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अथर्ववेद के काण्ड - 5 के सूक्त 6 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 6/ मन्त्र 4
    ऋषिः - अथर्वा देवता - रुद्रगणः छन्दः - पञ्चपदा अनुष्टुबुष्णिक्, त्रिष्टुब्गर्भा जगती सूक्तम् - ब्रह्मविद्या सूक्त
    74

    पर्यु॒ षु प्र ध॑न्वा॒ वाज॑सातये॒ परि॑ वृ॒त्राणि॑ स॒क्षणिः॑। द्वि॒षस्तदध्य॑र्ण॒वेने॑यसे सनिस्र॒सो नामा॑सि त्रयोद॒शो मास॒ इन्द्र॑स्य गृ॒हः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    परि॑ । ऊं॒ इति॑ । सु । प्र । ध॒न्व॒ । वाज॑ऽसातये । परि॑ । वृ॒त्राणि॑ । स॒क्षणि॑: । द्वि॒ष: । तत् । अधि॑। अ॒र्ण॒वेन॑ । ई॒य॒से॒ । स॒नि॒स्र॒स: । नाम । अ॒सि॒ । त्र॒य॒:ऽद॒श: । मास॑: । इन्द्र॑स्य । गृ॒ह: ॥६.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पर्यु षु प्र धन्वा वाजसातये परि वृत्राणि सक्षणिः। द्विषस्तदध्यर्णवेनेयसे सनिस्रसो नामासि त्रयोदशो मास इन्द्रस्य गृहः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    परि । ऊं इति । सु । प्र । धन्व । वाजऽसातये । परि । वृत्राणि । सक्षणि: । द्विष: । तत् । अधि। अर्णवेन । ईयसे । सनिस्रस: । नाम । असि । त्रय:ऽदश: । मास: । इन्द्रस्य । गृह: ॥६.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 6; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    सब सुख प्राप्ति का उपदेश।

    पदार्थ

    (वृत्राणि) घेरनेवाले राक्षसों को (परि) सब ओर से (सक्षणिः) हरानेवाला (वाजसातये) हमें अन्न देने के लिये (उ) अवश्य ही (सु) अच्छे प्रकार (परि प्र धन्व) सब ओर से प्राप्त हो। (तत्) इसी लिये (अर्णवेन) जल से भरे समुद्र द्वारा (द्विषः) वैरियों पर (अधि) ऐश्वर्य से (ईयसे) तू पहुँचाता है। (सनिस्रसः) शत्रुओं का अतिशय नीचे गिरानेवाला तू (नाम) प्रसिद्ध (त्रयोदशः) दश इन्द्रिय मन और बुद्धि से परे तेरहवाँ परमेश्वर, (मासः) परिमाण करनेवाला (इन्द्रस्य) जीवात्मा का (गृह) घर (असि) है ॥४॥

    भावार्थ

    सर्वव्यापक परमेश्वर के आश्रय से हम समुद्रादि में भी सब विघ्न हटाकर पुरुषार्थ करें ॥४॥ यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है−म० ९।११०।१ ॥

    टिप्पणी

    ४−(परि) परितः (ड) निश्चयेन (सु) सुष्ठु (प्र) प्रकर्षेण (धन्व) गच्छ। प्राप्नुहि (वाजसातये) अस्मभ्यमन्नदानाय (परि) परितः (वृत्राणि) आवरकाणि रक्षांसि (सक्षणिः) सक्षति गतिकर्मा−निघ० २।१४। अर्तिसृधृ० उ० २।१०२। अनि प्रत्ययः। यद्वा षहः अभिभवे−सनि। अभिभविता (द्विषः) शत्रून् (तत्) तस्मात् कारणात् (अधि) ऐश्वर्येण (अर्णवेन) सर्वधातुभ्योऽसुन्। उ० ४।१८९। इति ऋणु गतौ−असुन्। अर्णसो लोपश्च। वा० पा० ५।२।१०९। अर्णस्−व, सस्य लोपः। जलयुक्तेन समुद्रेण (ईयसे) प्राप्नोषि (सनिस्रसः) स्रंसु गतौ−यङन्तात् घञ्, अल्लोपयलोपौ। नीग्वञ्चुस्रंसुध्वंसु० पा० ७।४।८४। इति नीग् आगमः। छान्दसो ह्रस्वः, अन्तर्गतो ण्यर्थः, अतिशयेन अधः पातयिता (नाम) प्रसिद्धौ (असि) (त्रयोदशः) त्रयोदशानां दशेन्द्रियमनोबुद्धीश्वराणां संख्यापूरकः परमेश्वरः (मासः) मसी परिणामे परिमाणे च−घञ्। परिमाणकर्ता (इन्द्रस्य) जीवस्य (गृहः) आश्रयः ॥

