अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 34/ मन्त्र 3
ऋषिः - अथर्वा
देवता - ब्रह्मौदनम्
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - ब्रह्मौदन सूक्त
97
वि॑ष्टा॒रिण॑मोद॒नं ये पच॑न्ति॒ नैना॒नव॑र्तिः सचते क॒दा च॒न। आस्ते॑ य॒म उप॑ याति दे॒वान्त्सं ग॑न्ध॒र्वैर्म॑दते सो॒म्येभिः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठवि॒ष्टा॒रिण॑म् । ओ॒द॒नम् । ये । पच॑न्ति । न । ए॒ना॒न् । अव॑र्ति: । स॒च॒ते॒ । क॒दा । च॒न । आस्ते॑ । य॒मे । उप॑ । या॒ति॒ । दे॒वान् । सम् । ग॒न्ध॒र्वै: । म॒द॒ते॒ । सो॒म्येभि॑: ॥३४.३॥
स्वर रहित मन्त्र
विष्टारिणमोदनं ये पचन्ति नैनानवर्तिः सचते कदा चन। आस्ते यम उप याति देवान्त्सं गन्धर्वैर्मदते सोम्येभिः ॥
स्वर रहित पद पाठविष्टारिणम् । ओदनम् । ये । पचन्ति । न । एनान् । अवर्ति: । सचते । कदा । चन । आस्ते । यमे । उप । याति । देवान् । सम् । गन्धर्वै: । मदते । सोम्येभि: ॥३४.३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
ब्रह्मविद्या का उपदेश।
पदार्थ
(ये) जो महात्मा लोग (विष्टारिणम्) विस्तारवान् (ओदनम्) सेचनसमर्थ वा अन्नरूप परमात्मा को [हृदय में] (पचन्ति) परिपक्व करते हैं, (एनान्) इन लोगों को (अवर्त्तिः) दरिद्रता (कदा चन) कभी भी (न) नहीं (सचते) मिलती है। [जो पुरुष] (यमे) नियम वा न्यायकारी परमात्मा में (आस्ते) रहता है, [वह] (देवान्) उत्तम गुणों को (उप) अधिक-अधिक (याति) पाता है, और (गन्धर्वैः) पृथिवी आदि लोकों वा वेदवाणियों को धारण करनेवाले (सोम्येभिः) सोम अर्थात् ऐश्वर्ययोग्य महात्माओं से (सम्) मिल कर (मदते) आनन्द भोगता है ॥३॥
भावार्थ
योगी जन परमात्मा में श्रद्धा रखकर सदा उदारचित्त रहते हैं, क्योंकि जितेन्द्रिय पुरुष ही विद्वानों के सत्सङ्ग से उत्तम-उत्तम गुण पाकर आनन्द भोगते हैं ॥३॥
टिप्पणी
३−(विष्टारिणम्) म० १। विस्तारवन्तम् (ओदनम्) म० १। सेचनशीलम् अन्नरूपं वा परमात्मानम् (ये) महात्मानो योगिनः (पचन्ति) पक्वं श्रद्धया दृढं कुर्वन्ति (न) निषेधे (एनान्) एतान् योगिनः (अवर्तिः) हृपिषिरुहिवृति०। उ० ४।११९। इति वृतु वर्तने-इन्। वर्तिर्वृत्तिः, जीविका। तदभावः अवर्तिः। दारिद्र्यम् (सचते) समवैति यः (कदा चन) कदाचिदपि (आस्ते) तिष्ठति (यमे) नियमे न्यायकारिणि परमात्मनि वा (उप) अधिकम् (याति) प्राप्नोति सः (देवान्) दिव्यगुणान् (सम्) सह भूत्वा (गन्धर्वैः) अ० २।१।२। गवां पृथिव्यादिलोकानां वेदवाणीनां वा धारकैः (मदते) हृष्यति (सोम्यैः) सोमार्हैः ऐश्वर्ययोग्यैः ॥
विषय
विष्टारि ओदन
पदार्थ
१. (ये) = जो (विष्टारिणम्) = शक्तियों का विस्तार करनेवाले (ओदनम्) = ज्ञान भोजन को (पचन्ति) = पकाते हैं, अर्थात् जो ज्ञान प्रधान जीवनवाले बनकर, भोगासक्ति से ऊपर उठ कर अपनी शक्तियों का विस्तार करते हैं, (एनान्) = ब्रह्मौदन का सेवन करनेवाले इन व्यक्तियों को (अवर्तिः) = [वर्ति जीविका] जीविका के लिए आवश्यक धन का अभाव (कदाचन) = कभी भी (न सचते) = नहीं प्राप्त होता ज्ञानी दारिद्र्य पीड़ित नहीं होता। २. यह ज्ञानी (यमे) = उस सर्वनियन्ता प्रभु में आस्ते आसीन होता है, (देवान् उपयाति) = दिव्य गुणों को प्राप्त होता है। ब्रह्म-उपासना दिव्य गुण प्राप्ति का साधन बनती है। यह (सोम्येभिः) = सोम का रक्षण करनेवाले - विनीत (गन्धर्वै:) = ज्ञान-वाणियों के धारक पुरुषों के साथ (संमदते) = उत्कृष्ट हर्षयुक्त होता है।
