর্য নিজের প্রকাশ দ্বারা বৃষ্টি আদির মাধ্যমে নিজের আয়ত্তের সব প্রাণীদের এবং লোক-সমূহকে ধারণ-পোষণ করো, তেমনই মনুষ্য সর্বোপরি বিরাজমান পরমাত্মার জ্ঞান দ্বারা পরস্পর সহায়ক হয়ে সুখী হোক ॥১৮, ১৯॥
भाषार्थ
(সূর্য) হে সূর্য-সমূহের সূর্য! আপনি (জন্মানি) জন্ম-মরণের ব্যবস্থার (পশ্যন্) নিরীক্ষণ করে, (দ্যাম্) দ্যুলোকে, (পৃথুরজঃ) বিস্তৃত অন্তরিক্ষলোকে, তথা (অক্তুভিঃ) রাত্রি-সমূহের সাথে (অহঃ) দিন-সমূহ (মিমানঃ) নির্মাণ করে পৃথিবীলোকে, (বি) এই বিবিধ লোক-সমূহের মধ্যে (এষি) ব্যাপ্ত।
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