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    विषय

    त्रयोदश: मासः, इन्द्रस्य गृहः

    पदार्थ

    १. प्रभु जीव से कहते हैं कि वाजसातये-शक्ति की प्रासि के लिए (परि उ स प्रधन्व) = चारों ओर अपने कर्तव्यकर्मों में खूब गतिवाला हो। इस क्रियाशीलता के द्वारा (वृत्राणि) = ज्ञान की आवरणभूत वासनाओं को (परिसक्षणि) = चारों ओर से पराभूत करनेवाला हो। २. (तत्) = तब (द्विषः) = द्वेष की भावनाओं को (अर्णवेन) = ज्ञानसमुद्र से (अधिईसये) = आक्रान्त करता है-ज्ञान प्राप्त करके द्वेष आदि से ऊपर उठता है। (सनिस्रस: नाम असि) = शत्रुओं को अतिशयेन नीचे गिरानेवाला तू निश्चय से 'सनिस्नस' है। (त्रयोदशः) = दस इन्द्रियाँ, ग्यारवौं मन, बारहवीं बुद्धि और तेरहवाँ आत्मा [इन्द्रियाणि पराण्याहुः, इन्द्रियेभ्यः परं मनः । मनसस्तु परा बुद्धिः बुद्धेरात्मा महान् पर: 1] (मास:) = [मसि परिमाणे] सब वस्तुओं में परिमाण को करनेवाला-मर्यादा में चलानेवाला यह आत्मा (इन्द्रस्य गृहः) = उस परमैश्वर्यशाली प्रभु का घर होता है, अर्थात् उस आत्मा में प्रभु का निवास होता है, जोकि तेरहवाँ बनता है-इन्द्रियों, मन और बुद्धि से ऊपर उठता है, इन्हें वशीभूत करता है और सब बातों को माप-तोल कर करता है।

    भावार्थ

    हम गतिशील बनें, वासनाओं को जीतें। द्वेषादि की भावनाओं को जानसमुद्र में डुबो दें। सब वासनाओं को कुचलकर इन्द्रियों, मन व बुद्धि को वशीभूत करें तभी प्रभु को प्राप्त कर पाएँगे।

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    भाषार्थ

    (परि) सब ओर (उ) निश्चय से (सु) उत्तम प्रकार से ( प्र धन्व) तू गति कर (वाजसातये) बल की प्राप्ति के लिए, अथवा वृत्रों के साथ संग्राम के लिए । तू (परि) सब ओर विद्यमान (वृत्राणि) [ बुद्धि पर ] आवरण डालनेवाले आसुर भावों तथा आसुर कर्मों का (सक्षणिः) विनाश करनेवाला है । (तत् = तान् ) उन ( द्विष: ) द्वेषी वृत्रों को (अध्यर्णवेन), हृदय-समुद्र के अधिष्ठाता ब्रह्म की कृपा द्वारा (ईयसे) तू [ युद्धार्थ ] प्राप्त होता है। (सनिस्रसः) अधःपात करनेवाला ( नाम असि ) प्रसिद्ध तू है । (त्रयोदश: मासः) १३वां मास (इन्द्रस्य गृहः) इन्द्रियों के अधिष्ठाता जीवात्मा का घर है।

    टिप्पणी

    [वाजसातये; वाज: वलनाम (निघं० २।९) + साति: (प्राप्तिः), अथवा वाजसातौ संग्रामनाम (निघं० २।१७)। धन्व= धवि: गत्यर्थ: (भ्वादि)। (अधि अर्णवेन; अर्णव:= समुद्रः) यहाँ हृदय-समुद्र अभिप्रेत है। यथा "हृद्यात् समुद्रात्" (यजू:० १७।९३), हृदय-समुद्र का अधिष्ठाता है ब्रह्म; जीवात्मा का भी अधिष्ठान है हृदय। इस प्रकार दोनों का अधिष्ठान है हृदय। जीवात्मा हृदयवासी ब्रह्म से शक्ति प्राप्त कर द्वेषी वृत्रों के साथ संग्राम को प्राप्त होता हैं। सनिस्रसः= स्रंसु ध्वंसु अवस्रसने (भ्वादिः), अवस्रंसन=अधःपात। त्रयोदशो मास:="अहोरात्रैर्विमित्तं त्रिशदङ्ग त्रयोदशं मासं यो निर्मिमीते" (अथर्ववेद १३।३।८)। "त्रयोदश: मासः" सम्बन्धी सूक्त परमेश्वरपरक है जोकि त्रयोदशमास का निर्माण करता है "त्रयोदश: मासः" पद निज निर्माणकर्ता परमेश्वर का स्मारक है, जिसे कि व्याख्येय सूक्त में ब्रह्म कहा है। वह ब्रह्म इन्द्र अर्थात् इन्द्रियों के अधिष्ठाता जीवात्मा का घर है, आश्रय है। देखो (अथर्व० १३।३।८)।]

