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अथर्ववेद के काण्ड - 3 के सूक्त 24 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 24/ मन्त्र 2
    ऋषिः - भृगुः देवता - वनस्पतिः, प्रजापतिः छन्दः - निचृत्पथ्यापङ्क्तिः सूक्तम् - समृद्धि प्राप्ति सूक्त
    71

    वेदा॒हं पय॑स्वन्तं च॒कार॑ धा॒न्यं॑ ब॒हु। सं॒भृत्वा॒ नाम॒ यो दे॒वस्तं व॒यं ह॑वामहे॒ योयो॒ अय॑ज्वनो गृ॒हे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वेद॑ । अ॒हम् । पय॑स्वन्तम् । च॒कार॑ । धा॒न्य᳡म् । ब॒हु । स॒म्ऽभृत्वा॑ । नाम॑ । य: । दे॒व: । तम् । व॒यम् । ह॒वा॒म॒हे॒ । य:ऽय॑: । अय॑ज्वन: । गृ॒हे ॥२४.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वेदाहं पयस्वन्तं चकार धान्यं बहु। संभृत्वा नाम यो देवस्तं वयं हवामहे योयो अयज्वनो गृहे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वेद । अहम् । पयस्वन्तम् । चकार । धान्यम् । बहु । सम्ऽभृत्वा । नाम । य: । देव: । तम् । वयम् । हवामहे । य:ऽय: । अयज्वन: । गृहे ॥२४.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 24; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    धान्य बढ़ाने के कर्म का उपदेश।

    पदार्थ

    (अहम्) मैं (पयस्वन्तम्) सारवाले परमेश्वर को (वेद) जानता हूँ। (बहु) बहुत सा (धान्यम्) धान्य (चकार) उसने उत्पन्न किया है। (यः) जो (देवः) दानशील ईश्वर (संभूत्वा) यथावत् पोषक (नाम) नाम (अयज्वनः) यज्ञ न करनेवाले के (गृहे) घर में (योयः=यस्-यः) गतिवाला है, (तम्) उस [परमात्मा] का (वयम्) हम (हवामहे) आवाहन करते हैं ॥२॥

    भावार्थ

    प्रत्येक प्राणी उस उत्तम पदार्थों के भण्डार परमात्मा को जानता है, जो अनेक अन्न उपजाकर [धर्मात्माओं का तो क्या कहना है] पापियों तक के घर भोजन पहुँचाता है। हम उसकी उपासना नित्य किया करें ॥२॥ शेखसादी शीराजी ने अपनी पुस्तक पुष्पवाटिका [गुलिस्ता] में इस मन्त्र का आशय इस प्रकार दिखलाया है−“ऐ करीमे कि अज खजानै गैब। गब्रो तर्सा वजीफा खुरदारी ॥१॥ दोस्तां रा कुजा कुनी महरूम्। तो कि वा दुश्मनां नजरदारी ॥२॥” हे ऐसे उदार कि तू गुप्त कोष के विरोधी और नास्तिक को पेटियाँ खिलाता है। मित्रों को तू कब निराश करे, जब कि तू द्वेषियों पर आँख रखता है ॥

    टिप्पणी

    २−(वेद) वेद्मि। जानामि। (अहम्) मनुष्यः। (पयस्वन्तम्) सारवन्तं परमात्मानम्। (चकार) स उत्पादयामास। (धान्यम्) अ० २।२६।५। धारणसाधनम्। अन्नम् (बहु) अधिकम् (संभृत्वा) अन्येभ्योऽपि दृश्यन्ते। पा० ३।२।७५। इति सम्+भृञ् भरणे-क्वनिप्। ह्रस्वस्य पिति कृति तुक्। पा० ६।१।७१। इति तुक्। संभरणशीलः। सम्यक् पोषकः। (नाम) एतत्संज्ञः। (देवः) दानशीलः। (हवामहे) आह्वयामः। (योषः) सर्वधातुभ्योऽसुन्। उ० ४।१८९। इति या गतौऽसुन्। इति यस्। या-ड। यस्, गमनं याति प्राप्नोतीति योयः। गतियुक्तः। (अयज्वनः) सुयजोर्ङ्वनिप्। पा० ३।२।१०३। इति यज-ङ्वनिप्। अकृतयागस्य। देवपूजासंगतिकरणदानरहितस्य। (गृहे) गेहे ॥

