अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 10/ मन्त्र 12
ऋषिः - अथर्वा
देवता - इन्द्रः, देवगणः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - रायस्पोषप्राप्ति सूक्त
63
ए॑काष्ट॒का तप॑सा त॒प्यमा॑ना ज॒जान॒ गर्भं॑ महि॒मान॒मिन्द्र॑म्। तेन॑ दे॒वा व्य॑षहन्त॒ शत्रू॑न्ह॒न्ता दस्यू॑नामभव॒च्छची॒पतिः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठए॒क॒ऽअ॒ष्ट॒का । तप॑सा । त॒प्यमा॑ना । ज॒जान॑ । गर्भ॑म् । म॒हि॒मान॑म् । इन्द्र॑म् । तेन॑ । दे॒वा: । वि । अ॒स॒ह॒न्त॒ । शत्रू॑न् । ह॒न्ता । दस्यू॑नाम् । अ॒भ॒व॒त् । शची॒ऽपति॑: ॥१०.१२॥
स्वर रहित मन्त्र
एकाष्टका तपसा तप्यमाना जजान गर्भं महिमानमिन्द्रम्। तेन देवा व्यषहन्त शत्रून्हन्ता दस्यूनामभवच्छचीपतिः ॥
स्वर रहित पद पाठएकऽअष्टका । तपसा । तप्यमाना । जजान । गर्भम् । महिमानम् । इन्द्रम् । तेन । देवा: । वि । असहन्त । शत्रून् । हन्ता । दस्यूनाम् । अभवत् । शचीऽपति: ॥१०.१२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
पुष्टि बढ़ाने के लिये प्रकृति का वर्णन।
पदार्थ
(एकाष्टका) अकेली व्यापक रहनेवाली वा अकेली भोजन स्थानशक्ति [प्रकृति] ने (तपसा) बड़े ऐश्वर्यवाले ब्रह्मद्वारा (तप्यमाना) ऐश्वर्यवाली होकर (गर्भम्) स्तुतियोग्य, (महिमानम्) पूजनीय (इन्द्रम्) परम ऐश्वर्यवाले जीव को (जजान) प्रकट किया। (तेन) उस [इन्द्र, जीव] के द्वारा (देवाः) प्रकाशमान इन्द्रियों ने (शत्रून्) शत्रुओं [दोषों] को (वि) विविध प्रकार से (असहन्त) हराया है और (शचीपतिः) वाणियों वा कर्मों वा बुद्धियों का पति [इन्द्र, जीव] (दस्यूनाम्) दस्युओं को (हन्ता) मारनेवाला (अभवत्) हुआ है ॥१२॥
भावार्थ
मनुष्य ईश्वरनियम से प्रकृति के संयोग-वियोग से शरीर पाकर इन्द्रियों द्वारा परीक्षा करके दोषों का त्याग और गुणों का ग्रहण करके आनन्द भोगते और भुगाते हैं ॥१२॥ ‘तपस्’ शब्द ब्रह्म वा परमेश्वरवाची है, जैसे−“ओं तपः। ओं सत्यम्” प्राणायाम मन्त्र में है। ऋग्वेद मण्डल १० सूक्त १९० मन्त्र १ में भी ऐसा वर्णन है ॥ ऋ॒तं च॑ स॒त्यं चा॒भीद्धा॒त्तप॒सोऽध्य॑जायत ॥ (ऋतम्) यथार्थ वेदशास्त्र (च) और (सत्यम्) सत्तावाला जगत् (च) भी (अभीद्धात्) सर्वथा प्रकाशमान (तपसःअधि) तप अर्थात् ऐश्वर्यवाले ब्रह्म से ही (अजायत) उत्पन्न हुआ है ॥
टिप्पणी
१२−(एकाष्टका)। म० ८। (तपसा)। सर्वधातुभ्योऽसुन्। उ० ४।१८९। इति तप दाहैश्ययोः-असुन्। तप्यते धनी, ईश्वरो भवतीत्यर्थः। ऐश्वर्यवता ब्रह्मणा। (तप्यमाना)। तप ऐश्वर्ये-शानच्। दिवादिः, आत्मनेपदी। ईशाना समर्था सती। (जजान)। जनयामास। प्राकाशयत् (गर्भम्)। अर्त्तिगॄभ्यां भन्। उ० ३।१५२। इति गॄ शब्दे-भन्। गर्भो गृभेर्गृणात्यर्थे गिरत्यनर्थानिति वा यदा हि स्त्री गुणान् गृह्णाति गुणाश्चास्या गृह्यतेऽथ गर्भो भवति-निरु० १०।२३। गर्भं गर्भभूतं यद्वा गरणीयं स्तुत्यं वन्दनीयम्-इति सायणः। (महिमानम्)। हृभृधृसृस्तॄशॄभ्य इमनिच्। उ० ४।१४८। इति मह पूजायाम्-इमनिच्। पूजनीयम्। (इन्द्रम्) ऐश्वर्यवन्तं जीवम्। (तेन)। इन्द्रेण सह। (देवाः)। द्योतनात्मकाश्चक्षुरादीन्द्रियाणि-इति महीधरो यजु० ४०।