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    विषय

    जगत्-स्रष्टा और राजा का वर्णन।

    भावार्थ

    हे सोम ! राजन् ! (वाजसातये) ज्ञान, धन, वीर्य या अन्न की प्राप्ति के लिये जब आप (वृत्राणि) सब आवरणकारी विघ्नों को (सक्षणिः) सहनशील होकर (परि उ सु प्र धन्वा) परे मार भगाते हो। आप ही (तत्) तब (अर्णवेन) समुद्र के द्वारा भी (द्विषः) शत्रुओं पर (अधि ईय़से) चढ़ाई करते हो। इसीलिये आपका (सनिस्रसः नाम असि) नाम ‘सनिस्रस’ = पराक्रमी, ‘विक्रम’ से शत्रु पर चढ़ाई करने में चतुर है। यह बात ठीक है कि (त्रयोदशो मासः) तेरहवां मास (इन्द्रस्य गृहः) इन्द्र का घर है। अर्थात् जिस प्रकार बारहों मास अतिक्रमण करके इन्द्र = सूर्य तेरहवें मास में पैर रख देता है इसी प्रकार वीर भी शत्रु के द्वादश राजमण्डल का विजय करके तेरहवें स्थान पर स्वतः ‘इन्द्र’ होकर विराजता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। १ सोमरुदौ, ब्रह्मादित्यौ, कर्माणि रुद्रगणाः हेतिश्च देवताः। १ त्रिष्टुप्। २ अनुष्टुप्। ३ जगती। ४ अनुष्टुबुष्णिक् त्रिष्टुब्गर्भा पञ्चपदा जगती। ५–७ त्रिपदा विराड् नाम गायत्री। ८ एकावसना द्विपदाऽनुष्टुप्। १० प्रस्तारपंक्तिः। ११, १३, पंक्तयः, १४ स्वराट् पंक्तिः। चतुर्दशर्चं सूक्तम्।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Brahma Vidya

    Meaning

    O conqueror of darkness to win the battle for the attainment of food for body, mind and soul, strike off all evil and sin. Conqueror by name and action you are who overcome all jealousy and enmity to cross over the sea and reach the land of bliss. Just as the sun crosses over twelve months of the year and enters the thirteenth month of the home of Indra, so does the human soul cross over the twelve stage-bonds of ten senses, mind and ego and attains to the presence of Indra, the soul’s own essential abode, the state of pure Being.

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    Translation

    Round about, you run forward to take possession of the winning booty, round about overpowering vrtrani or adversaries. Thereafter, you proceed to suppress the haters by a sea-route (arnava) Weakling (sanisrasa) by name, of course, you are, the thirteenth month, Indra's house (trayodasah masah, indrasya grhah).

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    Translation

    Let Rudra, the dreadful air defeating Vritrani, the clouds which do not release water come to us for bestowing us grain. This therefore, controls the clouds through the atmospheric ocean as a King overcomes the foemen by the sea, This air is called Sanisrasah, the conqueror of foes. The thirteenth month (the intercalary month) is the abode of Indra, the sun.

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    Translation

    O God, Thou art the Remover of all impediments. Verily come unto us nicely from every side. Thou goadest us to attack the foes crossing the sea. Thou art known as the Vanquisher of foes. Thou art the thirteenth power beyond ten organs, mind and intellect. Thou art the Measurer of everything8 and the refuge of the soul!

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ४−(परि) परितः (ड) निश्चयेन (सु) सुष्ठु (प्र) प्रकर्षेण (धन्व) गच्छ। प्राप्नुहि (वाजसातये) अस्मभ्यमन्नदानाय (परि) परितः (वृत्राणि) आवरकाणि रक्षांसि (सक्षणिः) सक्षति गतिकर्मा−निघ० २।१४। अर्तिसृधृ० उ० २।१०२। अनि प्रत्ययः। यद्वा षहः अभिभवे−सनि। अभिभविता (द्विषः) शत्रून् (तत्) तस्मात् कारणात् (अधि) ऐश्वर्येण (अर्णवेन) सर्वधातुभ्योऽसुन्। उ० ४।१८९। इति ऋणु गतौ−असुन्। अर्णसो लोपश्च। वा० पा० ५।२।१०९। अर्णस्−व, सस्य लोपः। जलयुक्तेन समुद्रेण (ईयसे) प्राप्नोषि (सनिस्रसः) स्रंसु गतौ−यङन्तात् घञ्, अल्लोपयलोपौ। नीग्वञ्चुस्रंसुध्वंसु० पा० ७।४।८४। इति नीग् आगमः। छान्दसो ह्रस्वः, अन्तर्गतो ण्यर्थः, अतिशयेन अधः पातयिता (नाम) प्रसिद्धौ (असि) (त्रयोदशः) त्रयोदशानां दशेन्द्रियमनोबुद्धीश्वराणां संख्यापूरकः परमेश्वरः (मासः) मसी परिणामे परिमाणे च−घञ्। परिमाणकर्ता (इन्द्रस्य) जीवस्य (गृहः) आश्रयः ॥

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