अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 73/ मन्त्र 2
ऋषिः - अथर्वा
देवता - घर्मः, अश्विनौ
छन्दः - पथ्यापङ्क्तिः
सूक्तम् - धर्म सूक्त
63
समि॑द्धो अ॒ग्निर॑श्विना त॒प्तो वां॑ घ॒र्म आ ग॑तम्। दु॒ह्यन्ते॑ नू॒नं वृ॑षणे॒ह धे॒नवो॒ दस्रा॒ मद॑न्ति वे॒धसः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठसम्ऽइ॑ध्द: । अ॒ग्नि: । अ॒श्वि॒ना॒ । त॒प्त: । वा॒म् । ध॒र्म: । आ । ग॒त॒म् । दु॒ह्यन्ते॑ । नू॒नम् । वृ॒ष॒णा॒ । इ॒ह । धे॒नव॑: । दस्रा॑ । मद॑न्ति । वे॒धस॑: ॥७७.२॥
स्वर रहित मन्त्र
समिद्धो अग्निरश्विना तप्तो वां घर्म आ गतम्। दुह्यन्ते नूनं वृषणेह धेनवो दस्रा मदन्ति वेधसः ॥
स्वर रहित पद पाठसम्ऽइध्द: । अग्नि: । अश्विना । तप्त: । वाम् । धर्म: । आ । गतम् । दुह्यन्ते । नूनम् । वृषणा । इह । धेनव: । दस्रा । मदन्ति । वेधस: ॥७७.२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
मनुष्य के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थ
(अश्विना) हे चतुर स्त्री-पुरुषो ! (वाम्) तुम दोनों के लिये (समिद्धः) प्रदीप्त (अग्नि) अग्निसमान तेजस्वी (तप्तः) ऐश्वर्ययुक्त, (धर्मः) प्रकाशमान [आचार्य वर्तमान है], (आ गतम्) तुम दोनों आवो। (वृषणा) हे दोनों पराक्रमियों ! और (दस्रा) हे दर्शनीयों वा रोगनाशको ! (धेनवः) वेदवाणियाँ (नूनम्) अवश्य (इह) यहाँ पर (दुह्यन्ते) दुही जाती हैं, और (वेधसः) बुद्धिमान् लोग (मदन्ति) आनन्द पाते हैं ॥२॥
भावार्थ
जो स्त्री-पुरुष वेदविद्या द्वारा विज्ञानी होकर कीर्तिमान् होते हैं, बुद्धिमान् उनसे उपदेश पाकर लाभ उठाते हैं ॥२॥
टिप्पणी
२−(आ गतम्) आगच्छतम् (दुह्यन्ते) प्रपूर्यन्ते (नूनम्) निश्चयेन (इह) अस्मिन् समाजे (धेनवः) अ० ३।१०।१। धेनुर्वाङ्नाम-निघ० १।११। तर्पयित्र्यो वेदवाचः (दस्रा) स्फायितञ्चिवञ्चि०। उ० २।१३। दसु उपक्षुये, दस दर्शने-रक्। रोगनिवारकौ। दर्शनीयौ-निरु० ६।२६। (मदन्ति) हृष्यन्ति (वेधसः) अ० १।११।१। विध विधाने-असुन्। मेधाविनः-निघ० ३।१५। अन्यत् पूर्ववत्-म० १ ॥
विषय
अश्विना, वृषणा, दस्त्रा
पदार्थ
१. हे (अश्विना) = प्राणापानो! (अग्निः समिद्धः) = हदयदेश में प्रभु दीप्त हुए हैं। (वाम्) = आपकी कृपा से (धर्मः तमः) = ज्ञान-सूर्य का दीपन हुआ है। (आगतम्) = आप हमें प्राप्त होवो। हे (वृषणा) = शक्ति का सेचन करनेवाले प्राणापानो! (नूनम्) = निश्चय से (इह) = आपकी साधनावाले इस जीवन में (धेनवः दान्ते) = वेदवाणीरूप धेनुओं से ज्ञानदुग्ध का दोहन करते हैं। (दस्त्रा) = हे मलों व दु:खों का उपक्षय करनेवाले प्राणापानो! (वेधसः) = बुद्धिमान् लोग, उस ज्ञानदुग्ध के दोहन से (मदन्ति) = हर्ष का अनुभव करते हैं।
भावार्थ
प्राणापानों की साधना से प्रभु का प्रकाश प्राप्त होता है, ज्ञान-सूर्य का उदय होता है और प्राणसाधक बुद्धिमान् लोग वेदधेनु से ज्ञानदुग्ध का दोहन करते हुए आनन्द का अनुभव करते हैं।
भाषार्थ
(अग्निः) अग्रणी (समिद्धः) सम्यक् प्रदीप्त हो गया है, (अश्विना) हे अश्विनौ (वाम्) तुम दोनों के लिये (धर्मः१) क्षरित दूध (तप्तः) प्रतप्त हो गया है, (आ गतम्) आओ। (वृषणा) हे सुखों या वाणों की वर्षा करने वाले ! (दस्रा) हे शत्रुओं का क्षय करने वाले अश्विनौ! (इह नूनम्) इस आमन्त्रित शाला में (धेनवः) दुधार गौएं (दुह्यन्ते) दोही जाती हैं, (वेधसः) अन्य शत्रुवेधक सैनिक भी (मदन्ति) यहां आकर तृप्त होते हैं।
टिप्पणी