भावार्थ
ज्ञानप्रधान जीवनवाला व्यक्ति १. दरिद्र नहीं होता, २. प्रभु का उपासक होता है, ३. दैवीसम्पत्ति को प्राप्त होता है, ४. विनीत ज्ञानियों के सम्पर्क में हर्ष का अनुभव करता है।
भाषार्थ
(ये) जो (विष्टारिणम्) विस्तारवाले (ओदनम्) ओदन को (पचन्ति) पकाते हैं, (एनान्) इनको (कदा चन) कभी भी (अवर्तिः) वृत्ति का अभाव अर्थात् दारिद्र्य (न सचते) नहीं प्राप्त होता, [वह प्रत्येक ओदन परिपाकी] (यम) यम-नियमों में (आस्ते) वास करता है, (देवान्) दिव्यगुणों वाले सत्पुरुषों के (उप) समीप (याति) जाता है, उनका सत्संग करता है, तथा (सोम्येभिः) सौम्यस्वभाववाले (गन्धर्वैः) वेदवाणी के धारण करनेवालों के (सम्) साथ (मदते) मोद-प्रमोद प्राप्त करता है।
टिप्पणी
[सचते= षच समवाये (भ्वादिः), समवायः, सम्बन्धः। गन्धर्वै:= गौः वाङ्नाम (निघं० १।११)+ धृञ् धारणे (भ्वादिः)। गौः अर्थात् वाक् है वेदवाक्, वेदवाणी। विष्टारी ओदान, यथा— अहं पंचाम्यहं ददामि ममेदु कर्मन् कुरुणेऽधि जाया। कौमारो लोको अजनिष्ट पुत्रोन्वारभेथां वयं उत्तरावत् ॥अथर्व० १२।३।४७॥ "मैं पकाता हूँ, मैं देता हूँ, मेरे ही करुणामय कर्म में मेरी जाया है। लोकः अर्थात् भूलोक, कौमार पुत्र मेरे लिए हो गया है, इस अधिक उत्कृष्ट (वयः) जीवन को (अन्वारभेथाम्) तुम पत्नी-पति आरम्भ करो!" यह है विस्तारवाला ओदन जिस द्वारा कि समग्र भूलोक को निज कौमार-पुत्र जानकर पति-पत्नी पालते हैं। इसी प्रकार गृहस्थी को पञ्चमहायज्ञ भी करने होते हैं, जो "ऋषियज्ञ१, देवयज्ञ, भूतयज्ञ, नृयज्ञ, पितृयज्ञ" हैं। ये पाँच यज्ञ भी "विष्टारी ओदन" रूप हैं। तथा— शुनां च पतितानां च श्वपचा पापरोगिणाम्। वायसानां कुमीणां च शनकैर्नि्वपेद् भुवि॥–मनु० ३।९२, "कुत्तों, पतितों, श्वपाकियों पापरोगियों, कौओं, कृमियों को पका अन्न देना–यह भी 'विष्टारी ओदन' है, अर्थात् विस्तृत या विविध प्राणियों को दिया गया पक्व अन्न।] [१. ऋषियज्ञ= वेदादिशास्त्रों का पढ़ना-पढ़ाना, सन्ध्योपासन, योगाभ्यास। देवयज्ञ= विद्वानों का संग, सेवा, दिव्यगुणों का धारण, दातृत्व, विद्या की उन्नति और [अग्निहोत्र] करना है। ये दोनों यज्ञ सायं प्रात: करने होते हैं। भूतयज्ञ= दिवाचरेभ्यो भूतेभ्यो नमः [अन्न], नक्तं चारिभ्यो भूतेभ्यो नमः [अन्न] । नृयज्ञ=अतिथिसेवा अर्थात् अतिथियज्ञ। पितृयज्ञ= देव जो विद्वान्, ऋषि जो पढ़ने-पढ़ानेवाले, पितर माता-पिता आदि, वृद्धज्ञानी और परमयोगियों की सेवा। (सत्यार्धप्रकाश, चतुर्थ समुल्लास से उद्धृत) ।]
विषय
विष्टारी ओदन, परम प्रजापति की उपासना और फल।
भावार्थ