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    विषय

    पयस्वान् संभृत्वा, अयः

    पदार्थ

    १.(अहम्) = मैं (पयस्वन्तम्) = उस सारवाले देव को (वेद) = जानता हूँ। वह देव ही (धान्यम्) = व्रीहि यव आदि को (बहु चकार) = खूब उत्पन्न करते हैं। इस धान्य के द्वारा ही वे प्रभु सब प्राणियों का आप्यायन [वृद्धि] करते है। २. (संभृत्वा नाम) = संभरणशील नामक (यः देव:) = जो देव है (तं वयं हवामहे) = उसे हम पुकारते हैं। ये प्रभु सर्वत्र स्थित सार का संभरण करनेवाले हैं और (यः) = जो प्रभु (अयज्वनः) = अयज्ञशील पुरुष के (गृहे) = घर में (अय:) = अग्नि [fire] के समान है, उसमें स्थित  सब द्रव्यों को भस्म करनेवाले हैं।

    भावार्थ

    प्रभु पयस्वान्' हैं-सारभूत पदार्थोंवाले हैं। प्रभु ही व्रीहि-यव आदि धान्यों को जन्म देते हैं। ये संभरणशील प्रभु अयज्ञशील पुरुष के गृह में अग्नि के समान दाहक हैं।

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    भाषार्थ

    (अहम्) मैं (वेद) जानता हूँ (पयस्वन्तम्) जलवाले को, जिसने कि (बहु धान्यम्) बहुत धान्य (चकार) पैदा किया है। (संभृत्वा नाम य: देव:) संभरण-पोषण करने में जो प्रसिद्ध व्यवहारकुशल दिव्य व्यक्ति है, (तं वयम् हवामहे) उसका हम आह्वान करते हैं, (य: यः) और जो-जो [संभरण-पोषण करनेवाला व्यवहार कुशल] (अयज्वन:) राष्ट्र-यज्ञ न करने वाले के (गृहे) पर में नियत है उस-उसका भी आह्वान करते हैं।

    टिप्पणी

    [पयस्वान् है मेघ। मेघ है जलवाला। इस द्वारा वर्षा से धान्य बहुत पैदा होता है। संभृत्वा=संपूर्वात् भृञ:१ क्वनिप् (अष्टा० ३।२।७५), तुक् (अष्टा० ६।१।७१), (सायण), (य: य:) जो जो "संभृत्वा"। देवः= दिवु क्रीडा विजिगीषाव्यवहार आदि (दिवादिः) अर्थात् व्यवहारकुशल "राज्यकर" का अधिकारी (य: यः) जो-जो भी "राज्यकर" के संग्रह करने में, राष्ट्रयज्ञ के न करनेवालों के घर घर में नियुक्त हैं, उनका आह्वान है, उन द्वारा संगृहीत "राज्यकर" की राशि के परिज्ञानार्थ। "अयज्यनः गृहे" जात्येकवचन है, अभिप्राय है "अयज्वनां गृहेषु"। "राज्यकर" स्वेच्छापूर्वक देना, यह प्रत्येक भूमिपति का कर्तव्य है, तो भी उनकी सुविधा के लिए संग्रह करनेवाले नियुक्त किये गये हैं।] [१. भृञ् धारणपोषणयोः, तथा भृञ् भरणे।]

