अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 17/ मन्त्र 7
शुना॑सीरे॒ह स्म॑ मे जुषेथाम्। यद्दि॒वि च॒क्रथुः॒ पय॒स्तेनेमामुप॑ सिञ्चतम् ॥
स्वर सहित पद पाठशुना॑सीरा । इ॒ह । स्म॒ । मे॒ । जु॒षे॒था॒म् । यत् । दि॒वि । च॒क्रथु॑: । पय॑: । तेन॑ । इ॒माम् । उप॑ । सि॒ञ्च॒त॒म् ॥१७.७॥
स्वर रहित मन्त्र
शुनासीरेह स्म मे जुषेथाम्। यद्दिवि चक्रथुः पयस्तेनेमामुप सिञ्चतम् ॥
स्वर रहित पद पाठशुनासीरा । इह । स्म । मे । जुषेथाम् । यत् । दिवि । चक्रथु: । पय: । तेन । इमाम् । उप । सिञ्चतम् ॥१७.७॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
खेती की विद्या का उपदेश।
पदार्थ
(शुनासीरा=०-रौ) हे वायु और सूर्य तुम दोनों ! (इह स्म) यहाँ पर ही (मे) मेरी [विनय] (जुषेथाम्) स्वीकार करो, (यत् पयः) जो जल (दिवि) आकाश मे (चक्रथुः) तुम दोनों ने बनाया है, (तेन) उससे (इमाम्) इस [भूमि] को (उप सिञ्चतम्) सींचते रहो ॥७॥
भावार्थ
पवन और सूर्य के द्वारा पृथिवी का जल आकाश में जाकर फिर पृथिवी पर बरसता है, वह खेती के लिए बहुत उपयोगी होता है ॥७॥ यह मन्त्र कुछ भेद से निरु० ९।४१ में भी है ॥
टिप्पणी
७−(शुनासीरा) म० ५। हे पवनादित्यौ। (इह स्म) अत्रैव। (जुषेथाम्) युवां सेवेथाम्। स्वीकुरुतम्। (दिवि) आकाशे। (चक्रथुः) डुकृञ् करणे लिट्। युवां कृतवन्तौ। (पयः) उदकम्। निघ० १।१२। (इमाम्) दृश्यमानां भूमिम्। (उप सिञ्चतम्) व्याप्य आर्द्रीकुरुतम् ॥
विषय
शुनासीरा [ वायु और सूर्य]
पदार्थ
१. (शुनासीरा) = वायु और सूर्य (इह स्म) = यहाँ ही (मे) = मेरे द्वारा दी जानेवाली हवि को (जुषेथाम्) = प्रेमपूर्वक सेवन करें, अर्थात् मेरा यह यज्ञ वायु व सूर्यदेव के लिए प्रीतिकर हो। ('यज्ञाद् भवति पर्जन्यः') = इन यज्ञों के द्वारा बादलों की उत्पति हो। २.वायु व सूर्य इन बादलों के द्वारा (यत्) = जो (दिवि) = द्युलोक में (पयः चक्रथु:) = जल को उत्पन्न करते हैं तेन उस वृष्टिजल से (इमाम्) = इस भूमि को (उपसिञ्चतम्) = सीचें।
भावार्थ
यज्ञों के द्वारा उत्पन्न बादलों से वायु व सूर्य जल का वर्षण करके पृथिवी को सींचनेवाले हों।
भाषार्थ
(इह स्म) हम इस कृष्ट क्षेत्र में विद्यमान हैं। (मे) मुझ प्रत्येक द्वारा दी गई आहुति का (जुषेथाम्) सेवन करो (शुनासीरा) हे वायु और आदित्य तुम दोनों। (दिवि) द्योतनशील अन्तरिक्ष में (यत्) जो (पयः) जल (चक्रथुः) तुम दोनों ने पैदा किया है, (तेन) उस द्वारा (इमाम्) इस कृष्टभूमि को (उप सिञ्चतम्) सींचो।
टिप्पणी
[ग्रामनिवासी कृष्टभूमि में उपस्थित होकर वर्षा निमित्त आहुतियाँ देते हैं और प्रत्येक ग्रामवासी अपने अपने हाथ से आहुतियाँ देता है। यह वर्षयज्ञ है।]
विषय
कृषि और अध्यात्म योग का उपदेश ।
भावार्थ
(इह) इस देह रूप क्षेत्र में हे (शुनासीरा) वायु आदित्य के समान हे प्राण और उदान ! (मे) मुझ आत्म-साधक योगी के (जुषेथाम्) अनुकूल, वशीभूत होकर रहो। (दिवि) द्यौलोक में स्थित (यत् पयः) जिस जलको जिस प्रकार सूर्य और वायु इस पृथ्वी पर बरसा देते हैं उसी प्रकार तुम दोनों भी (यत्) जो (दिवि) मूर्धास्थान में, ब्रह्मरन्ध्र में समाहित हो जाने के कारण होने वाला समाधिजन्य (पयः) आनन्द रस है (तेन इमाम्) उससे इस चित्तभूमि को (उप सिञ्चतम्) आप्लावित कर दो ।
टिप्पणी
(प्र०) ‘शुनासीराविमां वाचं जुषेथां यद्दिवि चक्रथुः पयः। ते नेमामुपसिञ्चतम्।’ इति ऋ०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वामित्र ऋषिः सीता देवता । १ आर्षी गायत्री, २, ५, ९ त्रिष्टुभः । ३ पथ्या-पंक्तिः । ७ विराट् पुरोष्णिक् । ८, निचृत् । ३, ४, ६ अनुष्टुभः । नवर्चं सूक्तम् ॥
इंग्लिश (4)
Subject
Farming
Meaning
O sun and wind, farmers and helpers, listen to me: the water which you create in the regions of light and the firmament and move in the light of knowledge, bring that down to irrigate this holy land of the fields.
