अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 6/ मन्त्र 10
ऋषिः - अथर्वा
देवता - अग्निः
छन्दः - स्वराट्पङ्क्तिः
सूक्तम् - ब्रह्मविद्या सूक्त
56
यो॒स्मांश्चक्षु॑षा॒ मन॑सा॒ चित्त्याकू॑त्या च॒ यो अ॑घा॒युर॑भि॒दासा॑त्। त्वं तान॑ग्ने मे॒न्यामे॒नीन्कृ॑णु॒ स्वाहा॑ ॥
स्वर सहित पद पाठय: । अ॒स्मान् । चक्षु॑षा । मन॑सा । चित्त्या॑ । आऽकू॑त्या । च॒ । य: । अ॒घ॒ऽयु: । अ॒भि॒ऽदासा॑त् । त्वम् । तान् । अ॒ग्ने॒ । मे॒न्या । अ॒मे॒नीन् । कृ॒णु॒ । स्वाहा॑ ॥६.१०॥
स्वर रहित मन्त्र
योस्मांश्चक्षुषा मनसा चित्त्याकूत्या च यो अघायुरभिदासात्। त्वं तानग्ने मेन्यामेनीन्कृणु स्वाहा ॥
स्वर रहित पद पाठय: । अस्मान् । चक्षुषा । मनसा । चित्त्या । आऽकूत्या । च । य: । अघऽयु: । अभिऽदासात् । त्वम् । तान् । अग्ने । मेन्या । अमेनीन् । कृणु । स्वाहा ॥६.१०॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
सब सुख प्राप्ति का उपदेश।
पदार्थ
(यः) जो (यः) घबड़ा देनेवाला (अघायुः) बुरा चीतनेवाला (अस्मान्) हमें (चक्षुषा) आँख से, (मनसा) मन से, (चित्या) बुद्धि से (च) और (आकूत्या) संकल्प से (अभिदासात्) सतावे। (अग्ने) हे सर्वव्यापक परमेश्वर ! (त्वम्) तू (तान्) उन्हें (मेन्या) वज्र से (अमेनीन्) वज्ररहित (कृणु) कर, (स्वाहा) यह सुवाणी वा नम्र प्रार्थना है ॥१०॥
भावार्थ
मनुष्य परमेश्वर में विश्वास करके प्रयत्नपूर्वक अपने दोषों का नाश करके बलवान् होवें ॥१०॥
टिप्पणी
१०−(यः) अधर्मी (अस्मान्) धार्मिकान् (चक्षुषा) नेत्रेण (मनसा) हृदयेन (चित्त्या) (आकूत्या) सङ्कल्पेन (च) समुच्चये (यः) युप विमोहने−ड। विमोहकः (अघायुः) अ० १।२०।२। पापेच्छुः (अभिदासात्) दास वधे−लेट्, वैदिको धातुः। अभितो दास्नुयात्। हिंस्यात् (त्वम्) (तान्) अघायून् (अग्ने) हे सर्वव्यापक परमेश्वर (मेन्या) वज्रेण (अमेनीन्) अवज्रान् (कृणु) कुरु (स्वाहा) इयं सुवाणी प्रार्थनास्ति ॥
विषय
'मेन्या अमेनीन् कृणु'
पदार्थ
१. हे (अग्ने) = परमात्मन् ! (यः यः) = जो-जो भी (अघायुः) = पाप की कामनावाला (चक्षुषा) = अशुभ दृष्टि से (मनसा) = अशुभभावों से (चित्या) = ज्ञान के दुरुपयोग से (च) = तथा (आकूत्या) = अशिवसंकल्प से (अस्मान् अभिदासात्) = हमें विनष्ट करना चाहता है, (त्वम्)=- आप (तान्) = उन सबको (मेन्या) = वज्र द्वारा (अमेनीन्) = वज्ररहित कृणु कीजिए, (स्वाहा) = हम आपके प्रति अपना अर्पण करते हैं । २. चाहिए तो यह कि हम सभी को भद्रदृष्टि से देखें, मन में सभी के प्रति भद्र भावनावाले हों, ज्ञान से सबमें आत्मभाववाले हों तथा शिवसंकल्प ही करें, परन्तु यदि कोई इन पवित्र साधनों का दुरुपयोग करता हुआ हमें विनष्ट करना चाहता है तो प्रभु उस (अघायु) = पापी के इन वज्रों को अवज्र करने की कृपा करें।
भावार्थ
हम अघायु न बनें और हमारे 'चक्षु, मन, चित्त व संकल्प' अघायुओं के लिए वज्र-तुल्य बनें। ये अघायुओं को वज्ररहित करनेवाले हों ।
भाषार्थ
