अथर्ववेद - काण्ड 15/ सूक्त 7/ मन्त्र 1
सूक्त - अध्यात्म अथवा व्रात्य
देवता - त्रिपदा निचृत गायत्री
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
स म॑हि॒मासद्रु॑र्भू॒त्वान्तं॑ पृथि॒व्या अ॑गच्छ॒त्स स॑मु॒द्रोऽभ॑वत् ॥
स्वर सहित पद पाठस: । म॒हि॒मा । सद्रु॑: । भू॒त्वा । अन्त॑म् । पृ॒थि॒व्या: । अ॒ग॒च्छ॒त् । स: । स॒मु॒द्र: । अ॒भ॒व॒त् ॥७.१॥
स्वर रहित मन्त्र
स महिमासद्रुर्भूत्वान्तं पृथिव्या अगच्छत्स समुद्रोऽभवत् ॥
स्वर रहित पद पाठस: । महिमा । सद्रु: । भूत्वा । अन्तम् । पृथिव्या: । अगच्छत् । स: । समुद्र: । अभवत् ॥७.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 7; मन्त्र » 1
भाषार्थ -
(सः) वह व्रात्य-संन्यासी (महिमा) महिमारूप (भूत्वा) हो कर (सद्रुः) द्रुतगति से (पृथिव्याः) पार्थिव शरीर के (अन्तम्) प्रान्त भाग अर्थात् शिरःस्थ सहस्रारचक्र तक (अगच्छत्) पहुँचा। (सः) वह वहां (समुद्रः) योग मुद्रा सम्पन्न (अभवत्) हो गया।
टिप्पणी -
[महिमा = व्रात्य की इतनी महिमा बढ़ी कि वह शरीरधारी-महिमा रूप हो गया, अर्थात् वह महामहिम हो गया। सद्रुः = स+ द्रु (गतौ), द्रुत गति वाला, अथवा शीघ्र ही। पृथिव्याः= पृथिव्याः शरीरम् (अथर्व० ५/१०/८), "पृथिवी शरीरम् " (अथर्व० ५/९/७ ) इन मन्त्रों में पृथिवी द्वारा शरीर का ग्रहण प्रतीत होता है। क्योंकि शरीर रूपान्तर है, पृथिवी का। जैसे कि कहा है कि “Qust thou art to dust returneth", अर्थात् तुम मिट्टी हो, मिट्टी में ही वापिस लौट जाते हो। समुद्रः= मुद्रयासहितः (योग मुद्रा सहित; स्वरूपावस्थिति) शरीर के प्रान्तभाग अर्थात् सिर में "सहस्रारचक्र" है, जहां पहुंच कर, अर्थात् ध्यानावस्थित हो कर योगी परमगति को प्राप्त हो जाता है]