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अथर्ववेद के काण्ड - 3 के सूक्त 15 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 15/ मन्त्र 8
    ऋषिः - अथर्वा देवता - सविता छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् सूक्तम् - वाणिज्य
    77

    वि॒श्वाहा॑ ते॒ सद॒मिद्भ॑रे॒माश्वा॑येव॒ तिष्ठ॑ते जातवेदः। रा॒यस्पोषे॑ण॒ समि॒षा मद॑न्तो॒ मा ते॑ अग्ने॒ प्रति॑वेशा रिषाम ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वि॒श्वाहा॑ । ते॒ । सद॑म् । इत् । भ॒रे॒म॒ । अश्वा॑यऽइव । तिष्ठ॑ते । जा॒त॒ऽवे॒द॒: । रा॒य: । पोषे॑ण । सम् । इ॒षा । मद॑न्त: । मा । ते॒ । अ॒ग्ने॒ । प्रति॑ऽवेशा: । रि॒षा॒म॒ ॥१५.८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    विश्वाहा ते सदमिद्भरेमाश्वायेव तिष्ठते जातवेदः। रायस्पोषेण समिषा मदन्तो मा ते अग्ने प्रतिवेशा रिषाम ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    विश्वाहा । ते । सदम् । इत् । भरेम । अश्वायऽइव । तिष्ठते । जातऽवेद: । राय: । पोषेण । सम् । इषा । मदन्त: । मा । ते । अग्ने । प्रतिऽवेशा: । रिषाम ॥१५.८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 15; मन्त्र » 8
    Acknowledgment

    हिन्दी (5)

    विषय

    व्यापार के लाभ का उपदेश।

    पदार्थ

    (जातवेदः) हे उत्तम धनवाले पुरुष ! (विश्वाहा=०−हानि) सब दिनों (ते) तेरे [उद्देश्य के] लिये (इत्) ही (सदम्) समाज को (भरेम) भरते रहें, (इव) जैसे (तिष्ठते) थान पर ठहरे हुए (अश्वाय) घोड़े को [घास अन्नादि भरते हैं]। (अग्ने) हे अग्नि समान तेजस्वी विद्वान् ! (रायः) धन की (पोषेण) पुष्टि से और (इषा) अन्न से (समु) अच्छे प्रकार (मदन्तः) आनन्द करते हुए (ते) तेरे (प्रतिवेशाः) सन्मुख रहनेवाले हम लोग (आ रिषाम) न दुःखी होवें ॥८॥

    भावार्थ

    जैसे मार्ग से आये घोड़े को अन्न-घासादि से पुष्ट करते हैं, इसी प्रकार सब व्यापारी बड़ी-बड़ी वणिक् मण्डली बनाकर प्रधान पुरुष की शक्ति बढ़ावें, जिससे सब लोग बहुत सा धन और अन्नादि पाकर आनन्द भोगें ॥८॥ इति तृतीयोऽनुवाकः ॥ इति पञ्चमः प्रपाठकः ॥

    टिप्पणी

    ८−(विश्वाहा)। सर्वाण्यहानि। (ते) तुभ्यम्। (सदम्)। षद्लृ गतौ-अच्। समाजम्। वणिक्मण्डलीम्। (इत्)। एव। (भरेम)। भृञ्-विधिलिङ्। पोषयेम। (अश्वाय-इव)। घोटकाय यथा। (तिष्ठते)। ष्ठा-शतृ। स्वस्थाने वर्त्तमानाय। (जातवेदः)। अ० १।७।२। जातानि प्रशस्तानि वेदांसि धनानि यस्य स जातवेदाः। तत्संबुद्धौ। (रायः)। धनस्य। (पोषेण)। वर्धनेन (सम्)। सम्यक्। (मदन्तः)। मदी हर्षग्लेपनयोः-शतृ। हृष्टा भवन्तः। (अग्ने)। म० ३। (प्रतिवेशाः)। प्रति+विश-घञ्। आसन्नवर्त्तिनः। (मा रिषाम)। रिष हिंसायाम्-कर्मणि कर्तृप्रयोगः। हिंसिता विनष्टा मा भूत ॥

