अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 73/ मन्त्र 8
ऋषिः - अथर्वा
देवता - घर्मः, अश्विनौ
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - धर्म सूक्त
56
हि॑ङ्कृण्व॒ती व॑सु॒पत्नी॒ वसू॑नां व॒त्समि॒छन्ती॒ मन॑सा॒ न्याग॑न्। दु॒हाम॒श्विभ्यां॒ पयो॑ अ॒घ्न्येयं सा व॑र्धतां मह॒ते सौभ॑गाय ॥
स्वर सहित पद पाठहि॒ङ्ऽकृ॒ण्व॒ती । व॒सु॒ऽपत्नी॑ । वसू॑नाम् । व॒त्सम् । इ॒च्छन्ती॑ । मन॑सा । नि॒ऽआग॑न् । दु॒हाम् । अ॒श्विऽभ्या॑म् । पय॑: । अ॒घ्न्या । इ॒यम्। सा । व॒र्ध॒ता॒म् । म॒ह॒ते । सौभ॑गाय ॥७७.८॥
स्वर रहित मन्त्र
हिङ्कृण्वती वसुपत्नी वसूनां वत्समिछन्ती मनसा न्यागन्। दुहामश्विभ्यां पयो अघ्न्येयं सा वर्धतां महते सौभगाय ॥
स्वर रहित पद पाठहिङ्ऽकृण्वती । वसुऽपत्नी । वसूनाम् । वत्सम् । इच्छन्ती । मनसा । निऽआगन् । दुहाम् । अश्विऽभ्याम् । पय: । अघ्न्या । इयम्। सा । वर्धताम् । महते । सौभगाय ॥७७.८॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
मनुष्य के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थ
(हिङ्कृण्वती) गति वा वृद्धि करनेवाली, (वसुपत्नी) धन की रक्षा करनेवाली, (वसूनाम्) श्रेष्ठों के बीच (वत्सम्) उपदेशक पुरुष को (इच्छन्ती) चाहनेवाली [वेदवाणी] (मनसा) विज्ञान के साथ (न्यागन्) निश्चय करके प्राप्त हुई है। (इयम्) यह (अघ्न्या) हिंसा न करनेवाली विद्या (अश्विभ्याम्) दोनों चतुर स्त्री-पुरुषों के लिये, (पयः) विज्ञान को (दुहाम्) परिपूर्ण करे, (सा) वही [विद्या] (महते) अत्यन्त (सौभाग्य) सुन्दर ऐश्वर्य के लिये (वर्धताम्) बढ़े ॥८॥
भावार्थ
यह जो वेदवाणी संसार का उपकार करती है, उसको सब स्त्री-पुरुष प्राप्त होकर यथावत् वृद्धि करें ॥८॥ यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है−१।१६४।२७ ॥
टिप्पणी
८−(हिङ्कृण्वती) हि गतिवृद्ध्योः−डि। गतिं वृद्धिं वा कुर्वती (वसुपत्नी) धनां पालिका (वसूनाम्) श्रेष्ठानां मध्ये (वत्सम्) अ० ३।१२।३। वद कथने-स प्रत्ययः। उपदेशकम् (इच्छन्ती) कामयमाना (मनसा) विज्ञानेन (न्यागन्) गमेर्लुङि रूपम्। निश्चयेनागतवती (दुहाम्) दुर्हुलोटि, आत्मनेपदम्, तलोपः। दुग्धाम्। प्रपूरयेत्। (अश्विभ्याम्) स्त्रीपुरुषयोर्हिताय (पयः) विज्ञानम् (अघ्न्या) अ० ३।३०।१। अहिंसिका वेदविद्या (इयम्) प्रसिद्धा (सा) (वर्धताम्) समृद्धा भवतु (महते) प्रभूताय (सौभगाय) शौभनैश्वर्य्याणां भावाय ॥
विषय
गौ का गोचर स्थान से प्रत्यावर्तन
पदार्थ
१. (हिंकृण्वती) = अपने वत्स के प्रति 'हिं' शब्द करती हुई, (वसूनां वसुपत्नी) = उत्कृष्ट धनों का पालन करनेवाली [गोपालन ऐश्वर्यवृद्धि का कारण बनता है] (मनसा वत्सं इच्छन्ती) = मन में वत्स को चाहती हुई यह (अघ्न्या) = अहन्तव्या गौ (नि आगन्) = निश्चय से आये-प्रास हो। सायंकाल चरागाहों में चरने के बाद यह गौ घर में वापस आये। २. (इयम्) = [अन्या] यह गौ (अश्विभ्याम्) = कर्मों में व्यास होनेवाले पति-पत्नी के लिए [अश् व्यासी] (पयः दुहाम्) = दूध का दोहन करे। (सा) = वह गौ (महते सौभगाय) = हमारे महान् सौभाग्य के लिए (वर्धताम्) = बढ़े, समृद्ध हो, खूब दूध आदि वस्तुओं को प्राप्त करानेवाली हो।
भावार्थ
सायं गौ अपने बछड़े का स्मरण करती हुई घर वापस आये। यह हमारे लिए दूध प्राप्त कराती हुई सौभाग्य का कारण बनती है।
भाषार्थ
(हिङ्कृण्वती) वत्स के प्रति "हिङ्" करती हुई, (वसूनाम्) वसुओं में (वसुपत्नी) वसुरूप दुध की स्वामिनी (मनसा) मन से (वत्सम्) वत्स को (इच्छन्ती) चाहती हुई धेनु, (न्यागन्) नितरां आई है। (इयम्) यह (अघ्न्या) न हनन योग्या धेनु (अश्विभ्याम्) दो अश्वियों के लिये (पयः) दुग्ध (दुहाम्) दोहरूप में प्रदान करे, (सा) वह (महते सौभगाय) हमारे महासौभाग्य के लिये (वर्धताम्) समृद्ध हो।
टिप्पणी
[आगन् = गम् (लुङ्) + च्लि का लुक् + "मोनो धातोः" (अष्टा० ८।२।६४) द्वारा “गम्" धातु के मकार को नकार (सायण)]।
विषय
ब्रह्मानन्द रस।
भावार्थ
