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अथर्ववेद के काण्ड - 3 के सूक्त 24 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 24/ मन्त्र 4
    ऋषिः - भृगुः देवता - वनस्पतिः, प्रजापतिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - समृद्धि प्राप्ति सूक्त
    67

    उदुत्सं॑ श॒तधा॑रं स॒हस्र॑धार॒मक्षि॑तम्। ए॒वास्माके॒दं धा॒न्यं॑ स॒हस्र॑धार॒मक्षि॑तम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उत् । उत्स॑म् । श॒तऽधा॑रम् । स॒हस्र॑ऽधारम् । अक्षि॑तम् । ए॒व । अ॒स्माक॑ । इ॒दम् । धा॒न्य᳡म् । स॒हस्र॑ऽधारम् । अक्षि॑तम् ॥२४.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उदुत्सं शतधारं सहस्रधारमक्षितम्। एवास्माकेदं धान्यं सहस्रधारमक्षितम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत् । उत्सम् । शतऽधारम् । सहस्रऽधारम् । अक्षितम् । एव । अस्माक । इदम् । धान्यम् । सहस्रऽधारम् । अक्षितम् ॥२४.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 24; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    धान्य बढ़ाने के कर्म का उपदेश।

    पदार्थ

    (इमाः) यह (याः) जो (मानवीः=०-व्यः) मानुषी (पञ्च) पाँच भूत [पृथिवी आदि] से सम्बन्धवाली (कृष्टयः) प्रजायें (पञ्च प्रदिशः) पाँच फैली हुई दिशाओं में हैं, वे प्रजायें (शापम्) अनिष्ट वा मलिनता हटाकर (इह) यहाँ पर (स्फातिम्) बढ़ती को (समावहान्) यथावत् लावें, और (नदीः इव नद्यः इव) जैसे नदियाँ (वृष्टे) बरसने पर [अनिष्ट वा मलिनता हटाकर] (शतधारम्) सैकड़ों धाराओंवाले और (सहस्रधारम्) सहस्रों विधि से धारण करनेवाले, (अक्षितम्) अक्षय (उत्सम्) सींचने के साधन [झरना, कूप आदि] को (उत्=उदावहन्ति) निकालती हैं (एव=एवम्) ऐसे ही (अस्माक=अस्माकम्) हमारा (इदम्) यह (धान्यम्) धान्य (सहस्रधारम्) सहस्रों प्रकार से धारण करनेवाला और (अक्षितम्) अक्षय [होवे] ॥३, ४॥

    भावार्थ

    मनुष्य खेती व्यापार आदि द्वारा पूर्वादि चार दिशाओं और ऊपर नीचे की दिशा [वायु मण्डल वा पाताल] से बहुत धन प्राप्त करें और अनेक प्रयोगों से उसकी यथावत् वृद्धि करें, जैसे बरसा का जल नदियों में एकत्र होकर और झरनों, कूपों, नालियों से खेती आदि में पहुँचकर दरिद्रता आदि मिटाकर संसार को लाभ पहुँचाता है ॥३, ४॥ मन्त्र ३ व ४ युग्मक छन्द हैं ॥ ३, ४−(इमाः) परिदृश्यमानाः। (याः) कृष्टयः। (पञ्च) पञ्चसंख्याकाः। (प्रदिशः) कालाध्वनोरत्यन्तसंयोगे। पा० २।३।५। इति द्वितीया। चतस्रः प्राच्याद्याः, पञ्चमो ध्रुवा दिग्, ऊर्ध्वा दिग्वा। (मानवीः) अ० ३।२१।५। मानव-ङीप्। मानव्यः मानुष्यः। (पञ्च) पञ्चभूतसंबन्धिन्यः (कृष्टयः) क्तिच्क्तौ च संज्ञायाम्। पा० ३।३।१७४। इति कृष विलेखने-क्तिच्। प्रजाः। मनुष्याः-निघ० २।३। (वृष्टे) भावे-क्त। वर्षणे सति। (शापम्) अकथितं च। पा० १।४।५१। इति अपादाने द्वितीया। शापात्। शापम् अनिष्टं मलं वा वर्जयित्वा। (नदीः इव) नद्यो यथा (इह) अत्र। (स्फातिम्) स्फायी वृद्धौ-क्तिन्। लोपो व्योर्वलि। पा० ६।१।६६। इति यलोपः। धनधान्यवृद्धिम्। (समावहान्)। सम्+आङ्+वहेर्लेटि आडागमः। सम्यग् आनयन्तु। बहेर्द्विकर्मकत्वात्, शापं स्फातिम्, इत्येतयोः कर्मत्वम्। (उत्) तृतीयमन्त्रसंबन्धात्, उत्+आङ्+वहन्तु। (उत्सम्) अ० १।१५।३। सेचनसाधनम्। निर्झरम्। कूपम्। (शतधारम्) बहुधारायुक्तम्। (सहस्रधारम्) बहु प्रकारेण धारकम् (अक्षितम्) अक्षीणम्। अनश्वरम्। (एव) एवम् (अस्माक) मलोपश्छान्दसः। अस्माकम् (इदम्) परिदृश्यमानम्। अन्यद् गतम् ॥