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    विषय

    प्रभु के प्रतिवेश बनें

    पदार्थ

    १. (जातवेदः) = सर्वज्ञ [विद ज्ञाने] व सर्वव्यापक [विद सत्तायाम्] प्रभो! (अश्वाय इव) = [अश्नुते कर्मसु] सदा कर्मों में व्यास के समान (तिष्ठते) = स्थित (ते) = आपके लिए हम (विश्वाहा) = बस दिन, (सदम् इत्) = सदा ही (भरेम्) = हवि देनेवाले हों। हवि के द्वारा ही तो आपका पूजन होता है। २. हवि के द्वारा आपका पूजन करते हुए हम (रायस्पोषेण) = धन के पोषण से व (इषा) = सात्त्विक अन्न से (सम्मदन्त:) = सम्यक् आनन्द का अनुभव करते हुए हे (अग्ने) = अग्रणी प्रभो! ते (प्रतिवेशा:) = उपासना द्वारा आपके प्रत्यासन्न [निकटतम] बनें और (मा रिषाम्) = हिंसित न हों।

    भावार्थ

    उस 'जातवेदस, अश्व, अग्नि' प्रभु का हवि के द्वारा पूजन करते हुए हम धन के पोषण व उत्तम अन्न से आनन्दित हों। प्रभु के प्रत्यासन्न होते हुए हम कभी पतित न हों।

    विशेष

    प्रभु का प्रतिवेश बननेवाला यह उपासक 'अथर्वा' होता है, न डाँवाडोल तथा आत्मनिरीक्षक [न थर्वति, अथ अर्वाङ्]। यह कल्याण के लिए प्रभु से 'प्रातरग्निम्' इन मन्त्रों से प्रार्थना करता है -

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    भाषार्थ

    (जातवेदः) उत्पन्न पदार्थों में विद्यमान [हे अग्नि!] (विश्वाहा) सब दिन (सदम् इत्) सदा ही (ते) तेरे लिए (भरेम) हम आहुतियाँ प्रदान करें, (तिष्ठते) अश्वशाला में स्थित (अश्वाय) अश्व के लिए (इव) जैसे [घास-चारा दिया जाता है।] (रायस्पोषण) धन की परिपुष्टि द्वारा, (इषा) तथा अन्न द्वारा (सम् मदन्तः) हृष्ट तथा प्रसन्न होते हुए, (अग्ने) हे यज्ञिय अग्नि ! (ते प्रतिवेशाः) तेरे समीपस्थ रहनेवाले हम (मा रिषाम१) न हिंसित हो।

    टिप्पणी

    [रुष रिष हिंसायाम् (भ्वादि:, दिवादि:)। यज्ञियाग्नि में प्रतिदिन रोगनाशक औषधियों की आहुतियां से रोगनिवारण होकर प्रजा का स्वास्थ्यसंवर्धन होता है। अतः यह भी राष्ट्रीय धर्म है (अथर्ववेद १/३१/१-३)।

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    विषय

    ब्राह्मणों की सेवा

    शब्दार्थ

    (जातवेदः) हे ज्ञानी ! विद्वन् ! (इव) जिस प्रकार (तिष्ठते अश्वाय) अपने स्थान पर खड़े हुए, रथ आदि में न जुतनेवाले घोड़े के लिए घास और दाना निरन्तर दिया ही जाता है इसी प्रकार हम (ते) तेरे लिए (सदम् इत्) सदा ही (विश्वाहा) सब दिन (भरेम) मर्यादा रूप में प्रदान करें (अग्ने) हे तेजस्वी ब्राह्मण ! हम (रायस्-पोषेण) धन और पुष्टि कारक पदार्थो से (इषा) अन्नों से, खाद्य पदार्थों से (सम् मदन्तः) खूब हृष्ट-पुष्ट होते हुए (ते प्रतिवेशा :) तेरे सेवक बनकर (मा रिषाम) कभी नष्ट न हों ।