४। चक्षुरादीनीन्द्रियाणि वा-तत्रैव दयानन्दभाष्ये। (वि)। विविधम्। विशेषेण। (असहन्त)। अभ्यभवन्। (शत्रून्)। शातयितॄन्। घातकान्। (हन्ता)। नाशकः। (दस्यूनाम्)। अ० २।१४।५। उपक्षपयितॄणाम्। चौराणाम्। (अभवत्)। आसीत्। (शचीपतिः)। सर्वधातुभ्य इन् उ० ४।११८। इति शच वक्तायां वाचि-इन्। कृदिकारादक्तिनः। वा० पा० ४।१।४५। इति ङीष्। शची=वाक्-निघ० १।११। कर्म-२।१। प्रज्ञा-३।९। शचीनां वाचां कर्मणां प्रज्ञानां वा पालकः यथार्थवक्ता यथार्थकर्मा यथार्थप्रज्ञो वा ॥
विषय
उषाकाल में प्रभु-दर्शन
पदार्थ
१. (एकाष्टका) = यह प्रथम व मुख्य अष्टक-[दिन के प्रथमभाग]-वाली उषा (तपसा तप्यमाना) = तप से दीप्त होती हुई उस (गर्भम्) = सब पदार्थों में गर्भरूप से रहनेवाले व सब पदार्थों को अपने गर्भ में धारण करनेवाले, (महिमानम्) = अतिशयेन पूज्य (इन्द्रम्) = परमैश्वर्यशाली प्रभु को (जजान) = प्रकट करती है। उषाकाल में प्रबुद्ध होकर हम तपस्यामय जीवन बनाते हैं। स्वाध्याय ही सर्वमहान् तप है। इस तप से जीवन दीप्त बन जाता है। उस समय तपःपूत पवित्र हृदय में प्रभु का प्रकाश होता है। २. (देवाः) = देववृत्ति के ये पुरुष (तेन) = उस प्रभु के द्वारा (शत्रून व्यसहन्त) = काम-क्रोध-लोभरूप शत्रुओं को पराभूत करते हैं। वह (शचीपतिः) = सब कर्मों और प्रज्ञानों का स्वामी प्रभु (दस्यूनाम्) = हमारी सब (दस्युव) = वृत्तियों का (हन्ता) = विनाशक (अभवत्) = होता है।
भावार्थ
हम उषाकाल में प्रबुद्ध होकर स्वाध्यायरूप तप से दीप्त जीवनवाले बनें। प्रभु के प्रकाश को देखें। प्रभु के द्वारा सब आसुरभावों का विनाश करनेवाले बनें।
भाषार्थ
(एकाष्टका) एकाष्टका ने, (तपसा तप्यमाना) अर्थात् तप द्वारा प्रतप्त हुई ने, (गर्भम् जजान) गर्भ को जन्म दिया, (महिमानम् इन्द्रम्) अर्थात् महिमासम्पन्न आदित्य को। (तेन) उस आदित्य द्वारा (देवाः) दिव्यतत्त्वों ने (शत्रून व्यसहन्त) शत्रुओं का विशेषतया पराभव किया, अतः (शचीपतिः) शक्तियों का अधिपति आदित्य (दस्युनाम हन्ता अभवत्) अपक्षयकारियों का हनन करने वाला हुआ।
टिप्पणी
[एकाष्टका है माघकृष्णाष्टमी (सायण, मन्त्र १२)। पौषमास तक आदित्य दक्षिण तक जाता रहता है। माघमास से आदित्य की गति उत्तरायण की ओर हो जाती है, और क्रमशः उत्तरोत्तर गति करता हुआ अधिकाधिक गर्म होता जाता है। यह स्थिति है एकाष्टका की गर्मी को गर्भरूप में धारण करने की। तदनन्तर गर्मी के अधिक बढ़ जाने पर आदित्य को एकाष्टका जन्म देती है। एकाष्टका के "तपसा तप्यमाना जजान" का यह अभिप्राय प्रतीत होता है। इन्द्र है परमैश्वर्यवान् आदित्य। आदित्य का पूर्णरूप में प्रतप्त हो जाना उसका परम ऐश्वर्य है। ऐसे आदित्य को राहायता द्वारा दिव्य शक्तियां अन्धकार तथा शैत्यरूपी शत्रुओं का पराभव करती हैं।]
विषय
अष्टका रूप से नववधू के कर्तव्य ।
भावार्थ
