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अथर्ववेद के काण्ड - 4 के सूक्त 34 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 34/ मन्त्र 6
    ऋषिः - अथर्वा देवता - ब्रह्मौदनम् छन्दः - पञ्चपदातिशक्वरी सूक्तम् - ब्रह्मौदन सूक्त
    89

    घृ॒तह्र॑दा॒ मधु॑कूलाः॒ सुरो॑दकाः क्षी॒रेण॑ पू॒र्णा उ॑द॒केन॑ द॒ध्ना। ए॒तास्त्वा॒ धारा॒ उप॑ यन्तु॒ सर्वाः॑ स्व॒र्गे लो॒के मधु॑म॒त्पिन्व॑माना॒ उप॑ त्वा तिष्ठन्तु पुष्क॒रिणीः॒ सम॑न्ताः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    घृ॒तऽहृ॑दा: । मधु॑ऽकूला: । सुरा॑ऽउदका: । क्षी॒रेण॑ । पू॒र्णा: । उ॒द॒केन॑ । द॒ध्ना । ए॒ता: ।त्वा॒ । धारा॑: । उप॑ । य॒न्तु॒ । सर्वा॑: । स्व॒:ऽगे । लो॒के । मधु॑ऽमत् । पिन्व॑माना: । उप॑ । त्वा॒ । ति॒ष्ठ॒न्तु॒ । पु॒ष्क॒रिणी॑: । सम्ऽअ॑न्ता: ॥३४.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    घृतह्रदा मधुकूलाः सुरोदकाः क्षीरेण पूर्णा उदकेन दध्ना। एतास्त्वा धारा उप यन्तु सर्वाः स्वर्गे लोके मधुमत्पिन्वमाना उप त्वा तिष्ठन्तु पुष्करिणीः समन्ताः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    घृतऽहृदा: । मधुऽकूला: । सुराऽउदका: । क्षीरेण । पूर्णा: । उदकेन । दध्ना । एता: ।त्वा । धारा: । उप । यन्तु । सर्वा: । स्व:ऽगे । लोके । मधुऽमत् । पिन्वमाना: । उप । त्वा । तिष्ठन्तु । पुष्करिणी: । सम्ऽअन्ता: ॥३४.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 34; मन्त्र » 6
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    हिन्दी (3)

    विषय

    ब्रह्मविद्या का उपदेश।

    पदार्थ

    (घृतहृदाः) प्रकाश की ध्वनिवाली, (मधुकूलाः) मधु अर्थात् ज्ञान के रक्षा साधनवाली, (सुरोदकाः) सुरा अर्थात् ऐश्वर्य वा तत्त्व मथन का सेवन करनेवाली, (क्षीरेण) भोजन साधन से, (उदकेन) सेचन वा वृद्धि साधन से और (दध्ना) धारण पोषण सामर्थ्य से (पूर्णाः) परिपूर्ण, (एताः) ये (सर्वाः) सब (धाराः) धारण शक्तियाँ (स्वर्गे लोके) स्वर्ग लोक में (मधुमत्) मधु नाम ज्ञान की पूर्णता से (त्वा) तुझको (पिन्वमानाः) सींचती हुई, (उप) आदर से (यन्तु) मिलें, और (समन्ताः) सम्पूर्ण (पुष्करिणी=०-ण्यः) पोषणवती शक्तियाँ (त्वा) तुझ में (उप तिष्ठन्तु) उपस्थित होवें ॥६॥

    भावार्थ

    मनुष्य योगसाधन से अपनी अनेक शक्तियाँ बढ़ाकर संसार का उपकार करके आनन्द भोगता है ॥६॥

    टिप्पणी

    ६−(घृतह्रदाः) अञ्चिघृसिभ्यः क्तः। उ० ३।८९। इति घृ क्षरणदीप्त्योः-क्त। घृतं प्रकाशः। ह्राद अव्यक्ते शब्दे-अच्, निपातः। प्रकाशयुक्त-ध्वनयः (मधुकूलाः) कूल आवरणे-अच्। मधु ज्ञानं कूलम्, आवरणं रक्षासाधनं यासां ताः (सुरोदकाः) सुसूधाञ्गृधिभ्यः क्रन्। उ० २।२४। षु प्रसवैश्वर्ययोः, यद्वा षुञ् अभिषवे-क्रन्।, यद्वा, षुर ऐश्वर्यदीप्त्योः=क, टाप्। सुरा=उदकम्-निघ० १।१५। सुरा सुनोतेः-निरु० १।११। सुराणां पत्नी शक्तिः सुरा। उदकं च। उ० २।३९। इति उन्दी क्लेदने-क्वुन्। सुरा, ऐश्वर्यं तत्त्वमथनं वा, उदकं सेचनं यासां ताः (क्षीरेण) घसेः किच्च। उ० ४।३४। इति घस्लृ अदने-ईरन्। वा क्षर संचलने-डीरन्। क्षीरम् उदकम्-निघ० १।१२। क्षीरं क्षरतेर्घसेर्वेरो नामकरण उशीरमिति यथा-निरु० २।५। भोजनसाधनेन (पूर्णाः) पूरिताः (उदकेन) सेचनसाधनेन (दध्ना) अ० ३।१२।७। दधि धारणं पोषणं तेन। अन्यत् पूर्ववत् म० ५ ॥