    भावार्थ

    आज घरों में कुत्ते पाले जाते हैं। कुत्ते पालनेवाले स्वर्ग में नहीं जा सकते । हमें कीट-पतंग और कुत्तों को भी अपने अन्न में से देना चाहिए परन्तु इससे आगे भी बढ़ना चाहिए । धनवानों को अपने घर में ब्राह्मण रखने चाहिएँ । उनकी इतनी आजीविका निश्चित कर देनी चाहिए जिससे उन्हें किसी वस्तु का अभाव न रहे और वे रात-दिन वेद आदि शास्त्रों का अध्ययन करते रहें । वेद ने एक सुन्दर उपमा दी है। जिस प्रकार घोड़ा चाहे काम पर हो अथवा अपने स्थान पर खड़ा हो उसे घास और दाना दिया ही जाता है इसी प्रकार विद्वान् चाहे उपदेश दे या न दे, शास्त्रार्थ करे या न करे, उसका भरण-पोषण होना ही चाहिए। जैसे पहलवान चाहे कुश्ती लड़े या न लड़े उसे भोजन दिया ही जाता है इसी प्रकार ब्राह्मण की सेवा होनी चाहिए । यदि आज दस-बीस धनिक कुछ विद्वानों को बैठा दें तो भारतीय संस्कृति और सभ्यता पर जो आक्रमण हो रहे हैं वे समाप्त हो सकते हैं । मन्त्र के उत्तरार्द्ध में इसी बात की ओर संकेत है ।

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    विषय

    वणिग्-व्यापार का उपदेश ।

    भावार्थ

    हे (जातवेदः) सर्वज्ञ परमात्मन् या विद्वन् ! जिस प्रकार (तिष्ठते) खड़े हुए (अश्वाय इव) घोड़े के लिये घास दाना बराबर दिया ही जाता है इसी प्रकार (ते) तेरे नाम से भी (सदम इत्) सदा ही (विश्वाहा) सब दिनों हम मर्यादा रूप से (भरेम) दान करें । और हम (रायस्पोषेण) धनों और पुष्टिकारी पदार्थों से और (इषा) अन्नों से (सम् मदन्तः) खूब हृष्ट पुष्ट होते हुए हे (अग्ने) परमात्मन् या विद्वन् ! (ते प्रतिवेशाः) तेरे पड़ोशी बनकर, समीपतम रह कर ही (मा रिषाम) कभी क्लेशित न हों । अर्थात् परमात्मा के नाम से या विद्वानों के निमित्त नित्य अपने आय में से कुछ देना चाहिये और लोग उनके समीप रहकर प्रसन्न रहें । इति तृतीयोऽनुवाकः ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    पण्यकामोऽथर्वा ऋषिः। विश्वेदेवाः उत इन्द्राग्नी देवताः। १ भुरिक्, ४ त्र्यवसाना बृहतीगर्भा विराड् अत्यष्टिः । ५ विराड् जगती । ७ अनुष्टुप् । ८ निचृत् । २, ३, ६ त्रिष्टुभः। अष्टर्चं सूक्तम् ॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Business and Finance

    Meaning

    O Jataveda, lord of universal wealth ever awake in every one, inspire us that we may create, bear and bring something as our share to your yajnic house as to the omnipresent harbinger of everything for us so that, O light of the world, Agni, as members of your universal family living under the same one roof, enjoying and rejoicing with food, energy, health and prosperity, we may never come to any harm in our life, individually and socially as one community, and never hurt anybody else.

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    Translation

    O knower of all (jātaveda) to you, staying at home, we bring offering as to a horse. Rejoicing in riches and nourishment ās well.as plenty of food, O adorable leader, may we, your neighbours, suffer no harm.

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    Translation

    May we ever offer oblation to fire which is present in all the created objects and is the most impelling force of the universe as the men give grass, grain etc. to standing horse. May we, the performer of Yajna, joying in grain and in the growth of riches never be victim of sufferings.

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    Translation

    Still in Thy name ever will we give alms, as we give fodder to a stabled horse, O God, the knower of all created objects. Joying in food and with growth of riches may we thy servants, O God, never suffer!

