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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 69 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 69/ मन्त्र 2
    ऋषिः - मधुच्छन्दाः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - सूक्त-६९
    42

    यस्य॑ सं॒स्थे न वृ॒ण्वते॒ हरी॑ स॒मत्सु॒ शत्र॑वः। तस्मा॒ इन्द्रा॑य गायत ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यस्य॑ । स॒म्ऽस्थे । न । वृ॒ण्वते॑ । हरी॒ इति॑ । स॒मत्ऽसु॑ । शत्र॑व: ॥ तस्मै॑ । इन्द्रा॑य । गा॒य॒त॒ ॥६९.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यस्य संस्थे न वृण्वते हरी समत्सु शत्रवः। तस्मा इन्द्राय गायत ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यस्य । सम्ऽस्थे । न । वृण्वते । हरी इति । समत्ऽसु । शत्रव: ॥ तस्मै । इन्द्राय । गायत ॥६९.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 69; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    १-८ पराक्रमी मनुष्य के लक्षणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (संस्थे) संस्था [न्यायव्यवस्था] में (यस्य) जिस [वीर] के (हरी) पदार्थों के पहुँचानेवाले बल और पराक्रम को (समत्सु) संग्रामों के बीच (शत्रवः) वैरी लोग (न) नहीं (वृण्वते) ढकते हैं, (तस्मै) उस (इन्द्राय) इन्द्र [महाप्रतापी मनुष्य] के लिये (गायत) तुम गान करो ॥२॥

    भावार्थ

    जो पुरुष न्यायकारी, दृढ़स्वभाव, पराक्रमी होवे, उसके गुणों को सब लोग ग्रहण करें ॥२॥

    टिप्पणी

    २−(यस्य) पुरुषस्य (संस्थे) आतश्चोपसर्गे। पा० ३।१।१३६। सम्+ष्ठा गतिनिवृत्तौ-क। संस्थायाम्। न्यायपथव्यवस्थायाम् (न) निषेधे (वृणुते) आच्छादयन्ति (हरी) पदार्थानां हरणशीलौ बलपराक्रमौ (समत्सु) सङ्ग्रामेषु (शत्रवः) अमित्राः (तस्मै) तादृशाय (इन्द्राय) महाप्रतापिने मनुष्याय (गायत) गानं कुरुत ॥

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    विषय

    प्रभु को हृदय में आसीन करना

    पदार्थ

    १. (यस्य) = जिसके (संस्थे) = हृदयदेश में स्थित होने पर (शत्रवः) = काम-क्रोध आदि शत्रु (समत्सु) = अध्यात्म-संग्रामों में (हरी) = ज्ञानेन्द्रिय व कर्मेन्द्रियरूप अश्वों को न वृपवते आक्रमण के लिए नहीं (चुनते) = इनपर आक्रमण नहीं करते-इनपर आवरण के रूप में नहीं आ जाते। (तस्मा इन्द्राय गायत) = उस प्रभु का मिलकर गायन करो। २. प्रभु-स्मरण हमें काम आदि के आक्रमण से बचाता है। जिस घर में परिवार के सदस्य मिलकर प्रभु का गायन करते हैं, वहाँ शरीर रोगादि से आक्रान्त नहीं होते और मन काम-क्रोध का शिकार नहीं होता।

    भावार्थ

    प्रभु-स्मरण होने पर इन्द्रियाँ काम-क्रोध आदि से आक्रान्त नहीं होती।

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    भाषार्थ

    (यस्य) जिस परमेश्वर के (संस्थे) हृदयस्थ हो जाने पर (समत्सु) देवासुर-संग्रामों में, (शत्रवः) कामादि शत्रु (हरी) प्रत्याहार-सम्पन्न इन्द्रियाश्वों पर, ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों पर, (वृण्वते न) आवरण नहीं डाल पाते, या उन्हें अपनाते नहीं, (तस्मै इन्द्राय) उस परमेश्वर की प्रसन्नता के लिए, (गायत) हे उपासको! तुम भक्तिभरे गीत गाया करो।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Indra Devata

    Meaning

    Sing in honour of that Indra in the field of whose power and force no enemies can have the courage to stand in opposition and sustain themselves.

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    Translation

    O People, you eulogize that Divinity in whose cosmic order arranged sun and moon can not be challenged even by our enemies.

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    Translation

    O People, you eulogize that Divinity in whose cosmic order arranged sun and moon cannot be challenged even by our enemies.

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    Translation

    O devotees, sing the praises of the Destroyer of forces of evil ignorance at Whose well-establishment in the innermost recesses of the heart in the states of perfectly deep meditation (i.e., Samadhi) or perfect bliss (i.e,, salvation) no wicked enemies (like Kama, Krodha, etc.) engulf the soul. Or O people, extol the high qualities of the mighty king at whose being well established in his empire, no enemies can overpower his mobile forces of offence and defence at the time of wars or on the occasions of festive occasions.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २−(यस्य) पुरुषस्य (संस्थे) आतश्चोपसर्गे। पा० ३।१।१३६। सम्+ष्ठा गतिनिवृत्तौ-क। संस्थायाम्। न्यायपथव्यवस्थायाम् (न) निषेधे (वृणुते) आच्छादयन्ति (हरी) पदार्थानां हरणशीलौ बलपराक्रमौ (समत्सु) सङ्ग्रामेषु (शत्रवः) अमित्राः (तस्मै) तादृशाय (इन्द्राय) महाप्रतापिने मनुष्याय (गायत) गानं कुरुत ॥

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