    टिप्पणी

    ३, ४−(इमाः) परिदृश्यमानाः। (याः) कृष्टयः। (पञ्च) पञ्चसंख्याकाः। (प्रदिशः) कालाध्वनोरत्यन्तसंयोगे। पा० २।३।५। इति द्वितीया। चतस्रः प्राच्याद्याः, पञ्चमो ध्रुवा दिग्, ऊर्ध्वा दिग्वा। (मानवीः) अ० ३।२१।५। मानव-ङीप्। मानव्यः मानुष्यः। (पञ्च) पञ्चभूतसंबन्धिन्यः (कृष्टयः) क्तिच्क्तौ च संज्ञायाम्। पा० ३।३।१७४। इति कृष विलेखने-क्तिच्। प्रजाः। मनुष्याः-निघ० २।३। (वृष्टे) भावे-क्त। वर्षणे सति। (शापम्) अकथितं च। पा० १।४।५१। इति अपादाने द्वितीया। शापात्। शापम् अनिष्टं मलं वा वर्जयित्वा। (नदीः इव) नद्यो यथा (इह) अत्र। (स्फातिम्) स्फायी वृद्धौ-क्तिन्। लोपो व्योर्वलि। पा० ६।१।६६। इति यलोपः। धनधान्यवृद्धिम्। (समावहान्)। सम्+आङ्+वहेर्लेटि आडागमः। सम्यग् आनयन्तु। बहेर्द्विकर्मकत्वात्, शापं स्फातिम्, इत्येतयोः कर्मत्वम्। (उत्) तृतीयमन्त्रसंबन्धात्, उत्+आङ्+वहन्तु। (उत्सम्) अ० १।१५।३। सेचनसाधनम्। निर्झरम्। कूपम्। (शतधारम्) बहुधारायुक्तम्। (सहस्रधारम्) बहु प्रकारेण धारकम् (अक्षितम्) अक्षीणम्। अनश्वरम्। (एव) एवम् (अस्माक) मलोपश्छान्दसः। अस्माकम् (इदम्) परिदृश्यमानम्। अन्यद् गतम् ॥

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    विषय

    शतधार-सहस्त्रधार उत्स

    पदार्थ

    १. यहाँ गतमन्त्र से 'वृष्टे' शब्द की अनुवृत्ति है। [वृष्टे] वृष्टि होने पर (उत्सम) = जलोत्पत्ति सधान [निर्झर] (शतधारम्) = सैकड़ों (उदक) = धाराओं से युक्त होता हुआ तथा (सहस्त्रधारम्) = हजारों धाराओं का रूप धारण करता हुआ (अक्षितम्) = [न क्षितं यस्मात्] विनाश को दूर करनेवाला होकर (उद्) [भवति] = उद्भुत होता है। २. (एव) = इसीप्रकार (अस्माकम्) = हमारा (इदम् धान्यम्) = यह धान्य (सहस्त्रधारम्) = अपरिमित धाराओं से युक्त-बहुत प्रकार के उपायों से बढ़ा हुआ (अक्षितम्) = क्षयरहित हो। यह धान्य धारण करनेवाला हो, विनाश से बचानेवाला हो।