(एकाष्टका) एकमात्र गृहणी (तपसा) गृहस्थ धर्म के पालन रूप तप और ब्रह्मचर्य से (तप्यमाना) व्रत पालन करती हुई (महिमानम्) महत्वपूर्ण (इन्द्रं) ऐश्वर्ययुक्त, गुणगौरवयुक्त आत्मा को (गर्भम्) अपने गर्भरूप में (जजान) धारण करके उत्पन्न करती है । (तेन) उस उत्तम पुत्र से (देवाः) विद्वद्गण भी (शत्रून्) अपने शत्रुओं को (वि असहन्त) पराजित करते हैं । और वही बड़ा होकर (शचीपतिः) शक्ति, सेना का स्वामी होकर (दस्यूनाम्) राष्ट्र के नाशकारी पुरुषों का (हन्ता अभवत्) विनाशकारी होता है । स्त्रियों की तपस्या ही बड़े २ राजर्षियों को उत्पन्न करती है ।
टिप्पणी
(तृ० च०) ‘तेन दस्यून् व्यसहन्त देवा हन्तासुरानाभवच्छचीभिः’ इति पैप्प० सं० ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। अष्टका देवताः । ४, ५, ६, १२ त्रिष्टुभः । ७ अवसाना अष्टपदा विराड् गर्भा जगती । १, ३, ८-११, १३ अनुष्टुभः। त्रयोदशर्चं सूक्तम् ॥
इंग्लिश (4)
Subject
Kalayajna for Growth and Prosperity
Meaning
Ekashtaka, sole Prakrti, undergoing the hard discipline of the divine law of Rtam, bears the great spirit, cosmic and individual, in her womb and gives birth to the cosmic and the individual human purusha, Indra and indra. Thereby the divine deva powers fight out the enemies, negativities, and thus by divine and individual Indra become destroyers of evil and shine as masters of power and potential.
Translation
Ekāstakā practising austerity, has given birth to her embryo, the majestic Sun. With him the enlighteried ones have overpowered their enemies and the master of action has become the slayer of robbers.
Translation
I, the performer of Yajna offering oblations with grain, drop the oblation with ghee and free from covetousness we live together in homes full of cows.
Translation
The mistress of the house, observing the laws of domestic life, and sticking to her vow, retaining the great and glorious soul in her womb, gives birthto a babe. With him the learned subdue their adversaries. The same lord of might in the prime of youth, becomes the slayer ofthe enemies of the state.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१२−(एकाष्टका)। म० ८। (तपसा)। सर्वधातुभ्योऽसुन्। उ० ४।१८९। इति तप दाहैश्ययोः-असुन्। तप्यते धनी, ईश्वरो भवतीत्यर्थः। ऐश्वर्यवता ब्रह्मणा। (तप्यमाना)। तप ऐश्वर्ये-शानच्। दिवादिः, आत्मनेपदी। ईशाना समर्था सती। (जजान)। जनयामास। प्राकाशयत् (गर्भम्)। अर्त्तिगॄभ्यां भन्। उ० ३।१५२। इति गॄ शब्दे-भन्। गर्भो गृभेर्गृणात्यर्थे गिरत्यनर्थानिति वा यदा हि स्त्री गुणान् गृह्णाति गुणाश्चास्या गृह्यतेऽथ गर्भो भवति-निरु० १०।२३। गर्भं गर्भभूतं यद्वा गरणीयं स्तुत्यं वन्दनीयम्-इति सायणः। (महिमानम्)। हृभृधृसृस्तॄशॄभ्य इमनिच्। उ० ४।१४८। इति मह पूजायाम्-इमनिच्। पूजनीयम्। (इन्द्रम्) ऐश्वर्यवन्तं जीवम्। (तेन)। इन्द्रेण सह। (देवाः)। द्योतनात्मकाश्चक्षुरादीन्द्रियाणि-इति महीधरो यजु० ४०।४। चक्षुरादीनीन्द्रियाणि वा-तत्रैव दयानन्दभाष्ये। (वि)। विविधम्। विशेषेण। (असहन्त)। अभ्यभवन्। (शत्रून्)। शातयितॄन्। घातकान्। (हन्ता)। नाशकः। (दस्यूनाम्)। अ० २।१४।५। उपक्षपयितॄणाम्। चौराणाम्। (अभवत्)। आसीत्। (शचीपतिः)। सर्वधातुभ्य इन् उ० ४।११८। इति शच वक्तायां वाचि-इन्। कृदिकारादक्तिनः। वा० पा० ४।१।४५। इति ङीष्। शची=वाक्-निघ० १।११। कर्म-२।१। प्रज्ञा-३।९। शचीनां वाचां कर्मणां प्रज्ञानां वा पालकः यथार्थवक्ता यथार्थकर्मा यथार्थप्रज्ञो वा ॥
