अथर्ववेद - काण्ड 15/ सूक्त 17/ मन्त्र 8
सूक्त - अध्यात्म अथवा व्रात्य
देवता - त्रिपदा प्रतिष्ठार्ची
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
तस्य॒व्रात्य॑स्य। स॑मा॒नमर्थं॒ परि॑ यन्ति दे॒वाः सं॑वत्स॒रं वा ए॒तदृ॒तवो॑ऽनु॒परि॑यन्ति॒ व्रात्यं॑ च ॥
स्वर सहित पद पाठस॒मा॒नम् । अर्थ॑म् । परि॑ । य॒न्ति॒ । दे॒वा: । स॒म्ऽव॒त्स॒रम् । वै । ए॒तत् । ऋ॒तव॑: । अ॒नु॒ऽपरि॑यन्ति । व्रात्य॑म् । च॒॥१७.८॥
स्वर रहित मन्त्र
तस्यव्रात्यस्य। समानमर्थं परि यन्ति देवाः संवत्सरं वा एतदृतवोऽनुपरियन्ति व्रात्यं च ॥
स्वर रहित पद पाठसमानम् । अर्थम् । परि । यन्ति । देवा: । सम्ऽवत्सरम् । वै । एतत् । ऋतव: । अनुऽपरियन्ति । व्रात्यम् । च॥१७.८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 17; मन्त्र » 8
भाषार्थ -
(तस्य) उस (व्रात्यस्य) व्रतपति तथा प्राणिवर्गों के हितकारी परमेश्वर के (समानम्) एक (अर्थम्) प्रयोजन को, (च) और (व्रात्यम्) व्रतपति तथा प्राणिवर्गों के हितकारी परमेश्वर को (अनु) लक्ष्य कर के, (देवाः) दिव्यगुणी जन, तथा त्रिलोकी के दिव्य तत्त्व अर्थात् ग्रह-उपग्रह सूर्यचन्द्र, तारा-नक्षत्रगण आदि (परि यन्ति) मानो परिक्रमाएं कर रहे हैं, (एतत्) इस प्रकार परिक्रमा कर रहे हैं, (वै) निश्चय से जैसे कि (ऋतवः) ऋतुएं (संवत्सरम्, अनु) संवत्सर को लक्ष्य कर, (परि यन्ति) मानो संवत्सर की परिक्रमा कर रही हैं।
टिप्पणी -
[अर्थम् - सृष्टि की रचना का प्रयोजन है, जीवात्माओं पर परमेश्वरीय अनुग्रह अर्थात् कृपा तथा कर्मफल प्रदान द्वारा मोक्ष। यथा "अनुग्रहः संगः" (तत्त्वसमास सांख्यसूत्र १७)। इस अनुग्रह की दृष्टि से जड़ जगत् की सृष्टि हुई है, ताकि जीवात्माएं भोग समाप्ति पर समयान्तर में मोक्ष पा सकें। यह मोक्ष ही एक प्रयोजन है दिव्यगुणी तथा देवी जड़-सृष्टि का। "भोगापवर्गार्थ दृश्यम्" (योग २।१८) अर्थात् यह रचना, भोग और अपवर्ग अर्थात् मोक्ष के लिए है। भोग का भी अन्तिम लक्ष्य मोक्ष ही है। प्राकृतिक जगत् भी स्वमोक्ष और परमेश्वर की प्राप्ति के निमित्त मानो प्रयत्नशील है। यथा, - "क्व प्रेप्सन् दीप्यत ऊर्ध्वो अग्निः क्व प्रेप्सन पवते मातरिश्वा। यत्र प्रप्सन्तीरभि यन्त्यावृतः स्कम्भं तं ब्रूहि कतमः स्विदेव सः" इत्यादि (अथर्व० १०।७।४-६), अर्थात् "कहां जाने की इच्छा करती हुई अग्नि, ऊर्ध्व-ज्वाला वाली हो कर प्रदीप्त होती है, कहाँ जाने की इच्छा वाला वायु सतत गति कर रहा है। जहां जाने की इच्छा वाले वायु-भंवर गति कर रहे हैं, उसे स्कम्भ तथा जगदाधार कहो, वह आनन्दस्वरूप ही है"। कतमः= क (सुख)+ तमप् (सर्वातिशायी, सुखस्वरूप)। प्रलयकाल में प्रकृति, सर्जन से मानो मोक्ष पाकर, अपने प्रभु में लीन हो जाती है ]