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    विषय

    क्षीर, उदक, दधि

    पदार्थ

    १. (घृतहदा:) = घृत के तालाब (मधुकूला:) = जिसके किनारे शहद के बने हुए हैं तथा ऐसे तालाब जोकि (सुरोदका:) = [सुर to shine] चमकते हुए जलवाले हैं। वे तालाब जोकि (क्षीरेण) = दूध से (पूर्णा:) = भरे हुए हैं, (उदकेन) = जल से पूर्ण हैं और दना-दही से भरे हुए हैं। (एता:) = ये (सर्वा:) = सब (धारा:) = धारण करनेवाले तालाब (त्वा उपयन्तु) = तुझे समीपता से प्राप्त हों, अर्थात् घर में 'घृत, मधु, पवित्रजल, दूध, दही' की कमी न हो। २. ये सब धारण करनेवाले तालाब स्वर्ग लोके-स्वर्गतुल्य इस गृहप्रदेश में (मधुमत् पिन्वमाना:) = माधुर्ययुक्त रस का सेचन करनेवाले हों और (समन्ताः) = चारों दिशाओं में होनेवाली (पुष्करिणी:) = कमलों की सरसियौं (त्वा) = तेरे गृह में (उपतिष्ठन्तु) = उपस्थित हों।

    भावार्थ

    हमारे घरों में 'घृत मधु, पवित्रजल, दूध व दही' की कमी न हो। घर में चारों ओर कमलों के छोटो-छोटे तालाब हों।

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    भाषार्थ

    (घृतह्रदाः) घृत के तालाब-सदृश महाकाय मटके१, (मधु कूलाः) मधु द्वारा कूलों अर्थात् किनारों तक भरे मटके, (सुरोदकाः) आयुर्वेदिक अरिष्टों तथा आसवोंवाले महाकाय मटके, तथा (क्षीरेण) दूध द्वारा, (उदकेन) उदक द्वारा, (दध्ना:) दधि द्वारा (पूर्णाः) भरपूर मटके, (एताः) ये (सर्वाः धारा:) सब धारक धाराएँ (त्वा) तुझे (उप यन्तु) प्राप्त हों (स्वर्गे लोके) गृहस्थ लोकरूपी स्वर्गलोक में; तथा (मधुमत्) मधुर मधु को (पिन्वमाना:) सींचती हुई (पुष्करिणी:) पुष्करों अर्थात् कमलोंवाली भूमियाँ, (पर्यन्ताः) जोकि पर्यन्तवर्ती हैं, वे (त्वा) तुझे (उप तिष्ठन्तु) उपस्थित हों, तेरे समीप स्थित हों।

    टिप्पणी

    [सुरदोका:= सुरा उदकनाम (निघं० १।१२), अर्थात् सन्धान-विधि द्वारा शुद्ध किया जल-यह अभिप्राय निघण्टु द्वारा प्रतीत होता है। आयुर्वेद की दृष्टि में 'सुरोदका' का अभिप्राय है अरिष्टों और द्राक्षासवों आदिवाला उदक। 'पुष्करिणी' हैं कमलोंवाली भूमियाँ। मधुमक्खियाँ कमलों के फूलों से मधु अर्थात् शहद का संग्रह करती हैं, कमलों के फूलों से संगृहीत मधु अधिक गुणकारी प्रतीत होता है।] [१. इन्हें मन्त्र ७ में कुम्भ कहा है। ये छोटे कुम्भ नहीं, अपितु महाकाय हैं, मटके हैं।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Worship and Self-Surrender

    Meaning

    May all these abundant streams with pools of ghrta, banks of delicious shade and fragrance, full of exciting drink, overflowing with milk, water, curds and exuberant honey, all full of fragrant flowers, flow for you in the state of paradisal bliss.

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    Translation

    Having pools of clarified butter, stocks of sweet honey, and having exhilarating drinks for water, full of milk and curds, may all these streams flow to us in the world of happiness swelling sweetly. May our lakes full of lotuses be situated near us.

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    Translation

    These streams of sweetness full of ghee, with their banks of honey, flowing with the juice of fruits and milk and curd and water and abundant with their overflow reach to you, O man! in the state Svarga.

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    Translation

    May all these streams of butter, with their banks of honey, flowing with distilled water, and milk and curds and water reach thee in domestic life, enhancing thy pleasure. May thou acquire completely these things strengthening the soul in diverse ways.

    Footnote

    Thee: A Grihasthi, a man who has entered married life. There should be plenty of butter, honey, milk, curd and water in the house of a married person.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ६−(घृतह्रदाः) अञ्चिघृसिभ्यः क्तः। उ० ३।८९। इति घृ क्षरणदीप्त्योः-क्त। घृतं प्रकाशः। ह्राद अव्यक्ते शब्दे-अच्, निपातः। प्रकाशयुक्त-ध्वनयः (मधुकूलाः) कूल आवरणे-अच्। मधु ज्ञानं कूलम्, आवरणं रक्षासाधनं यासां ताः (सुरोदकाः) सुसूधाञ्गृधिभ्यः क्रन्। उ० २।२४। षु प्रसवैश्वर्ययोः, यद्वा षुञ् अभिषवे-क्रन्।, यद्वा, षुर ऐश्वर्यदीप्त्योः=क, टाप्। सुरा=उदकम्-निघ० १।१५। सुरा सुनोतेः-निरु० १।११। सुराणां पत्नी शक्तिः सुरा। उदकं च। उ० २।३९। इति उन्दी क्लेदने-क्वुन्। सुरा, ऐश्वर्यं तत्त्वमथनं वा, उदकं सेचनं यासां ताः (क्षीरेण) घसेः किच्च। उ० ४।३४। इति घस्लृ अदने-ईरन्। वा क्षर संचलने-डीरन्। क्षीरम् उदकम्-निघ० १।१२। क्षीरं क्षरतेर्घसेर्वेरो नामकरण उशीरमिति यथा-निरु० २।५। भोजनसाधनेन (पूर्णाः) पूरिताः (उदकेन) सेचनसाधनेन (दध्ना) अ० ३।१२।७। दधि धारणं पोषणं तेन। अन्यत् पूर्ववत् म० ५ ॥

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