    भावार्थ

    वृष्टि से सैकड़ों धाराओंवाले स्रोत फूट पड़ें और हमें सहस्रों का धारण करनेवाले धान्य प्राप्त हों।

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    भाषार्थ

    (उत्सम्) जैसेकि चश्मा, (शतधारम् सहस्रधारम्) सौ धाराओं वाला तथा हजार धाराओंवाला (उत्) उद्धृत हुआ (अक्षितम्) क्षीण नहीं होता, (एव) इसी प्रकार (अस्माक=अस्माकम्) हमारा (इदम् धान्यम्) यह धान्य (अक्षितम्) क्षीण नहीं होता, (सहस्रधारम्) और हजारों का धारण-पोषण करता है। उत्=उद्भूतम् (सायण)

    टिप्पणी

    [मन्त्र २ में बहुधान्यम्, तथा मन्त्र ३ में स्फातिम् के कारण हमारा धान्य अक्षित है।]

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    विषय

    उत्तम धान्य और औषधियों के संग्रह का उपदेश ।

    भावार्थ

    जिस प्रकार (उत्सम्) जल का स्रोत (शत-धारम्) सैकड़ों धाराओं और (सहस्र-धारम्) हजारों धाराओं वाला (अक्षितम्) अक्षय होता है, (एवा) इसी प्रकार (अस्माकम् इदं) हमारी यह (धान्यम्) धान्य की फसल भी (सहस्रधारम्) सहस्रों धाराओं से युक्त होकर (अक्षितम्) अक्षय खजाना बनी रहे ।

    टिप्पणी

    ‘यथा रूपः शतधारः सहस्रधारो अक्षितः । एवा मे अस्तु धान्यं सहस्रधारमक्षतम्’ इति पैप्प० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भृगुर्ऋषिः। वनस्पतिएत प्रजापतिर्देवता। १, ३-७ अनुष्टुभः। २ निचृत्पथ्या पंक्तिः। सप्तर्चं सूक्तम् ॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Samrddhi, Abundance

    Meaning

    And let this food, wealth and prosperity of ours, dynamic and flowing in a thousand streams, be abundant and inexhaustible as the perennial oceanic cloud of space vapours is, raining in a hundred and thousand showers.

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    Translation

    The spring of water comes out in a hundred streams and in a thousand streams ever unexhausted, so may our this store of grains increase in a thousand streams ever unexhausted.

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    Translation

    As the fountain spring having hundreds of current and thousands of currents is inexhaustible so inexhaustible becomes the wealth of our crops possessing thousands of increase.

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    Translation

    Just as after the rains, ponds and waterfalls are filled with hundred showers, exhaustless, with a thousand showers, so may this corn of ours be exhaustless, with a thousand varieties.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३, ४−(इमाः) परिदृश्यमानाः। (याः) कृष्टयः। (पञ्च) पञ्चसंख्याकाः। (प्रदिशः) कालाध्वनोरत्यन्तसंयोगे। पा० २।३।५। इति द्वितीया। चतस्रः प्राच्याद्याः, पञ्चमो ध्रुवा दिग्, ऊर्ध्वा दिग्वा। (मानवीः) अ० ३।२१।५। मानव-ङीप्। मानव्यः मानुष्यः। (पञ्च) पञ्चभूतसंबन्धिन्यः (कृष्टयः) क्तिच्क्तौ च संज्ञायाम्। पा० ३।३।१७४। इति कृष विलेखने-क्तिच्। प्रजाः। मनुष्याः-निघ० २।३। (वृष्टे) भावे-क्त। वर्षणे सति। (शापम्) अकथितं च। पा० १।४।५१। इति अपादाने द्वितीया। शापात्। शापम् अनिष्टं मलं वा वर्जयित्वा। (नदीः इव) नद्यो यथा (इह) अत्र। (स्फातिम्) स्फायी वृद्धौ-क्तिन्। लोपो व्योर्वलि। पा० ६।१।६६। इति यलोपः। धनधान्यवृद्धिम्। (समावहान्)। सम्+आङ्+वहेर्लेटि आडागमः। सम्यग् आनयन्तु। बहेर्द्विकर्मकत्वात्, शापं स्फातिम्, इत्येतयोः कर्मत्वम्। (उत्) तृतीयमन्त्रसंबन्धात्, उत्+आङ्+वहन्तु। (उत्सम्) अ० १।१५।३। सेचनसाधनम्। निर्झरम्। कूपम्। (शतधारम्) बहुधारायुक्तम्। (सहस्रधारम्) बहु प्रकारेण धारकम् (अक्षितम्) अक्षीणम्। अनश्वरम्। (एव) एवम् (अस्माक) मलोपश्छान्दसः। अस्माकम् (इदम्) परिदृश्यमानम्। अन्यद् गतम् ॥