जिस प्रकार (वत्सम्) बछड़े को (इच्छन्ती) चाहती हुई गाय (हिंकृण्वती) ‘धिं धिं’ इस प्रकार शब्द करती हुई, हंभारती हुई बछड़े के पास आजाती है उसी प्रकार (वसु-पत्नी) देह में मुख्य वास करने वाले आत्मारूप वसु की ‘पत्नी’ शक्तिस्वरूप चिति शक्ति (वसूनां) अपने पुत्ररूप अन्य प्राणरूप वसुओं के निमित्त (मनसा) मनोबल से (नि-आगन्) उनको प्राप्त करती हैं, उनतक पहुंचती है। और जिस प्रकार (इयम्) यह (अघ्न्या) कभी न मारने योग्य, सुशीला, गोमाता (अश्विभ्यां) स्त्री पुरुषों, गृह के निवासी जनों को (पयः दुहाम्) दूध प्रदान करती है, उसी प्रकार यह चिति-शक्ति या ब्रह्ममयी धेनु (अश्विभ्यां) प्राण और अपान या आत्मा और अन्तःकरण दोनों के लिये (पयः) पुष्टिकारक और तृप्तिकारक ज्ञान और बल रूप रसको (दुहाम्) प्रदान करती है। (सा) इसलिये वह अघ्न्या गौ (महते सौभगाय) बड़े सौभाग्य, समृद्धि और सुख के लिये (वर्धताम्) बढ़े। वर्षा के पक्ष में मेघरूप गौ गर्जन करती हुई अन्न आदि वसुका पालन करती है। चर, अचर प्राणियों के लिये तृप्तिकारक जल प्रदान करती है। अध्यात्म में—धर्म-मेघ समाधि की दशा में चितिशक्ति (वसुपत्नी) वसु इन्द्रियों की पालिका है, वह (वत्सम् इच्छन्ती) वत्स, मनको चाहती है, और (मनसा अभ्यागत्) मनन शक्ति द्वारा ही उनको प्राप्त करती है। (अश्विभ्यां पयः दुहाम्) प्राण और अपान जीव या अन्तःकरण या सिद्ध और साधक दोनों को रस प्रदान करती हुई (अघ्न्या) अमर, अविनाशी होकर (महते सौभागाय) बड़े भारी परम उत्कृष्ट सेवनीय मोक्षधाम के लिये (वर्धताम्) बढ़े, शक्तिशाली हो।
टिप्पणी
‘ऋग्वेदे दीर्घतमा ऋषिः’। (द्वि०) ‘मनसाऽभ्यागात्’ इति ऋ०॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। अश्विनौ देवते। धर्मसूक्तम्। १, ४, ६ जगत्यः। २ पथ्या बृहती। शेषा अनुष्टुभः। एकादशर्चं सूक्तम्।
इंग्लिश (4)
Subject
Yajna Karma
Meaning
This holy inviolable cow, Divine Word and Madhu-vidya, mother guardian and promoter of the prosperity, honour and excellence of the noblest gracious powers of the world, loving from the depth of her heart like the lowing mother cow for her calf, is come. Let this mother sustain the milk of life for the Ashvins, men and women of the world, and let her also grow and prosper for the honour and excellence of the world.
Translation
Lowing (hin-kr) mistress of good things, seeking her calf with her mind, has come in. Let this inviolable one (aghnya) yield mild for the Asvin-divine pair. Let her increase into great nice fortune. (Also Rg. 1.164.27)
Comments / Notes
MANTRA NO 7.77.8AS PER THE BOOK
Translation
The Cow who is the preserver of all treasures, yearning in spirit for her calf and lowing it comes hither. Let this cow who it not ever to be killed yield milk for man and woman and let her prosper for our great benefit.
Translation
Vedic knowledge, ever-elevating, the guardian of wealth, hankering after a missionary amongst noble persons, hath reached us, with all its wisdom. May this indestructible knowledge impart scientific knowledge to wise man and woman. May Vedic knowledge prosper to our great advantage.
Footnote
See Rig, 1-164-27.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
८−(हिङ्कृण्वती) हि गतिवृद्ध्योः−डि। गतिं वृद्धिं वा कुर्वती (वसुपत्नी) धनां पालिका (वसूनाम्) श्रेष्ठानां मध्ये (वत्सम्) अ० ३।१२।३। वद कथने-स प्रत्ययः। उपदेशकम् (इच्छन्ती) कामयमाना (मनसा) विज्ञानेन (न्यागन्) गमेर्लुङि रूपम्। निश्चयेनागतवती (दुहाम्) दुर्हुलोटि, आत्मनेपदम्, तलोपः। दुग्धाम्। प्रपूरयेत्। (अश्विभ्याम्) स्त्रीपुरुषयोर्हिताय (पयः) विज्ञानम् (अघ्न्या) अ० ३।३०।१। अहिंसिका वेदविद्या (इयम्) प्रसिद्धा (सा) (वर्धताम्) समृद्धा भवतु (महते) प्रभूताय (सौभगाय) शौभनैश्वर्य्याणां भावाय ॥
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