बंगाली (2)
भाषार्थ
(একাষ্টকা) একাষ্টকা, (তপসা তপ্যমানা) অর্থাৎ তপ দ্বারা প্রতপ্ত, (গর্ভম্ জজান) গর্ভকে জন্ম দিয়েছে, (মহিমানম্ ইন্দ্রম্) অর্থাৎ মহিমাসম্পন্ন আদিত্যকে। (তেন) সেই আদিত্য দ্বারা (দেবাঃ) দিব্যতত্ত্ব-সমূহ (শত্রূন ব্যসহন্ত) শত্রুদের বিশেষভাবে পরাজিত করেছে, অতঃ (শচীপতিঃ) শক্তির অধিপতি আদিত্য (দস্যুনাম্ হন্তা অভবৎ) উপক্ষয়কারীদের হননকারী হয়েছে।
टिप्पणी
[একাষ্টকা হলো মাঘকৃষ্ণাষ্টমী (সায়ণ, মন্ত্র ১২)। পৌষ মাস পর্যন্ত আদিত্য দক্ষিণ পর্যন্ত যেতে থাকে। মাঘমাস থেকে আদিত্যের গতি উত্তরায়নের দিকে হয়ে যায়, আর ক্রমশঃ উত্তরোত্তর গতি করতে-করতে অধিকাধিক গরম/উত্তপ্ত হয়ে যায়। এই স্থিতি হলো একাষ্টকা-এর উষ্ণতাকে গর্ভরূপে ধারণ করার। তদনন্তর উষ্ণতা অধিক বৃদ্ধি হলে আদিত্যকে, একাষ্টকা জন্ম দেয়। একাষ্টকা-এর "তপসা তপ্যমানা জজান" এর এই অভিপ্রায় প্রতীত হয়। ইন্দ্র হলেন পরমৈশ্বর্যবান্ আদিত্য। আদিত্যের পূর্ণরূপে প্রতপ্ত হয়ে যাওয়া হল তার পরম ঐশ্বর্য। এভাবেই আদিত্যের সহায়তা দ্বারা দিব্য শক্তিসমূহ অন্ধকার ও শৈত্যরূপী শত্রুদের পরাজিত করে।]
मन्त्र विषय
পুষ্টিবর্ধনায় প্রকৃতিবর্ণনম্
भाषार्थ
(একাষ্টকা) একাকী ব্যাপক বা একাকী ভোজন স্থানশক্তি [প্রকৃতি] (তপসা) পরম ঐশ্বর্যবান ব্রহ্ম দ্বারা (তপ্যমানা) ঐশ্বর্যবতী হয়ে (গর্ভম্) স্তুতিযোগ্য, (মহিমানম্) পূজনীয় (ইন্দ্রম্) পরম ঐশ্বর্যসম্পন্ন জীবকে (জজান) প্রকট করেছে। (তেন) সেই [ইন্দ্র, জীব] এর দ্বারা (দেবাঃ) প্রকাশমান ইন্দ্রিয়+সমূহ (শত্রূন্) শত্রুদের [দোষসমূহকে] (বি) বিবিধ প্রকারে (অসহন্ত) পরাজিত করেছে এবং (শচীপতিঃ) বাণী বা কর্ম বা বুদ্ধির পতি [ইন্দ্র, জীব] (দস্যূনাম্) দস্যুদের (হন্তা) বিনাশকারী (অভবৎ) হয়েছে ॥১২॥
भावार्थ
মনুষ্য ঈশ্বরনিয়মে প্রকৃতির সংযোগ-বিয়োগে শরীর প্রাপ্ত করে ইন্দ্রিয়-সমূহ দ্বারা পরীক্ষা করে/বিচারপূর্বক দোষের ত্যাগ এবং উত্তম গুণের গ্রহণ করে আনন্দ ভোগ করে এবং ভোগ করায় ॥১২॥ ‘তপস্’ শব্দ, ব্রহ্ম বা পরমেশ্বরবাচী, যেমন−“ওং তপঃ। ওং সত্যম্” প্রাণায়াম মন্ত্রে রয়েছে। ঋগ্বেদ মণ্ডল ১০ সূক্ত ১৯০ মন্ত্র ১ এও এমন বর্ণনা হয়েছে ॥ ঋতং চ সত্যং চাভীদ্ধাত্তপসোঽধ্যজায়ত ॥ (ঋতম্) যথার্থ বেদশাস্ত্র (চ) এবং (সত্যম্) সত্তা জগৎ (চ) ও (অভীদ্ধাৎ) সর্বদা প্রকাশমান (তপসঃঅধি) তপ অর্থাৎ ঐশ্বর্যবান ব্রহ্ম দ্বারাই (অজায়ত) উৎপন্ন হয়েছে ॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
Misc Websites, Smt. Premlata Agarwal & Sri Ashish Joshi
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
Sri Amit Upadhyay
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
Sri Dharampal Arya
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal