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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 93 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 93/ मन्त्र 6
    ऋषिः - देवजामयः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - सूक्त-९३
    47

    त्वमि॑न्द्रासि वृत्र॒हा व्यन्तरि॑क्ष॒मति॑रः। उद्द्याम॑स्तभ्ना॒ ओज॑सा ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वम् । इ॒न्द्र॒ । अ॒सि॒ । वृत्र॒ऽहा । वि । अ॒न्तरि॑क्षम् । अ॒ति॒र॒: ॥ उत् । द्याम् । अ॒स्त॒भ्ना॒ : । ओजसा ॥९३.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वमिन्द्रासि वृत्रहा व्यन्तरिक्षमतिरः। उद्द्यामस्तभ्ना ओजसा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वम् । इन्द्र । असि । वृत्रऽहा । वि । अन्तरिक्षम् । अतिर: ॥ उत् । द्याम् । अस्तभ्ना : । ओजसा ॥९३.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 93; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    परमेश्वर की उपासना का उपदेश।

    पदार्थ

    (इन्द्र) हे इन्द्र ! [बड़े ऐश्वर्यवाले परमात्मन्] (त्वम्) तू (वृत्रहा) अन्धकारनाशक (असि) है, (अन्तरिक्षम्) आकाश को (वि अतिरः) तूने फैलाया है, और (ओजसा) पराक्रम के साथ (द्याम्) चमकते हुए सूर्य को (उत्) उत्तम रीति से (अस्तभ्नाः) थाँभा है ॥६॥

    भावार्थ

    परमेश्वर ही आकर्षण नियम से सूर्य आदि लोकों को अपने-अपने स्थान पर आकाश में स्थिर रखता है ॥६॥

    टिप्पणी

    ६−(त्वम्) (इन्द्र), परमैश्वर्यवन् परमात्मन् (असि) (वृत्रहा) अन्धकारनाशकः (अन्तरिक्षम्) आकाशम् (वि अतिरः) तॄ तरणे-लङ्, अदादित्वम्। विस्तारितवानसि (उत्) उत्तमतया (द्याम्) द्योतमानं सूर्यम् (अस्तभ्नाः) स्तम्भितवानसि (ओजसा) पराक्रमेण ॥

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    विषय

    उदारहृदय-उत्कृष्ट मस्तिष्क

    पदार्थ

    १. हे (इन्द्र) = इन्द्रियों के अधिष्ठाता जीव! (त्वं चत्रहा असि) = तू ज्ञान की आवरणभूत वासना का विनाश करनेवाला है। (अन्तरिक्षं वि अतिरः) = तू ज्ञान को आवरणभूत वासनाओं को विनष्ट करके हृदयान्तरिक्ष को विशेषरूप से बढ़ानेवाला है, अर्थात् तू अपने हृदय को विशाल बनाता है तथा २. (ओजसा) = ओजस्विता के साथ (द्याम्) = मस्तिष्करूप घुलोक को (उत् अस्तभना:) = उत्कृष्ट स्थान में थामता है, अर्थात् तू मस्तिष्क को उत्कृष्ट ज्ञान-सम्पन्न बनाता है।

    भावार्थ

    माता बालक को प्रेरणा देती है कि [क] तूने वासनाओं को विनष्ट करनेवाला बनना है [ख] हृदय को विशाल बनाना है तथा [ग] ओजस्विता के साथ मस्तिष्क को ज्ञानोज्ज्वल करना है।

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    भाषार्थ

    (इन्द्र) हे परमेश्वर! आप (वृत्रहा असि) पापों का हनन कर देते हैं, आप (अन्तरिक्षम्) अन्तरिक्ष से भी (व्यतिरः) परे विद्यमान हैं। आपने (ओजसा) निज प्रभाव के कारण (द्याम्) द्युलोक को (उद् अस्तभ्नाः) ऊपर थामा हुआ है।

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    विषय

    ईश्वर स्तुति।

    भावार्थ

    हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! तू (वृत्रहा) वृत्र, आवरणकारी अन्धकार के नाशक सूर्य और मेघ के छिन्न भिन्न करने वाले वायु या विद्युत् अथवा आवरणकारी शत्रु के नाशक वीर राजा के समान (असि) है। तू (अन्तरिक्षम्) उक्त सूर्य आदि के समान अन्तरिक्ष = हृदयाकाश को (वि अतिरः) विशेष रूप से व्याप लेता है और (ओजसा) अपने पराक्रम से (द्याम्) आकाश को सूर्य के समान या राजसभा को राजा के समान समस्त (द्याम्) तेजोमय शक्ति को (अस्तभ्नाः) धारण करता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १-३ प्रगाथः ऋषिः। ४-८ देवजामय इन्द्रमातरः। इन्द्रो देवता। गायत्र्यः। अष्टर्चं सूक्तम्।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Brhaspati Devata

    Meaning

    You, Indra, are destroyer of evil and demonic darkness of the system, breaker of the clouds for rain, you cross the skies and, like the sun sustaining the regions of light by its self-refulgence, you sustain the rule of light and law by your own charismatic grandeur of character and personality.

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    Translation

    O Almighty God you are the dispeller -of darkness (ignorance), you have spreaded the firmament and you have uphold the heaven with you might.

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    Translation

    O Almighty God you are the dispeller of darkness (ignorance), you have spreaded the firmament and you have uphold the heaven with you might.

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    Translation

    O Mighty Lord, Whetting the thunderbolt with Thy Great Might and Splendor, Thou upholds the. Sun through Thy arms, acting together (informs of the north and south poles).

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ६−(त्वम्) (इन्द्र), परमैश्वर्यवन् परमात्मन् (असि) (वृत्रहा) अन्धकारनाशकः (अन्तरिक्षम्) आकाशम् (वि अतिरः) तॄ तरणे-लङ्, अदादित्वम्। विस्तारितवानसि (उत्) उत्तमतया (द्याम्) द्योतमानं सूर्यम् (अस्तभ्नाः) स्तम्भितवानसि (ओजसा) पराक्रमेण ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    পরমেশ্বরোপাসনোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (ইন্দ্র) হে ইন্দ্র ! [বৃহৎ ঐশ্বর্যবান্ পরমাত্মন্] (ত্বম্) তুমি (বৃত্রহা অসি) অন্ধকারনাশক হও, (অন্তরিক্ষম্) আকাশ (বি অতিরঃ) বিস্তৃত করেছো এবং (ওজসা) পরাক্রমের সহিত (দ্যাম্) দ্যুতিমান সূর্যকে (উৎ) উত্তম রীতিতে (অস্তভ্নাঃ) ধারণ করেছো॥৬॥

    भावार्थ

    পরমেশ্বরই আকর্ষণ নিয়ম দ্বারা সূর্যাদি লোক-সমূহকে নিজ-নিজ স্থানে আকাশে স্থাপন করেছেন ॥৬॥

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    भाषार्थ

    (ইন্দ্র) হে পরমেশ্বর! আপনি (বৃত্রহা অসি) পাপ-সমূহ হনন করেন, আপনি (অন্তরিক্ষম্) অন্তরিক্ষ থেকেও (ব্যতিরঃ) দূরে বিদ্যমান। আপনি (ওজসা) নিজ প্রভাবের কারণে (দ্যাম্) দ্যুলোককে (উদ্ অস্তভ্নাঃ) উপরে ধরে রেখেছেন।

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