    Footnote

    Businessmen should give a part of their income for charitable purposes.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ८−(विश्वाहा)। सर्वाण्यहानि। (ते) तुभ्यम्। (सदम्)। षद्लृ गतौ-अच्। समाजम्। वणिक्मण्डलीम्। (इत्)। एव। (भरेम)। भृञ्-विधिलिङ्। पोषयेम। (अश्वाय-इव)। घोटकाय यथा। (तिष्ठते)। ष्ठा-शतृ। स्वस्थाने वर्त्तमानाय। (जातवेदः)। अ० १।७।२। जातानि प्रशस्तानि वेदांसि धनानि यस्य स जातवेदाः। तत्संबुद्धौ। (रायः)। धनस्य। (पोषेण)। वर्धनेन (सम्)। सम्यक्। (मदन्तः)। मदी हर्षग्लेपनयोः-शतृ। हृष्टा भवन्तः। (अग्ने)। म० ३। (प्रतिवेशाः)। प्रति+विश-घञ्। आसन्नवर्त्तिनः। (मा रिषाम)। रिष हिंसायाम्-कर्मणि कर्तृप्रयोगः। हिंसिता विनष्टा मा भूत ॥

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    बंगाली (2)

    भाषार्थ

    (জাতবেদঃ) উৎপন্ন পদার্থ-সমূহের মধ্যে বিদ্যমান [হে অগ্নি !] (বিশ্বাহা) সব দিন (সদম্ ইৎ) সদাই (তে) তোমার জন্য (ভরেম) আমরা আহুতি প্রদান করি, (তিষ্ঠতে) অশ্বশালায় স্থিত (অশ্বায়) অশ্বের জন্য (ইব) যেমন [ঘাস-চারা দেওয়া হয়] (রায়স্পোষেণ) ধনের পরিপুষ্টি দ্বারা, (ইষা) এবং অন্ন দ্বারা (সম্ মদন্তঃ) হৃষ্ট ও প্রসন্ন হয়ে, (অগ্নে) হে যজ্ঞের অগ্নি! (তে প্রতিবেশাঃ) তোমার সমীপস্থ থাকা আমরা (মা রিষাম১) হিংসিত যেন না হই।

    टिप्पणी

    [১. রুষ রিষ হিংসায়াম্ (ভ্বাদিঃ; দিবাদি)। যজ্ঞিয়াগ্নিতে প্রতিদিন রোগনাশক ঔষধি আদির আহুতিতে রোগ নিবারণ হয়ে প্রজার স্বাস্থ্য সংবর্ধন হয়। অতঃ এটাই হলো রাষ্ট্রিয় ধর্ম (অথর্ব০ ১।৩১।১-৩)।]

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    मन्त्र विषय

    ব্যাপারলাভোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (জাতবেদঃ) হে উত্তম ধনবান পুরুষ ! (বিশ্বাহা=০−হানি) সব দিন (তে) তোমার [উদ্দেশ্যের] জন্য (ইৎ)(সদম্) সমাজকে (ভরেম) পূরণ/ভরণপোষণ করি, (ইব) যেমন (তিষ্ঠতে) অশ্বের জন্য নির্ধারিত জায়গায় (অশ্বায়) অশ্বকে [ঘাস অন্নাদি দ্বারা ভরণপোষণ করা হয়]। (অগ্নে) হে অগ্নি সমান তেজস্বী বিদ্বান্ ! (রায়ঃ) ধন-সম্পদের (পোষেণ) পুষ্টি দ্বারা এবং (ইষা) অন্ন দ্বারা (সমু) উত্তমরূপে (মদন্তঃ) আনন্দ করে (তে) তোমার (প্রতিবেশাঃ) সন্মুখে থাকা আমরা যেন (আ রিষাম্) দুঃখী না হই ॥৮॥

    भावार्थ

    যেমন মার্গ/পথ থেকে আসা ঘোড়াকে অন্ন-ঘাসাদি দিয়ে পুষ্ট করা হয়, এভাবেই সকল বণিক বড়ো-বড়ো বণিক্ মণ্ডলী তৈরি করে প্রধান পুরুষের শক্তি বৃদ্ধি করুক, যাতে সকলে অনেক ধন ও অন্নাদি পেয়ে আনন্দ ভোগ করে ॥৮॥

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