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    विषय

    [२४] उत्तम धान्य और औषधियों के संग्रह का उपदेश ।

    भावार्थ

    (अहं) मैं उस (पयस्वन्तं) सब से अधिक सारभूत पदार्थों से सम्पन्न, सब में पुष्टिकारक पदार्थों के प्रदाता, रस-सागर मेघ को (वेद) भली प्रकार जानता हूं जो (बहु धान्यं चकार) बहुत धान्य उत्पन्न करता है । (यः) जो (सम्भत्वा नाम) सब स्थानों से रसों को संग्रह करने और (देवः) जल का देने वाला है । और (यः-यः) जो (अयज्वनः) यज्ञ न करने हारे, अदानशील पुरुष के घर में भी जल आदि का दान करता है (तं वयं हवामहे) उसकी हम स्तुति करते हैं, उसका हम यथार्थ वर्णन करते हैं ।

    टिप्पणी

    (प्र०) ‘अहं वेद यथा षयः’ (तृ०) ‘यो वेदस्त्वं यजामहे सर्वस्य यश्च नो गृहे’ इति पैप्प० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भृगुर्ऋषिः। वनस्पतिएत प्रजापतिर्देवता। १, ३-७ अनुष्टुभः। २ निचृत्पथ्या पंक्तिः। सप्तर्चं सूक्तम् ॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Samrddhi, Abundance

    Meaning

    I know that exuberant divine power which creates abundant food and lush green fields of corn waving and overflowing with the milk of life, and which bears and brings all that which is in the house of the unyajnic person too. That superabundant and generous power we invoke and worship.

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    Translation

    I know the Lord of substance who has created plenty of grains. Whoso is called the bestower divine, him we hereby invoke, May he grant to us whatever is in the house of him who worships not.

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    Translation

    I know the cloud full of water which produces corn, which is known by the name of Devah Samabhritva, the giver of the water pooled in it, and we take advantage of that cloud as it gives water even to those who do not perform sacrifice.

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    Translation

    I know the Beneficial God. Abundant hath He made our corn. The charitable God is our Nourisher. Him we invoke Who dwelleth even m is house who sacrifices not.

    Footnote

    God is kind to the virtuous as well as the sinners. He tries to uplift the degraded and the downfallen.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २−(वेद) वेद्मि। जानामि। (अहम्) मनुष्यः। (पयस्वन्तम्) सारवन्तं परमात्मानम्। (चकार) स उत्पादयामास। (धान्यम्) अ० २।२६।५। धारणसाधनम्। अन्नम् (बहु) अधिकम् (संभृत्वा) अन्येभ्योऽपि दृश्यन्ते। पा० ३।२।७५। इति सम्+भृञ् भरणे-क्वनिप्। ह्रस्वस्य पिति कृति तुक्। पा० ६।१।७१। इति तुक्। संभरणशीलः। सम्यक् पोषकः। (नाम) एतत्संज्ञः। (देवः) दानशीलः। (हवामहे) आह्वयामः। (योषः) सर्वधातुभ्योऽसुन्। उ० ४।१८९। इति या गतौऽसुन्। इति यस्। या-ड। यस्, गमनं याति प्राप्नोतीति योयः। गतियुक्तः। (अयज्वनः) सुयजोर्ङ्वनिप्। पा० ३।२।१०३। इति यज-ङ्वनिप्। अकृतयागस्य। देवपूजासंगतिकरणदानरहितस्य। (गृहे) गेहे ॥

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    बंगाली (2)

    भाषार्थ

    (অহম্) আমি (বেদ) জ্ঞাত (পয়স্বন্তম্) জলসমৃদ্ধকে, যে (বহু ধান্যম্‌) বহু ধান্য (চকার) উৎপাদন করেছে। (সংভৃত্বা নাম যঃ দেবঃ) সংভরণ-পোষণ করার ক্ষেত্রে যে প্রসিদ্ধ ব্যাবহারকুশল দৈব ব্যক্তি আছে (তং বয়ম হবামহে) সেই শক্তিকে আমরা আহ্বান জানাই/করি, (যঃ যঃ) এবং যে যে [সংভরণ-পোষণ করার ক্ষেত্রে ব্যবহারকুশল] (অয়জ্বনঃ) রাষ্ট্র-যজ্ঞে অনুপস্থিত (গৃহে) যারা গৃহে রয়েছে, তাঁদেরও আমরা আহ্বান জানাই/করি।