Translation
O sunāsīra, may both of you enjoy ine’ here whatsoever milk, you have produced in heaven (divi cakrathuh) may you pour all that on this furrow. (Also Rv. IV.57.5)
Translation
Let the air and Sun be favorable to me. They bedew this earth with the water which they create in sky.
Translation
O Prana and Udana, remain under my control in the body. Just as the sun and air, rain on the earth, the water stored in heaven, so should Ye both bedew this mind with joy derivable from deep concentration.
Footnote
My: A Yogi. Ye: Prana and Udana. Udana: one of the five vital airs or life breaths which rises up the throat and enters into the head. See Rig, 4-57-5.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
७−(शुनासीरा) म० ५। हे पवनादित्यौ। (इह स्म) अत्रैव। (जुषेथाम्) युवां सेवेथाम्। स्वीकुरुतम्। (दिवि) आकाशे। (चक्रथुः) डुकृञ् करणे लिट्। युवां कृतवन्तौ। (पयः) उदकम्। निघ० १।१२। (इमाम्) दृश्यमानां भूमिम्। (उप सिञ्चतम्) व्याप्य आर्द्रीकुरुतम् ॥
बंगाली (2)
भाषार्थ
(ইহ স্ম) আমরা এই কৃষ্ট ক্ষেত্রমধ্যে বিদ্যমান আছি। (মে) আমার প্রত্যেকের দ্বারা প্রদত্ত আহুতির (জুষেথাম্) সেবন করো (শুনাসীরা) হে বায়ু ও আদিত্য তোমরা উভয়েই। (দিবি) দ্যোতনশীল অন্তরিক্ষে (যৎ) যে (পয়ঃ) জল (চক্রথুঃ) তোমরা উভয়ে তৈরি/সম্পাদন করেছো, (তন্) তা দ্বারা (ইমাম্) এই কৃষ্টভূমিকে (উপ সিঞ্চতম্) সেচন/সিঞ্চন করো।
टिप्पणी
[গ্রামনিবাসী কৃষ্টভূমিতে উপস্থিত হয়ে বর্ষার নিমিত্ত/জন্য আহুতি আদি দেয় এবং প্রত্যেক গ্রামবাসী নিজের-নিজের হাতে আহুতি প্রদান করে। এটি হল বর্ষাযজ্ঞ।]
मन्त्र विषय
কৃষিবিদ্যোপদেশঃ
भाषार्थ
(শুনাসীরা=০-রৌ) হে বায়ু ও সূর্য তোমরা উভয়ই! (ইহ স্ম) এখানেই (মে) আমার [বিনয়] (জুষেথাম্) স্বীকার করো, (যৎ পয়ঃ) যে জল (দিবি) আকাশে (চক্রথুঃ) তোমরা দুজন করেছো, (তেন) তা দ্বারা (ইমাম্) এই [ভূমি] কে (উপ সিঞ্চতম্) সীঞ্চন করতে থাকো ॥৭॥
भावार्थ
পবন ও সূর্যের দ্বারা পৃথিবীর জল আকাশে গিয়ে আবার পৃথিবীতে বর্ষিত হয়, তা কৃষির জন্য অনেক উপযোগী হয়॥৭॥ এই মন্ত্র কিছু ভেদে নিরু০ ৯।৪১ এ রয়েছে।
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