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    बंगाली (2)

    भाषार्थ

    (উত্সম্) যেমন ঝর্ণা, (শতধারম্‌, সহস্রধারম্‌) শত ধারাযুক্ত এবং সহস্র ধারাযুক্ত (উত্) উদ্ধৃত হয়ে (অক্ষিতম্‌) ক্ষীণ হয় না (এব) এইভাবে (অস্মাক = অস্মাকম্‌) আমাদের (ধান্যম্‌) ধান্য (অক্ষিতম্‌) ক্ষীন হয় না, (সহস্রধারম্‌) এবং সহস্রের ধারণ-পোষণ করে। উত্ = উদ্ভূতম্‌ (সায়ণ)

    टिप्पणी

    [মন্ত্র ২ এ বহুধান্যম্‌, এবং মন্ত্র ৩ এ স্ফাতিম্‌-এর কারণে আমাদের ধান্য অক্ষিত রয়েছে।]

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    मन्त्र विषय

    ধান্যসমৃদ্ধিকর্মোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (ইমাঃ) এই (যাঃ) যে (মানবীঃ=০-ব্যঃ) মানুষী (পঞ্চ) পাঁচ ভূত [পৃথিবী আদি] এর সাথে সম্বন্ধিত (কৃষ্টয়ঃ) প্রজা (পঞ্চ প্রদিশঃ) পাঁচটি বিস্তারিত দিশায় রয়েছে, সেই প্রজা (শাপম্) অনিষ্ট বা মলিনতা দূর করে (ইহ) এখানে (স্ফাতিম্) বৃদ্ধিকে (সমাবহান্) যথাবৎ নিয়ে আসুক, এবং (নদীঃ ইব নদ্যঃ ইব) নদী যেযন (বৃষ্টে) বৃষ্টি হলে [অনিষ্ট বা মলিনতা দূর করে] (শতধারম্) শত ধারাযুক্ত এবং (সহস্রধারম্) সহস্র বিধিতে ধারণকারী, (অক্ষিতম্) অক্ষয় (উৎসম্) সীঞ্চনের সাধন [ঝর্না, কূপ আদি] কে (উৎ=উদাবহন্তি) বের করে (এব=এবম্) এভাবেই (অস্মাক=অস্মাকম্) আমাদের (ইদম্) এই (ধান্যম্) ধান্য (সহস্রধারম্) সহস্র প্রকারে ধারণকারী এবং (অক্ষিতম্) অক্ষয় [হোক] ॥৩, ৪॥

    भावार्थ

    মনুষ্য কৃষিকাজ, ব্যবসা, বাণিজ্য ইত্যাদি দ্বারা পূর্বাদি চারটি দিশা ও উপর নীচের দিশা [বায়ু মণ্ডল বা পাতাল] থেকে অনেক ধন প্রাপ্ত করুক এবং অনেক প্রয়োগের দ্বারা তা যথাবৎ বৃদ্ধি করুক, যেমন বর্ষার জল নদীতে একত্র হয়ে এবং ঝর্না, কূপ, নালা থেকে জমিতে পৌঁছে দরিদ্রতা আদি বিনাশ সংসারের জন্য লাভজনক হয় ॥৩, ৪॥ মন্ত্র ৩ এবং ৪ যুগ্মক ছন্দ।

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