    टिप्पणी

    [পয়স্বান্ হলো মেঘ। মেঘ, জলসম্পন্ন। এর দ্বারা বৃষ্টিপাতের মাধ্যমে প্রচুর শস্য উৎপন্ন হয়। সংভৃত্বা= সংপূর্বাৎ ভৃঞঃ১ ক্বনিপ্ (অষ্টা০ ৩।২।৭৫), তুক্ (অষ্টা০ ৬।১।৭১), (সায়ণ), (যঃ যঃ) যে যে "সংভৃত্বা"। দেবঃ=দিবু ক্রীডাবিজিগীষাব্যবহার আদি (দিবাদিঃ) অর্থাৎ ব্যবহারকুশল "রাজ্যকর" এর অধিকারী (যঃ যঃ) যারা যারা “রাজ্যকর” সংগ্ৰহের জন্য, রাষ্ট্রযজ্ঞে অনুপস্থিতদের বাড়িতে নিযুক্ত আছে, তাঁদের আহ্বান হয়েছে, তাঁদের সংগৃহীত "রাজ্যকর" এর রাশির পরিজ্ঞানার্থে। "অয়জ্বনঃ গৃহে" জাত্যেকবচন, অভিপ্রায় হলো "অয়জ্বনাং গৃহেষু"। "রাজ্যকর" স্বেচ্ছাপূর্বক দেওয়া, এটি প্রত্যেক ভূমিপতির কর্তব্য, তবুও তাঁদের সুবিধার্থে সংগ্রহকারী নিয়োগ করা হয়েছে]। [১. ভৃঞ্ ধারণপোষণয়োঃ, এবং ভৃঞ্ ভরণে।]

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    मन्त्र विषय

    ধান্যসমৃদ্ধিকর্মোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (অহম্) আমি (পয়স্বন্তম্) সারযুক্ত পরমেশ্বরকে (বেদ) জানি। (বহু) বহু (ধান্যম্) ধান্য (চকার) তিনি উৎপন্ন করেছেন। (যঃ) যে (দেবঃ) দানশীল ঈশ্বর (সংভৃত্বা) যথাবৎ পোষক (নাম) নাম (অযজ্বনঃ) যজ্ঞে না অংশগ্রহণকারীদের (গৃহে) গৃহে (যোয়ঃ=যস্যঃ) গতিবান, (তম্) সেই [পরমাত্মা] এর (বয়ম্) আমরা (হবামহে) আহ্বান করি ॥২॥

    भावार्थ

    প্রত্যেক প্রাণী সেই উত্তম পদার্থ-সমূহের কোষাগার পরমাত্মাকে জানে, যিনি অনেক অন্ন উৎপন্ন করে ধর্মাত্মাদের, এমনকি পাপীদের পর্যন্ত ঘরে ভোজন পৌঁছে দেয়। আমরা উনার উপাসনা নিত্য করি॥২॥ শেখ সাদী শীরাজী নিজের পুস্তক পুষ্পবাটিকা [গুলিস্তা] এ এই মন্ত্রের উদ্দেশ্য উল্লেখ করেছেন- “ঐ করীমে কি অজ খজানৈ গৈব। গব্রো তর্সা বজীফা খুরদারী ॥১॥ দোস্তাং রা কুজা কুনী মহরূম্। তো কি বা দুশ্মনাং নজরদারী ॥২॥” হে এমন উদার যে তুমি গুপ্ত কোষের বিরোধী ও নাস্তিককে পেট ভরে খাওয়াও। মিত্রদের তুমি কখন নিরাশ করো না, তুমি হিংসকদের প্রতি দৃষ্টি রাখো ॥

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