(यः) जो (अघायुः) हमारे लिए हृत्यारूग पाप- कर्म थाहता हुआ (अस्मान्) हमें (चक्षुषा ) क्रुद्ध दृष्टि द्वारा, (मनसा) मननपूर्वक रचे षड्यन्त्र द्वारा, (चित्पा) सम्यक् ज्ञानपूर्वक, (च ) और (आकृत्या) संकल्पपुर्वक, (यः) तथा जो अघायु हमें (अभिदासात्) उपक्षीण करता है, ( तान् ) उन्हें (अग्ने) अग्निनामक हे ब्रह्म ! (त्वम् ) तू (मेन्या) निज मेनि-स्वरूप द्वारा (अमेनीन् ) मेनिरहित ( कृण) कर एतदर्थ (स्वाहा) हमें अपने-आपको तेरे प्रति आहुत करते हैं, समर्पित करते हैं। "अग्निः=ब्रह्म (यजु:० ३२।१ )"
टिप्पणी
[सूक्त में पापवृत्रों का वर्णन है इनकी चक्षु: आदि का कथन इन्हें "पुरुषविध" कल्पित कर किया गया है। अपुरुषों को "पुरुषविध" कल्पित कर उनका वर्णन वेदों में प्रायः होता है । देखो, निरुक्त (७।२।६,७) । कविता में यह शैली स्वीकृत है।
विषय
जगत्-स्रष्टा और राजा का वर्णन।
भावार्थ
(यः यः अघायुः) जो जो पापाचारी पुरुष (अस्मान्) हमें (चक्षुषा) अपनी दुर्भावमय आंखों से (मनसा) अपने मन से (चित्त्या) अपने ज्ञान से और (आकृत्या) अपने मन्त्र, सलाहों से (अभि-दासात्) नष्ट करना चाहता है, हे अग्ने ! राजन् ! सेनापते ! (तान्) उन शत्रुओं को तू अपने (मेन्या) तलवार के ज़ोर से (अमेनीन्) निःशस्त्र (कृणु) कर, (स्वाहा) हमारी तुझे यही उत्तम सलाह है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। १ सोमरुदौ, ब्रह्मादित्यौ, कर्माणि रुद्रगणाः हेतिश्च देवताः। १ त्रिष्टुप्। २ अनुष्टुप्। ३ जगती। ४ अनुष्टुबुष्णिक् त्रिष्टुब्गर्भा पञ्चपदा जगती। ५–७ त्रिपदा विराड् नाम गायत्री। ८ एकावसना द्विपदाऽनुष्टुप्। १० प्रस्तारपंक्तिः। ११, १३, पंक्तयः, १४ स्वराट् पंक्तिः। चतुर्दशर्चं सूक्तम्।
इंग्लिश (4)
Subject
Brahma Vidya
Meaning
O Agni, whoever the wicked person who wants to strike us with the evil eye, evil thought, evil mind, evil resolution, disarm them of their force and power by the strike of your fiery missile. This is our prayer in truth of word, thought and action.
Subject
Agnih
Translation
Who-so-ever sinful persons try to enslave us with eye, with mind, with thought and with design, O adorable Lord, may you make them weaponless with your weapon.
Translation
Let this fire through its weapon make weaponless to them who as assailant creates animosity against us with his eyes, with his thought and who does so with his spirit and with his intention. Whatever is uttered herein is true.
Translation
Make with thy weapon weaponless, O King, all wicked men who want to ruin us, with eye, with thought, with spirit or intention!
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१०−(यः) अधर्मी (अस्मान्) धार्मिकान् (चक्षुषा) नेत्रेण (मनसा) हृदयेन (चित्त्या) (आकूत्या) सङ्कल्पेन (च) समुच्चये (यः) युप विमोहने−ड। विमोहकः (अघायुः) अ० १।२०।२। पापेच्छुः (अभिदासात्) दास वधे−लेट्, वैदिको धातुः। अभितो दास्नुयात्। हिंस्यात् (त्वम्) (तान्) अघायून् (अग्ने) हे सर्वव्यापक परमेश्वर (मेन्या) वज्रेण (अमेनीन्) अवज्रान् (कृणु) कुरु (स्वाहा) इयं सुवाणी प्रार्थनास्ति ॥
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