[अग्नि और अश्विनौ, मन्त्र (१) में व्याख्यात हो चुके हैं। “द्रस्रौ' विशेषण साभिप्राय पठित है "दसु उपक्षये" (दिवादिः)। दस्रौ शत्रूणाम् उपक्षयितारौ अश्विनौ (सायण)। इस से भी प्रतीत होता है कि सूक्त (७७) राजनीतिविषयक है। वेधसः = व्यध् = ताडने, बेंधना, बाणों द्वारा बेंधने वाले सैनिक। दुह्यन्ते द्वारा दुग्ध का प्रत्यग्ररूप प्रकट किया है]। [१. घर्मः आज्यम् (सायण)।]
विषय
ब्रह्मानन्द रस।
भावार्थ
हे (अश्विना) अश्वियो ! (अग्निः) अग्नि सूर्य या यज्ञ की अग्नि (सम् इद्धः) प्रदीप्त होगई और (वां) तुम दोनों के लिये (धर्मः) तेजस्वरूप रस (तप्तः) प्रतप्त, परिपक्व होगया है। (आगतम्) तुम दोनों प्रकट होओ। हे (वृषणा) सुखों और बलों के वर्षक तुम दोनों ! (इह) इस देह और गेह में (धेनवः) रसका पान कराने वाली प्राणवृत्तियां और गौवें (दुह्यन्ते) दुही जाती हैं। हे (दस्रा) दर्शनीयरूप तुम दोनों ! हे सब दुःखों के विनाशक ! तुम दोनों के बल पर ही (वेधसः) देह का कार्य करने वाले इन्द्रियगण, गृहका कार्य सम्पादन करने वाले भृत्यगण, यज्ञ का कार्य सम्पादन करने वाले ऋत्विग्गण (मदन्ति) आनन्द प्रसन्न होते हैं या तुमको प्रसन्न करते। अध्यात्म में—आत्मा के प्रकाशित होने पर वही आत्मा का आनन्द उन प्राण और अपान के लिये परम है जो जीवन का वास्तविक आनन्द है। उस समय ये इन्द्रियां भी परमरस युक्त संवित् ज्ञान प्राप्त करती हैं और (वेधसः) कर्मेन्द्रियां भी स्वयं प्रसन्न रहती और आत्मा को प्रसन्न करती हैं।
टिप्पणी
(द्वि०) ‘तप्तो धर्मो विराट् सुतः’ (तृ० च०) ‘दुहे धेनुः सरस्वती सोमं शुक्रमिहेन्द्रियम्’ इति यजु०॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। अश्विनौ देवते। धर्मसूक्तम्। १, ४, ६ जगत्यः। २ पथ्या बृहती। शेषा अनुष्टुभः। एकादशर्चं सूक्तम्।
इंग्लिश (4)
Subject
Yajna Karma
Meaning
Mighty generous Ashvins, the fire is lighted, the yajna is hot and rising refulgent for you. Pray come, the cows are being milked and, O angels of beauty, grace and glory, the learned sages rejoice and celebrate.
Translation
O twin-healers, kindled is the fire. Libation for you (in the cauldron) is heated. May both of you come (to enjoy the oblation). O mighty heroes, now cows are being milked here (for you). O you handsome to look at, the knowledgeable people are reveling (here). (Also the first-half : Yv. XX.55)
Comments / Notes
MANTRA NO 7.77.2AS PER THE BOOK
Translation
The fire is enkindle and the cauldron is heated, let these mighty and visible heavenly region and earth come into our knowledge. Vedic speeches or the milch-kine are surely milked and the learned priests rejoice.
Translation
O wise, heroic man and woman, the yajna-fire is all aglow, milk is being boiled for you; Come to this house, where Vedic verses are being recited, and the sages rejoice!
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२−(आ गतम्) आगच्छतम् (दुह्यन्ते) प्रपूर्यन्ते (नूनम्) निश्चयेन (इह) अस्मिन् समाजे (धेनवः) अ० ३।१०।१। धेनुर्वाङ्नाम-निघ० १।११। तर्पयित्र्यो वेदवाचः (दस्रा) स्फायितञ्चिवञ्चि०। उ० २।१३। दसु उपक्षुये, दस दर्शने-रक्। रोगनिवारकौ। दर्शनीयौ-निरु० ६।२६। (मदन्ति) हृष्यन्ति (वेधसः) अ० १।११।१। विध विधाने-असुन्। मेधाविनः-निघ० ३।१५। अन्यत् पूर्ववत्-म० १ ॥
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