(ये) जो ब्रह्मचारी (विस्तारिणं) विस्तृत, विराड् रूप इस (ओदनं) परमात्मा रूप ‘ओदन’ को (पचन्ति) परिपक्व करते हैं, उसका अभ्यास करते, पकाते हैं, अपने हृदय में दृढ़ कर लेते हैं (एनान्) उन पुरुषों को (अवर्त्तिः) कष्ट (कदा चन) कभी भी (न सचते) नहीं रहता। ब्रह्मचारी (यमे) समस्त विश्व के नियामक परमेश्वर में या यम नियम में (आस्ते) आश्रय लेता हैं और (देवान्) दिव्य गुणों को (उप याति) प्राप्त होता है, और (सोम्येभिः) सोम्य प्रवृत्ति वाले (गन्धर्वैः) ज्ञानी पुरुषों के साथ (मदते) परम हर्ष को प्राप्त होता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। ब्रह्मास्यौदनं विष्टारी ओदनं वा देवता। १-३ त्रिष्टुभः। ५ त्र्यवसाना सप्तपदाकृतिः। ६ पञ्चपदातिशक्वरी। ७ भुरिक् शक्वरी, ८ जगती। अष्टर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Worship and Self-Surrender
Meaning
Want and distress never afflicts those who maintain the epicycle of yajna and prepare the holy food for yajnic homage and thus serve the divine spirit of yajna. The person who abides by the discipline of external and internal law of Yama rises to the spirit of divinity, associates with the divines, and rejoices with the Gandharvas with whom he shares the peace and pleasure of life on earth. (To appreciate the joyous peace and pleasure of the Gandharva state of being, refence may be made to Ananda Valli of Taittiriya Upanishad 2, 8, 1-12.)
Translation
Those, who cook the swelling rice, are never visited by destitution. Such a person is comfortable at the time of death. He joins the company of the enlightened ones and rejoices with the: musicians (gandharvas) tasting the devotional bliss.
Translation
Never any evil or misfortune visits them who prepare this oblation element for the purpose of Vistarin Yajna. Such a man lives in obstention, attain good qualities and enjoys the company of generous men of enlightenment.
Translation
Never doth penury or evil fortune visit those who firmly fix the Great God in their heart. A Brahmachari follows the Yamas (laws of austerity), acquires noble qualities, and enjoys supreme felicity in the company of tranquil, learned persons.
Footnote
Yamas: Ahinsa (Non-violence), Satya (Truth), Asteya (Non-stealing), Brahmacharya(celibacy), Aprigraha (Freedom from pride).
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३−(विष्टारिणम्) म० १। विस्तारवन्तम् (ओदनम्) म० १। सेचनशीलम् अन्नरूपं वा परमात्मानम् (ये) महात्मानो योगिनः (पचन्ति) पक्वं श्रद्धया दृढं कुर्वन्ति (न) निषेधे (एनान्) एतान् योगिनः (अवर्तिः) हृपिषिरुहिवृति०। उ० ४।११९। इति वृतु वर्तने-इन्। वर्तिर्वृत्तिः, जीविका। तदभावः अवर्तिः। दारिद्र्यम् (सचते) समवैति यः (कदा चन) कदाचिदपि (आस्ते) तिष्ठति (यमे) नियमे न्यायकारिणि परमात्मनि वा (उप) अधिकम् (याति) प्राप्नोति सः (देवान्) दिव्यगुणान् (सम्) सह भूत्वा (गन्धर्वैः) अ० २।१।२। गवां पृथिव्यादिलोकानां वेदवाणीनां वा धारकैः (मदते) हृष्यति (सोम्यैः) सोमार्हैः ऐश्वर्ययोग्यैः ॥
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